क्या केजरीवाल दिल्ली के मेयर बनना चाहेंगे?
9 मार्च को जब दिल्ली के चुनाव आयुक्त आर.के. श्रीवास्तव ने नगर निगम चुनाव की तारीख़ों का ऐलान करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस बुलाई थी तो किसी को ऐसा नहीं लगता था कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव टल रहे हैं। हालाँकि पिछले साल अक्टूबर में जब बीजेपी हाईकमान ने नगर निगम चुनावों पर इंटरनल सर्वे कराया था तो उसे अपनी हालत बहुत अच्छी नज़र नहीं आई थी। तभी कुछ नेताओं ने यह सुझाव दिया था कि अगर तीनों नगर निगमों को एक कर दिया जाए तो बीजेपी की हालत में सुधार हो सकता है। तभी से इन संभावनाओं पर विचार हो रहा था लेकिन 9 मार्च को जब चुनाव आयोग ने प्रेस कांफ्रेंस बुला ली और यह भी ऐलान कर दिया कि शाम को चुनाव की तारीख़ें घोषित कर दी जाएंगी तो फिर किसी को शक-शुबह नहीं बचा था। चुनाव होना तय मान लिया गया था।
मगर, ऐन वक़्त पर चुनावों की तारीख़ घोषित होने से क़रीब एक घंटा पहले गृह मंत्रालय ने दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल की मार्फत चुनाव आयोग को संदेश भिजवा दिया कि नगर निगमों को एक करने के प्रस्ताव पर सरकार विचार कर रही है। इसलिए चुनावों की तारीख़ घोषित न की जाए।
अब इस पर डिबेट हो रही है कि चुनाव आयोग को केंद्र का यह निर्देश मानना चाहिए था या नहीं, लेकिन दिल्ली नगर निगम के चुनाव टल चुके हैं। चुनाव आयुक्त ने कहा था कि वह 5-7 दिन के बाद तारीख़ों का ऐलान कर सकते हैं लेकिन अब चुनाव 5-7 महीनों के बाद ही होंगे, इसी तरह की संभावनाएँ बन रही हैं।
आम आदमी पार्टी यह आरोप लगा रही है कि बीजेपी ने हार के डर से चुनाव टाले हैं। इस आरोप में काफी हद तक सच्चाई है। बीजेपी के एक सीनियर नेता ने 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान मुझसे कहा था कि अगर पंजाब में आम आदमी पार्टी जीती तो दिल्ली के चुनाव नहीं होंगे। हमारा प्लान बी तैयार है और तब दिल्ली की तीनों नगर निगमों को एक करने का प्रस्ताव आगे कर दिया जाएगा। 10 मार्च को नतीजे आए लेकिन उससे पहले एग्जिट पोल ने ही पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत का ऐलान कर दिया था। इसीलिए मतगणना से एक दिन पहले ही दिल्ली के तीनों नगर निगमों को एक करने का प्रस्ताव सामने लाकर चुनावों को टाल दिया गया।
दूसरी तरफ़ बीजेपी का यह आरोप भी सौ फीसदी सच है कि नगर निगमों को इस पंगु हालत में लाने के लिए आम आदमी पार्टी सरकार ज़िम्मेदार है। दिल्ली सरकार ने नगर निगमों को भिखारी जैसी हालत में पहुँचा दिया और पिछले आठ सालों में कर्मचारियों की कम से कम 10 बड़ी हड़ताल हो चुकी हैं।
दिल्ली सरकार ने नगर निगमों को फंड जारी न करके हमेशा यही संदेश देने की कोशिश की कि नगर निगम के भ्रष्टाचार के कारण ये हालात बने हैं।
