+
दिल्ली दंगा: यह किसकी पटकथा है कि हिंसा भड़काने वाले छुट्टा घूम रहे हैं, बुद्धिजीवी जेल में हैं?

दिल्ली दंगा: यह किसकी पटकथा है कि हिंसा भड़काने वाले छुट्टा घूम रहे हैं, बुद्धिजीवी जेल में हैं?

दिल्ली दंगों की जाँच कर रही पुलिस जिस तरह छात्रों और एक्टिविस्ट के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रही है, उससे भारतीय राज्य उत्पीड़न की अंधेरी रात में प्रवेश कर रहा है।

दिल्ली दंगों की जाँच कर रही पुलिस जिस तरह छात्रों और एक्टिविस्ट के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रही है, उससे भारतीय राज्य उत्पीड़न की अंधेरी रात में प्रवेश कर रहा है। दंगा गंभीर मामला है। दंगों में शामिल हर व्यक्ति की पहचान पूरी विश्वसनीयता से होनी चाहिए और उसे क़ानून का सामना करना चाहिए। पर हम इसके बदले देख रहे हैं कि सिविल सोसाइटी को कुचलने की सोची समझी और योजनाबद्ध रणनीति है। यदि हमें आज़ादी बचानी है तो यह समझना होगा कि दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, उसमें क्या दाँव पर लगा हुआ है। 

शक्तिशाली राज्य

सामान्य रूप से ऐसे समाज में जो नियम-क़ानून से चलता हो, कोई फ़ैसला सुनाने से पहले जाँच प्रक्रिया बग़ैर किसी हस्तक्षेप के पूरी होनी देनी चाहिए। पर हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां राज्य मीडिया के साथ मिल कर ऐसा नहीं होने दे रहा है। एक के बाद एक तमाम मामलों में मीडिया ट्रायल हो रहा है और लोगों की प्रतिष्ठा और ज़िन्दगी नष्ट की जा रही है। राज्य जाँच, लीक किए हुए सबूत और चार्ज शीट के बहाने एक तरह का नैरेटिव खड़ा कर रहा है और लोगों को डरा रहा है। इसकी दिलचस्पी दोष या निर्दोष में नहीं है। इसकी दिलचस्पी यह दिखाने में है कि यह आपकी प्रतिष्ठा धूल में मिला सकता है। 

राज्य आपको आतंकवादी घोषित कर दे सकता है, आपको नशीले पदार्थों का कारोबार करने वाला बता सकता है और आप पर यूएपीए यानी अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रीवेन्शन एक्ट लगा सकता है।

चार्ज शीट का मतलब

दिल्ली दंगों की चार्ज शीट में दर्जनों छात्र और अकादमिक जगत के प्रतिष्ठित लोग इस स्थिति का सामना कर रहे हैं। राज्य कहना चाहता है, 'क़ानून अपना काम करेगा।' पर इस बीच हम आपके साथ क्या कर सकते हैं, यह हम आपको बताते हैं। हम आपको ऐसा उदाहरण बना कर पेश करेंगे कि दूसरे बुद्धिजीवी मुँह खोलने की हिम्मत न करें। क़ानून अपना काम तभी करेगा जब राज्य की दिलचस्पी क़ानून में होगी। पर जब राज्य क़ानून का इस्तेमाल वैचारिक और शारीरिक रूप से धमकी देने में करेगा तो 'क़ानून अपना काम करेगा' का इस्तेमाल संवैधानिक मूल्यों को नष्ट करने में होने लगेगा।

चार्ज शीट दाखिल करने के पैटर्न से क्या पता चलता है इसकी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है। कुल मिला कर उद्देश्य यह बताना है कि भारतीय राज्य को नष्ट करने की एक उदारवादी, वामपंथी, इसलामी साजिश है।

जनता का शत्रु!

राजनीतिक वर्ग इसे दुहरा रहा है, मीडिया इसे रट रही है और पुलिस इससे इशारा पाकर इसी हिसाब से मामला बना रही है। इसके पीछे सोच सिर्फ हिंसा और भेदभाव से ध्यान बँटाना ही नहीं है, बल्कि सरकार की आलोचना करने वाले किसी भी आदमी को विध्वंसक साबित करना है। इसका मक़सद जनता का शत्रु छात्रों और बुद्धिजीवियों के बीच से खोजना है। राज्य ने बहुत ही शातिर तरीके से लोगों का ध्यान दंगों की जाँच से हटा कर सीएए-विरोधी आन्दोलन को ग़ैरक़ानूनी साबित करने तरफ कर दिया है। 

दंगों की जाँच में भारत की पुलिस का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। जरा 1984 के दंगों के बारे में में सोचें। पर मौजूदा स्थिति उससे बहुत ही अलग है। अमूमन पुलिस जाँच में जानबूझ कर गड़बड़ियाँ करती है ताकि ताक़तवर लोगों को बचाया जा सके। कांग्रेस शासन काल में ऐसा होता रहा है। कभी कभी दबाव रहता है कि एक ख़ास किस्म का नतीजा निकाला जाए। इस प्रक्रिया में पुलिस कभी कभी सामान्य संदिग्धों को हिरासत में ले लेती है।

