क्या किसी साज़िश का शिकार बन रही है दिल्ली कांग्रेस?
लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद दिल्ली में कांग्रेस को कुछ जान मिलती दिखाई दे रही थी लेकिन अब जो कुछ हो रहा है, उससे लगता है कि कांग्रेसी ख़ुद ही कांग्रेस का गला घोंटने पर उतारू हैं। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सात में से पाँच सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी जबकि 2014 के चुनावों में वह सातों सीटों पर तीसरे नंबर पर आई थी। इस बार विधानसभा की 70 में से 5 सीटों पर कांग्रेस को लीड मिली थी और 65 पर बीजेपी को; यानी विधानसभा सीटों के हिसाब से ग़िनती की जाए तो भी कांग्रेस नंबर दो पर थी और आम आदमी पार्टी (आप) नंबर तीन पर। थोड़ी सी ऊर्जा मिलने के बाद कांग्रेसी हसीन सपने देखने लगे थे कि अगले साल के शुरू में होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में वापसी कर सकती है। लेकिन अब दिल्ली कांग्रेस में जो कुछ हो रहा है, उससे कांग्रेसियों की उम्मीदें पूरी होना मुश्किल लग रहा है।
यह तो सच है कि राहुल गाँधी के इस्तीफ़े के बाद सारे देश में ही कांग्रेसियों में निराशा का माहौल है। लोकसभा चुनाव का परिणाम आए दो महीने होने वाले हैं और कांग्रेस का अध्यक्ष कौन है, यह किसी को पता नहीं है और न ही कोई बनने के लिए तैयार हो रहा है। दिल्ली में इसका सीधा असर पड़ता दिखाई दे रहा है क्योंकि दिल्ली पिछले काफ़ी समय से हर बात के लिए हाईकमान का मुँह देखती रही है।
अब कोई हाईकमान ही नहीं है तो लगता है कि कांग्रेस की कमान भी किसी के पास नहीं है। अजीब अराजकता की स्थिति बनी हुई है। जिस कांग्रेस को लोकसभा चुनावों के बाद विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुट जाना चाहिए था, वह जूतों में दाल बाँटती नज़र आ रही है।
चाको-शीला आए आमने-सामने
आमतौर पर कांग्रेस में यह माना जाता है कि हाईकमान की तरफ़ से नियुक्त किया गया प्रभारी पार्टी को ऊपर से मिले आदेशों के आधार पर चलाएगा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी प्रभारी के इशारों पर काम करते रहे हैं। प्रभारियों का अपना अलग जलवा होता है। मगर, इस बार प्रदेश प्रभारी पी.सी. चाको का वास्ता शीला दीक्षित से पड़ा है जिन्होंने दिल्ली में 15 साल तक एकछत्र राज किया और दिल्ली में धुरंधर समझे जाने वाले नेताओं को किनारे लगा दिया। हालाँकि अब कांग्रेस कुछ मंझधार में फंसी नज़र आ रही है तो किसी को कोई किनारा सूझ ही नहीं रहा है।चाको और शीला दीक्षित में मतभेदों की शुरुआत तब हुई थी जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन का किस्सा शुरू हुआ था। शीला दीक्षित गठबंधन के ख़िलाफ़ थीं लेकिन अचानक ही चाको गठबंधन के पक्षधर बनकर सामने आ गए। दोनों ने राहुल गाँधी के सामने अपनी-अपनी चाल चलने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन जीत शीला दीक्षित की हुई। शीला दीक्षित तभी से यह मान बैठी हैं कि चाको दिल्ली की राजनीति में दख़ल न ही दें तो बेहतर है जबकि चाको को प्रभारी की भूमिका के बजाय दिल्ली कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में चाकू घिसने में ज़्यादा मजा आने लगा है।
चाको को दिल्ली कांग्रेस में अजय माकन का पूरा समर्थन हासिल है। यही वजह है कि ‘आप’ के साथ गठबंधन के मुद्दे पर भी वह अजय माकन के कारण ही आगे बढ़े।
शीला दीक्षित को इस साल जनवरी में प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन लोकसभा चुनावों में वक़्त इतना कम था कि वह अपनी पसंद के पदाधिकारियों को नियुक्त नहीं कर पाईं। यहाँ तक कि हाईकमान ने तीन कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर उन पर और ज़्यादा अंकुश लगा दिया था।