कहने का मतलब यह है कि बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों ही अपनी-अपनी राजनीतिक चालें चल रहे हैं और नगर निगम की बिसात पर दिल्ली की जनता को मोहरा बनाया जा रहा है। जब दिल्ली नगर निगम का 2012 में विभाजन हुआ था, तब भी यही स्थिति थी। कांग्रेस में गुटबंदी जोरों पर थी। खासतौर पर तब की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लिए तब के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रामबाबू शर्मा बड़ी मुसीबत बने हुए थे। शीला दीक्षित यह मान चुकी थीं कि अविभाजित नगर निगम के कारण ऐसा हो रहा है क्योंकि नगर निगम का नेता भी कम ताक़तवर नहीं होता है। रामबाबू शर्मा उनके क़द के बराबर आकर उन्हें चुनौती दे रहे थे। इसीलिए उन्होंने नगर निगम को तीन हिस्सों में बांटने का फ़ैसला कर लिया ताकि कोई ऐसा नेता खड़ा ही नहीं हो जो दिल्ली के मुख्यमंत्री के लिए चुनौती बन सके।
तब शीला दीक्षित को यह आभास नहीं था कि अगले ही साल 2013 में उनकी मुख्यमंत्री की पारी हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। 2012 में शायद वह सोचती थीं कि उन्हें इस पद से कोई नहीं हटा सकता। उस राजनीतिक फ़ैसले को यह रूप दिया गया था कि इससे नगर निगम तीन हिस्सों में बँट जाएगा और दिल्ली की जनता का काम आसान हो जाएगा। 2013 से अब तक दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार होने के कारण यह काम आसान होने की बजाय मुश्किल हो गया है। अब भी वजह राजनीतिक ही हैं।
अब सवाल यह है कि नगर निगमों को एक करने से दिल्ली का क्या लाभ होगा? यों तो नगर निगमों को एक करने का फ़ैसला दिल्ली नगर निगम एक्ट 1957 में उस संशोधन को वापस लेकर मिनटों में हो सकता है जिसके तहत विभाजन किया गया था। मगर, असल में ऐसा नहीं हो रहा। अब बीजेपी की मंशा यह है कि दिल्ली नगर निगम को एक मज़बूत और स्वायत्त संस्था के रूप में स्थापित किया जाए जो इस तरह फंड के लिए हाथ न पसारता फिरे। 2012 से पहले दिल्ली नगर निगम की आर्थिक ज़रूरतें गृह मंत्रालय की मार्फत केंद्र सरकार पूरी करती थी। अब एक बार फिर नगर निगम को उससे भी मज़बूत स्थिति में लाने की तैयारी है। मेयर और बाक़ी चुने हुए सदस्यों को अधिक अधिकार मिलेंगे, दिल्ली में इलाक़ों का फिर से पुनर्सीमन होगा, रिजर्वेशन फिर से तय होगा, मेयर का कार्यकाल बढ़ाया जाएगा आदि-आदि।
तो क्या दिल्ली में मज़बूत राज्य सरकार और मज़बूत नगर निगम की ज़रूरत है? अगर ऐसा होता है तो फिर टकराव टलने की बजाय और ज़्यादा बढ़ जाएगा। क्या तब दिल्ली में दो समानान्तर सरकारें नहीं चलने लगेंगी और दिल्ली का भला होने की बजाय कहीं नुक़सान तो नहीं हो जाएगा?
जी हां, सच्चाई तो यह है कि केंद्र सरकार में इन सवालों पर भी गहन विचार-विमर्श हो रहा है। इस तरह की ख़बरें तो छन-छनकर आ रही हैं कि अब मेयर का पद बहुत मज़बूत और अहम हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो क्या फिर दिल्ली सरकार की शक्तियाँ और कम हो जाएंगी या यह कोशिश की जाएगी कि जिस दिल्ली सरकार ने नगर निगम को कमजोर किया है, उसी पर प्रहार करते हुए उसे ही कमजोर कर दिया जाए?