दिल्ली दंगा: अल्पसंख्यक आयोग ने क्या आधार बताया, कौन हुआ ज़्यादा प्रभावित देखें, क्या कहना है वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का। 

पुलिस की भूमिका

पर दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, वह बिल्कुल अलग है। पुलिस सरकार की आलोचना करने वालों को हिरासत में ले रही है या उन्हें ऐसा संकेत दे रही है। यह बौद्धिक रूप से अलग राय रखने वालों का पता लगाना और उन्हें परेशान करना है। अलग बौद्धिक राय रखने वालों और साजिशकर्ताओं के बीच के अंतर को खत्म कर ऐसा किया जा रहा है।

हो यह रहा है कि सरकार से अलग राय रखने और एक भाषण देने से ही किसी को हिंसा भड़काने की साजिश रचने वाला क़रार दिया जा सकता है।

वैचारिक दुश्मन

इस तरीके को भीमा कोरेगाँव मामले में पक्का कर लिया गया। उस मामले में भी केंद्र में वह घटना नहीं थी, आनंद तेलतुम्बडे और सुधा भारद्वाज जैसे वैचारिक दुश्मन को निशाना बनाना था। 

यदि आप इन कथित इकबालिया बयानों और अज्ञात गवाहों के बयानों को देखेंगे तो आपको लगेगा कि आप किसी लोकतांत्रिक गणराज्य में नहीं, बल्कि माओ के चीन में हैं।

छात्रों पर दबाव डाला गया है कि वे जिन लोगों से वैचारिक रूप से प्रेरित होते हैं उनका नाम लें और उनकी भर्त्सना करें ताकि यह साबित किया जा सके कि हिंसा के पीछे एक वैचारिक पृष्ठभूमि के लोगों का एक गुट है। बीजेपी के कुछ नेताओं के सीधे उकसावे से दंगा भड़का, इससे लोगों का ध्यान हटाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। इस दंगे में कितनी जाने गईं, इस पर सोचिए।

अलग सोच अपराध है

ऐसे दर्जनों छात्र जिनके विचार से आप सहमत हो या न हों, इस देश को बेहतर बनाने के लिए जोखिम उठाने को तैयार थे, उनके साथ अब ऐसा आरोप लगाया जाएगा मानो वे आतंकवादी हों।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह शरजील इमाम है, या उमर खालिद या देवांगना कलिता। यह एक ऐसा जाल है, जिसमें राज्य यह एलान कर सके कि बौद्धिक सोच अपराध है और विरोध करना विध्वंसकारी काम है। इसके पीछे मूल मक़सद हर युवा को संकेत देना है - अपने जीवन और लोकतांत्रिक विरोध व अपने विचार के बीच एक चुन लें। इसका मैसेज बहुत ही भयावह है। 

मैं प्रेमचंद पर प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद की एक बहुत ही अच्छी किताब पढ़ रहा था, जिसमें मनुष्य होने के अर्थ पर बहुत ही गहरा चिंतन है, तभी मैंने सुना कि चार्ज शीट में उनका भी नाम है। वह साहित्य पर भारत के सबसे अच्छे विद्वानों में एक हैं। वे वामपंथ से जुड़े रहे हैं, पर गांधीवादी हैं। उनकी राजनीति हिंसा को शांत करने की रही है। उनके मन में दूसरों के प्रति बग़ैर किसी शर्त के चिंता की भावना है, जैसी गांधी जी में थी। 

परेशान करने वाली बात

ऐसे वातावरण में जहां सुलझे हुए उदारवादी भी मुसलमान राजनेताओं से दूरी बना ले रहे हैं ताकि अपनी अंतरात्मा के अनुकूल मुसलमान से नजदीकी बना सकें, अपूर्वानंद ने उमर खालिद को खुले आम गले लगा लिया जैसे वह उनका अपना बेटा हो। छात्रों के प्रति उनका लगाव अनकुरणीय है। 

आपको यह सोच कर ही परेशान होना चाहिए कि ऐसे आदमी से दिल्ली पुलिस पूछताछ कर सकती है, दंगे की चार्ज शीट में उनका नाम डालती है और उनके ऊपर यूएपीए का ख़तरा मंडरा रहा है, जैसा दूसरे कई लोगों के ऊपर मंडरा रहा है। आपको यह सोच कर परेशान होना चाहिए कि कपिल मिश्रा ट्वीट कर सकता है, 'उमर खालिद, ताहिर हुसैन, खालिद सैफी, सफूरा ज़रगर, अपूर्वानंद ने योजना बनाई और हत्या की। ये लोग 26/11 जैसे आतंकवादी हमले में शामिल थे। इन आतंकवादियों और हत्यारों को फांसी होनी चाहिए। दिल्ली पुलिस को बधाई।' 

यह किसकी लिखी पटकथा है और दिल्ली पुलिस को सचमुच बधाई। जिन लोगों ने वाकई हिंसा भड़काई, वे खुले आम घूम रहे हैं। पर हम सभी लोग जिन्हें संविधान में एक उम्मीद दिखी, वे अब संभावित आतंकवादी हैं। 

('द इंडियन एक्सप्रेस' से साभार।)

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें