बंगाल: दार्जिलिंग में बदले समीकरण, क्षेत्रीय मोर्चा ही है भारी
दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में इस बार राजनीतिक समीकरण बदले हुए नजर आ रहे हैं। अस्सी के दशक से लेकर इस सदी की शुरुआत तक इलाके में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के नेता सुभाष घीसिंग की तूती बोलती थी। तब इन पहाड़ियों में उनकी इजाजत के बिना परिंदा तक पर नहीं मार सकता था।
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा दो फाड़
लेकिन वर्ष 2007 में जीएनएलएफ से अलग होकर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नामक नई पार्टी बनाने वाले विमल गुरुंग ने तेजी से घीसिंग की बादशाहत पर कब्जा कर लिया। मोर्चा उसके बाद खासकर लोकसभा चुनावों में बीजेपी का समर्थन करता रहा है। लेकिन वर्ष 2017 में अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर हुए हिंसक आंदोलन और 104 दिनों के बंद के बाद गुरुंग के भूमिगत होने की वजह से मोर्चा दो फाड़ हो गया था।
एक गुट की कमान विनय तमांग ने संभाली और उन्होंने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के प्रति समर्थन जताया था। लेकिन गुरुंग गुट और जीएनएलएफ ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी उम्मीदवार राजू बिष्ट को समर्थन दिया था। इस पर्वतीय क्षेत्र में पांचवें चरण में 17 अप्रैल को मतदान होना है।
लेकिन इस बार इलाके में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं। करीब तीन साल तक भूमिगत रहने के दौरान गुरुंग का बीजेपी से मोहभंग हो चुका है। भगवा पार्टी ने अपने चुनावी वादों पर अमल नहीं किया। नतीजतन बीते साल के आखिर में गुरुंग अचानक सामने आए और तृणमूल कांग्रेस को समर्थन देने का एलान कर दिया। तृणमूल कांग्रेस ने पहाड़ियों की तीन विधानसभा सीटें अपने राजनीतिक सहयोगी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए छोड़ दी हैं।
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फिलहाल ममता बनर्जी की तमाम कोशिशों के बावजूद गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के दोनों गुटों में सुलह नहीं हो सकी है। अब मोर्चा के इन दोनों गुटों ने इलाके की तीनों विधानसभा सीटों- दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और कर्सियांग में अपने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है।
विमल गुरुंग के ममता के खेमे में जाने से बीजेपी को झटका तो लगा है। लेकिन उसकी निगाहें गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के दोनों गुटों की प्रतिद्वंद्विता पर टिकी हैं। इन चुनावों में विमल गुरुंग गुट ने जहां अपने चुनाव अभियान में अलग गोरखालैंड की पुरानी मांग को मुद्दा बनाने का फैसला किया है वहीं विनय तमांग गुट ने इस पर चुप्पी साध रखी है। उसने इलाके के विकास को मुद्दा बनाया है।
ममता बनर्जी पहले ही साफ कर चुकी हैं कि वे बंगाल के विभाजन के ख़िलाफ़ हैं। ऐसे में गुरुंग गुट का अलग राज्य का मुद्दा उसके लिए परेशानी का सबब बन सकता है।
जीटीए का हुआ था गठन
वर्ष 2012 में गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) के गठन के बाद विमल गुरुंग को उसका चेयरमैन बनाया गया था। लेकिन उसके बाद भी इलाके में अक्सर अलग राज्य का मुद्दा उठता रहा है। मोर्चे के तमांग गुट के नेता अनित थापा कहते हैं कि उनकी पार्टी गोरखालैंड के मुद्दे पर वोट नहीं मांगेगी। अब गोरखालैंड मुद्दे का सियासी इस्तेमाल बंद होना चाहिए। उनकी दलील है कि अगर गोरखालैंड के नाम पर चुनाव जीतना संभव होता तो अब तक दस गोरखालैंड बन गए होते।
दूसरी ओर, जीएनएलएफ ने भी अलग गोरखालैंड का मुद्दा उठाने के लिए विमल गुरुंग गुट की खिंचाई की है। पार्टी के नेता अजय एडवार्ड्स कहते हैं कि उन्होंने (गुरुंग ने) दीदी के चरणों में समपर्ण कर दिया है और अब गोरखालैंड की बात कर रहे हैं। यह महज एक सियासी ड्रामा है। इलाके के लोगों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस से हाथ मिलाने के बाद गोरखालैंड का मुद्दा उठाना कितने लोगों के गले के नीचे उतरेगा, यह कहना मुश्किल है। इसकी वजह यह है कि अलग राज्य के सवाल पर ममता बनर्जी का रुख जगजाहिर है।
मोर्चा के दोनों गुटों की तनातनी ने इलाके में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को भी असमंजस में डाल दिया है। तृणमूल कांग्रेस के एक नेता बताते हैं कि उनको दीदी के निर्देश का इंतजार है। उसके बाद ही तय होगा कि किस गुट को समर्थन देना है।
विमल गुरुंग के समर्थन से ही वर्ष 2009 से लगातार तीन बार बीजेपी दार्जिलिंग लोकसभा सीट जीत चुकी है। पार्टी ने वर्ष 2019 में दार्जिलिंग विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी विनय तमांग को करीब 46 हजार वोटों से हरा कर इस सीट पर कब्जा कर लिया था। जबकि उससे पहले वर्ष 2011 और 2016 में अविभाजित मोर्चा के उम्मीदवारों ने यह सीट जीती थी।
क्या विनय तमांग गुट से सुलह के कोई आसार हैं? इस सवाल पर तमांग गुट के महासचिव अनित थापा कहते हैं कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में मुकाबला तीन तरफा होगा। वह कहते हैं कि हमने बहुत पहले गुरुंग से नाता तोड़ लिया था।
इन दोनों गुटों में एक बात कॉमन है। वह यह है कि दोनों बीजेपी के खिलाफ हैं। लेकिन इलाके के लोगों का मानना है कि इससे भगवा खेमे को फायदा हो सकता है। बीजेपी इस बार इलाके की तीनों सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने पर विचार कर रही है।
दार्जिलिंग और कालिम्पोंग के अलावा दार्जिलिंग जिले के मैदानी इलाकों में भी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का खासा असर है। यहां कुल मिलाकर विधानसभा की दस सीटें हैं। इलाके में गोरखा तबके की खासी आबादी है और कई चाय बागानों पर भी पार्टी की अच्छी पकड़ है।
इस बार इलाके के चुनावी नतीजे साबित करेंगे कि पर्वतीय क्षेत्र में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के दोनों गुटों और जीएनएलएफ में से किसके पैरों तले की जमीन ज्यादा मजबूत है। राजनीतिक पर्यवेक्षक और एडवोकेट अमर लामा कहते हैं कि इस बार भ्रम की स्थिति है। कोई नहीं जानता कि इलाके में किस पार्टी की पकड़ कितनी मजबूत है। चुनावी नतीजे ही साबित करेंगे कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की पकड़ पहले जैसी मजबूत है या नहीं।