गंभीर की सीएम पद पर दावेदारी से बाक़ी नेताओं की मुसीबत बढ़ी
क्रिकेटर से सांसद बने गौतम गंभीर का मन भी हिलोरे मारने लगा है। गंभीर भी कहने लगे हैं कि अगर दिल्ली में बीजेपी जीत जाए तो वह मुख्यमंत्री बनने के लिए तैयार हैं। उन्होंने यहां तक कह डाला है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना उनके लिए एक सपने के मुकम्मल होने जैसा होगा। हो सकता है कि लोगों को गौतम गंभीर की यह बात बड़ी साधारण-सी लगे लेकिन उन नेताओं के सीनों पर यह सांप लोटने के बराबर है जो अपने दिल में मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले हुए हैं।
यह सच है कि बीजेपी की हालत ‘घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने’ जैसी है क्योंकि 1998 से लेकर अब तक हुए पांच विधानसभा चुनावों में बीजेपी नेता मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब तो संजोते रहे लेकिन किसी का ख्वाब मुकम्मल तो क्या अधूरी तरह भी पूरा होता दिखाई नहीं दिया। थक-हारकर ये नेता यही मान रहे हैं कि किसी तरह सत्ता का वनवास ख़त्म हो जाए।
बीजेपी चुनाव जीतती है या नहीं, यह सवाल अलग है लेकिन मुख्यमंत्री बनने के इच्छुक नेताओं की लाइन लंबी होती जा रही है।
दरअसल, गौतम गंभीर की तरह और भी बहुत से नेता मुख्यमंत्री बनने का सपना पालते रहे हैं और उसे पोषित भी करते रहे हैं। इन नेताओं में कम से कम चार नेता तो साफ़तौर पर देखे जा सकते हैं। ये हैं - विजय गोयल, डॉ. हर्षवर्धन, मनोज तिवारी और विजेंद्र गुप्ता। अब इसमें गौतम गंभीर का नाम भी जोड़ लिया जाना चाहिए।
विजय गोयल तब से मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश रखते हैं, जब मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बीच इस पद के लिए होड़ चल रही थी।
2013 में विधानसभा चुनावों से क़रीब आठ महीने पहले विजय गोयल को प्रदेश बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया था तो उन्होंने यह मान लिया था कि इस बार तो उनका यह सपना पूरा हो ही जाएगा लेकिन चुनावों से कुछ दिन पहले ही पार्टी ने डॉ. हर्षवर्धन को ईमानदार नेता के रूप में सामने रखकर उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था।
गोयल की नाराजगी कम करने के लिए ही उन्हें राज्यसभा भेजा गया था। राज्यसभा में उनका कार्यकाल फ़रवरी 2020 में ख़त्म होना है। दिल्ली में विधानसभा चुनाव भी उसके आसपास ही होने हैं।
विजय गोयल को इसलिए भी इस बार उम्मीदें हैं कि उन्हें लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ाया गया और नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल की दूसरी पारी से भी बाहर रखा गया है। जाहिर है कि उन्हें लग रहा है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने के लिए उन्हें मोदी जी ने दोबारा सरकार में शामिल नहीं किया। वैसे, वह 2008 में भी दावेदार माने जा रहे थे लेकिन तब पार्टी ने दूसरे विजय यानी विजय कुमार मलहोत्रा को ‘सीएम इन वेटिंग’ बनाकर प्रोजेक्ट कर दिया था लेकिन वह वेट करते ही रह गए।
यह भी माना जाता है कि विजय गोयल को दिल्ली में पार्टी की कमान सौंपने में अरुण जेटली एक रुकावट बन जाया करते थे। अरुण जेटली के निधन के बाद विजय गोयल को हाईकमान में किसी के प्रबल विरोध की भी आशंका नहीं होगी। विजय गोयल को अगर किसी से ख़तरा होगा तो वह हैं डॉ. हर्षवर्धन।
डॉ. हर्षवर्धन पर दांव लगायेगी बीजेपी!
डॉ. हर्षवर्धन ने 2013 में जिस तरह विजय गोयल के लबों तक आए पैमाने को छलका दिया था, इस बार भी उनके साथ कहीं ऐसा ही नहीं हो जाए। हालांकि डॉ. हर्षवर्धन को अब केंद्र में कुछ हद तक अहमियत मिली है और उन्हें मोदी सरकार की पहली पारी की तुलना में अब ज़्यादा जिम्मेदारी देकर स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया है। लेकिन फिर भी वह हाईकमान की दिल्ली की बीजेपी राजनीति में पहली पसंद बनते रहे हैं। इसलिए अगर बीजेपी जीत जाती है तो ऐनवक्त पर विजय गोयल का सारा खेल बिगड़ भी सकता है। पिछले महीने जब मीडिया के सामने पार्टी को एकजुट होकर पेश करना था तो उस प्रेस कॉन्फ़्रेंस के लिए डॉ. हर्षवर्धन को ही आगे किया गया था।
मनोज तिवारी भी हैं दावेदार
मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में तीसरा नाम मनोज तिवारी का है। मनोज तिवारी कभी दिल्ली प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष बनेंगे, बहुत-से लोगों को इसका भरोसा ही नहीं था लेकिन 2017 में पूर्वांचल वोटों की ख़ातिर ऐसा किया गया। अब मनोज तिवारी प्रदेश बीजेपी में एक मजबूत नाम हैं और इन दिनों जब भी उनसे पूछा जाता है कि दिल्ली में अगर बीजेपी जीत गई तो मुख्यमंत्री कौन होगा तो वह इस सवाल पर अपना नाम वापस नहीं खींचते। वह झट से कह देते हैं कि चुनाव मोदी जी के नाम पर लड़ा जाएगा और पार्टी जिसे चाहेगी, मुख्यमंत्री बना सकती है, हमारी पार्टी में सभी योग्य हैं। इसलिए मनोज तिवारी का पैंतरा दूसरों पर भारी पड़ जाए तो हैरानी नहीं होगी।
विजेंद्र गुप्ता भी हैं रेस में
चौथा नाम लिया जा सकता है विजेंद्र गुप्ता का। विजेंद्र गुप्ता दिल्ली प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके हैं और इन दिनों विपक्ष के नेता भी हैं। मगर, बीजेपी विधायक दल के सदस्यों की संख्या पहले सिर्फ़ तीन थी और बाद में चार हो गई। इतने छोटे विधायक दल का नेता अगर यह दावा करेगा कि चूंकि विपक्ष में रहते हुए वह नेता हैं और जीतने पर वह ही मुख्यमंत्री बनेंगे, तो पार्टी के कुछ नेताओं को शायद यह रास नहीं आए।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि विजेंद्र गुप्ता ने सिर्फ़ चार सदस्यों के साथ भी पांच साल तक केजरीवाल सरकार को हिलाये रखा लेकिन पार्टी हाईकमान इसे किस नज़रिए से देखता है, यह कोई नहीं जानता। हाईकमान यानी अमित शाह की नज़रों में आपकी कितनी अहमियत है, यह बात सबसे ज़्यादा मायने रखती है।
गौतम गंभीर ने इस लिस्ट में अपना नाम तो लिखवा लिया है लेकिन यह भी सच है कि बीजेपी दिल्ली में ऐन विधानसभा चुनावों से पहले हमेशा ही प्रयोग करती रही है। ये सारे प्रयोग फ़ेल रहे हैं लेकिन प्रयोग करने से बीजेपी कभी भी बाज़ नहीं आई।
सुषमा स्वराज को बनाया मुख्यमंत्री
1998 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने चुनाव से कुछ दिन पहले ही सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बना दिया था जबकि उन दिनों नेतृत्व के दंगल में मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा हाथ आजमा रहे थे। 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले मदन लाल खुराना राजस्थान के गवर्नर थे और दिल्ली की राजनीति से दूर थे लेकिन अचानक उन्हें दिल्ली बुलाकर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया गया।
2008 में विजय कुमार मलहोत्रा को उस वक्त ‘सीएम इन वेटिंग’ कह दिया गया जब वह दिल्ली की अंदरूनी राजनीति में कोई पैठ नहीं रखते थे। मलहोत्रा 1967 में दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद रहे थे जिसे मुख्यमंत्री के समकक्ष माना जाता था यानी 40 साल बाद फिर से वक्त का पहिया घूमते हुए विजय कुमार मलहोत्रा पर आकर रुक गया था लेकिन दिल्ली के लोगों ने तब शीला दीक्षित को ही सत्ता में बनाए रखा।
2013 का हाल मैं पहले ही बयान कर चुका हूं जब चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने एक और प्रयोग किया और विजय गोयल की बजाय डॉ. हर्षवर्धन को सीएम प्रोजेक्ट कर दिया। 2015 में तो बीजेपी ने एक और ऐसा प्रयोग किया जिस पर आज भी लोग हैरान होते हैं। केजरीवाल का सामना करने के लिए बीजेपी पूर्व पुलिस अफ़सर किरन बेदी को सामने ले आई और उन्हें तुरूप का पत्ता बता दिया। लेकिन उस पत्ते की तो ऐसी हवा निकली कि विधानसभा में बीजेपी तीन सीटों पर अटक गई।
अब गौतम गंभीर की नज़रें भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आकर अटक रही हैं और वह अपना यह सपना पूरा करना चाहते हैं। लगता तो नहीं कि बीजेपी इस बार कोई ऐसा प्रयोग करेगी कि लगातार छठी बार मुंह की खानी पड़े। लगता तो यही है कि इस बार बिना किसी नेता को प्रोजेक्ट किए बीजेपी विधानसभा का चुनाव लड़ेगी लेकिन इतिहास कई बार अपने आपको दोहरा चुका है। इसलिए तेल देखो और तेल की धार देखो।