शीला ने हटाए ब्लॉक अध्यक्ष
लोकसभा चुनाव ख़त्म होने के बाद शीला दीक्षित ने पहले तो हार के कारण ढूंढने के लिए पाँच सदस्यों की एक कमेटी बना दी और इस कमेटी पर चाको को भरोसा नहीं था। इसके बाद इस कमेटी की रिपोर्ट के नाम पर सारे ब्लॉक अध्यक्षों को ही हटा दिया। इनमें से ज़्यादातर अजय माकन के समर्थक हैं और उन्होंने ही इन्हें बनाया था। हैरानी की बात यह है कि इतना बड़ा फ़ैसला लेने के लिए उन्होंने न तो चाको से पूछा और न ही कार्यकारी अध्यक्षों से। यहाँ तक कि यह फ़ैसला करने के लिए इन नेताओं को विश्वास में भी नहीं लिया। यह एक तरह से अजय माकन को शीला की चुनौती थी।
चाको ने खुलेआम कह दिया कि वह इस फ़ैसले को नहीं मानते लेकिन शीला दीक्षित ने इससे भी आगे बढ़कर नए ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति के लिए पर्यवेक्षक भी नियुक्त कर दिए। ये सारे पर्यवेक्षक भी शीला समर्थक और माकन विरोधी हैं। इस तरह यह फ़ैसला भी चाको के लिए चुनौती बन गया।
शीला दीक्षित दिल की बीमारी से अक्सर परेशान रहती हैं और इस दौरान वह दस दिन तक एस्कार्ट्स में एडमिट भी रहीं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि उनके बीमारी रहने के दौरान भी इतने बड़े फ़ैसले लिए जाते रहे तो चाको ने भी इसी को आधार बनाकर कह दिया कि ‘आप तो बीमार हैं, मेरी चिट्ठियों का जवाब नहीं दे रहीं, मेरे फ़ोन नहीं ले रही तो फिर आप कैसे काम कर सकती हैं। इसलिए मैं तीनों कार्यकारी अध्यक्षों को स्वतंत्र काम करने का अधिकार दे रहा हूँ। वह फ़ैसले लेकर आपको सूचित करते रहेंगे।’
शीला ने चाको के इस फ़ैसले के जवाब में इन कार्यकारी अध्यक्षों के पर ही पूरी तरह कतर डाले। हारुन यूसुफ़ और देवेंद्र यादव को ज़िम्मेदारी दे दी कि आप सिर्फ़ डूसू चुनाव कराइए और राजेश लिलोठिया को नगर निगम का काम देखने की ज़िम्मेदारी दे दी।
अब हारुन और देवेंद्र यादव कार्यकारी अध्यक्ष होते हुए भी अदना-सा काम करने लायक रह गए हैं। हारुन और अजय की दोस्ती भी सभी जानते हैं। ये नेता कहते हैं कि वे शीला दीक्षित के फ़ैसलों को नहीं मानते बल्कि एआईसीसी यानी चाको के फ़ैसलों को मानेंगे।
कुल मिलाकर दिल्ली कांग्रेस में अफरा-तफरी का माहौल है। अब सवाल यह है कि कांग्रेस के इस माहौल का नतीजा क्या निकलेगा और उसका फायदा किसे होगा।
दिल्ली में अगर कांग्रेस मजबूत होती है तो बीजेपी को लाभ होता है। लोकसभा चुनावों में भी यही देखने को मिला था। कांग्रेस कमजोर होगी तो पलड़ा ‘आप’ के पक्ष में झुक जाएगा। ज़ाहिर है कि सारे घटनाक्रम से ‘आप’ ही ख़ुश होगी। जो लोग लोकसभा चुनावों में ‘आप’ के साथ समझौते का समर्थन कर रहे थे, इस वक़्त वही कांग्रेस में टकराव के दौरान एक पक्ष बने हुए हैं। पता नहीं शीला दीक्षित को यह बात समझ में आ रही है या नहीं लेकिन सच्चाई यह है कि इस टकराव से वह भी वही कर रही हैं जो चाको गुट चाह रहा है।
सवाल यह है कि कहीं इन दोनों का टकराव जानबूझ कर तो खड़ा नहीं किया जा रहा ताकि कांग्रेस इतनी कमजोर हो जाए कि फिर विधानसभा चुनावों में भी कुछ नेता यह माँग करने लगें कि ‘आप’ के साथ गठबंधन करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। कांग्रेस की वर्तमान हालत तो यही बयान कर रही है कि वैसे ही हालात बनाने की कोशिश की जा रही है।
लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस को मिले फायदे को पूरी तरह ख़त्म किया जा रहा है और पार्टी को उस मुकाम पर पहुँचाया जा रहा है जहाँ से कांग्रेस को ‘आप’ की बैसाखी की जरूरत होगी। चूँकि इस समय फरियाद सुनने वाला हाईकमान भी नहीं है, इसलिए सभी निरंकुश होकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं। ऐसे में अगर ‘आप’ इससे ख़ुश हो रही हो तो फिर उसका ख़ुश होना तो बनता ही है।