इन सवालों पर जब संविधान विशेषज्ञ और दिल्ली विधानसभा के पूर्व सचिव एस.के. शर्मा से चर्चा हुई तो उनका कहना था कि जब भारत का संविधान लिखा जा रहा था तो बी.आर. आम्बेडकर के दिमाग में चार बातें एकदम साफ़ थीं- दिल्ली को विधानसभा नहीं दी जानी चाहिए, दिल्ली का फेडरल कैपिटल का दर्जा होगा, दिल्ली का अपना स्थानीय प्रशासन होगा, दिल्ली में दो समानान्तर सरकारें नहीं होंगी। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के फेडरल स्ट्रक्चर की तरह ही दिल्ली को सिर्फ़ स्थानीय प्रशासन के तहत ही रखने का फ़ैसला लिया गया जिसमें सिर्फ़ एक ही सरकार हो।
1953 में स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन कमिशन का गठन हुआ और जब 1956 में एक्ट बना तो दिल्ली की विधानसभा भंग कर दी गई। बहुत कम लोग जानते हैं कि 1957 में जब दिल्ली नगर निगम का गठन हुआ तो उस समय दिल्ली में कोई राज्य सरकार नहीं थी। दरअसल, इसकी ज़रूरत ही महसूस नहीं की गई क्योंकि यह मान लिया गया था कि दिल्ली को चलाने के लिए स्थानीय स्तर पर ही निकाय की ज़रूरत है, किसी राज्य सरकार की नहीं। दिल्ली नगर निगम के पास ऐसे कई विभाग थे जो आज दिल्ली सरकार के प्रमुख विभाग माने जाते हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, ट्रांसपोर्ट, बिजली, पानी सब शामिल हैं। दस साल तक दिल्ली बिना किसी राज्य सरकार के ही चली।
बाद में 1966 में दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट लाया गया और दिल्ली महानगर परिषद का गठन हुआ। महानगर परिषद सिर्फ़ एक सलाहकार बॉडी थी जिसके प्रशासक उपराज्यपाल थे।
लालकृष्ण आडवाणी मार्च 1967 से अप्रैल 1970 तक महानगर परिषद के अध्यक्ष रहे हैं। महानगर परिषद के प्रमुख को मुख्य कार्यकारी पार्षद और विभाग प्रमुखों को कार्यकारी पार्षद कहा जाता था। मीर मुश्ताक अहमद दिल्ली के पहले अंतरिम मुख्य कार्यकारी पार्षद बने थे लेकिन 1967 के चुनावों में जनसंघ यानी अब की बीजेपी ने पहली बार बड़ा चुनाव जीता था और विजय कुमार मलहोत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद बने थे। जनवरी 1990 तक यह दौर चलता रहा था। उस दौरान दिल्ली नगर निगम के कुछ विभाग यानी शिक्षा का कुछ हिस्सा और स्वास्थ्य दिल्ली प्रशासन के नाम से महानगर परिषद के पास आए थे। बाद में डीटीयू को डीटीसी बनाया गया और यह दिल्ली सरकार के आधीन आई और बिजली-पानी को नगर निगम से लेकर दिल्ली सरकार को सौंप दिया गया। इस तरह नगर निगम कमजोर हुआ और दिल्ली सरकार ज़्यादा ताक़तवर बन गई।
अब अगर पुरानी स्थिति में जाने की तैयारी है तो फिर यह सवाल ज़रूर उठेगा कि क्या अब दिल्ली में नगर निगम को मज़बूत करके दिल्ली विधानसभा को पंगु बना दिया जाएगा या फिर उसका अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाएगा? अगर ग़ौर किया जाए तो दिल्ली सरकार के पास आज भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी मर्जी से दिल्ली के लिए कोई क़ानून पास कर सके। कहने को तो दिल्ली सरकार के पास ज़मीन, पुलिस और क़ानून-व्यवस्था ही नहीं है लेकिन असल में उसे किसी भी विभाग के बारे में कोई बिल लाने का अधिकार नहीं है।
संसद में पिछले दिनों कुछ संशोधन करके दिल्ली सरकार को और भी कमजोर कर दिया है। इसलिए जहां बीजेपी में यह सोच चल रही है कि नगर निगम को मज़बूत बना दिया जाए तो राज्य सरकार की कोई ज़रूरत ही नहीं बचेगी। यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी में भी यही आशंका है कि कहीं अमित शाह दिल्ली सरकार का अस्तित्व ही तो ख़त्म करने नहीं जा रहे। अगर ऐसी कोई सोच है तो निश्चित रूप से यह दिल्ली के लिए एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन लाने वाली बात भी होगी। हो सकता है कि ‘एमसीडी में भी केजरीवाल’ जैसा नारा तब भी आम आदमी पार्टी लगाए लेकिन सवाल यह होगा कि क्या केजरीवाल दिल्ली का मेयर बनकर रहना चाहेंगे?