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दलितों को मंज़ूर नहीं आम्बेडकर से अलग राजनीतिक लाइन

दलितों को मंज़ूर नहीं आम्बेडकर से अलग राजनीतिक लाइन

दलितों के इंसानी हुकूक का सबसे बड़ा दस्तावेज़ भारत का संविधान है। उसके साथ हो रही छेड़छाड़ की कोशिशों से हमारे गाँव के दलित चौकन्ने हैं। उनको जाति के शिकंजे में लपेटना नामुमकिन है।

इलाहाबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा लेने के बाद एमआईटी से पीएचडी करके वहीं अमेरिका में अकादमिक क्षेत्र में बुलंद मुकाम बनाने वाले एक प्रोफ़ेसर और मुंबई के कुछ बहुत ही विद्वान एवं सामाजिक रूप से जागरूक पत्रकारों के साथ चुनाव यात्रा एक बेहतरीन अनुभव है। हमारे साथियों की यात्रा का स्थाई भाव उत्तर प्रदेश की राजनीतिक विकास यात्रा को समझना है। देश के चोटी के पत्रकार कुमार केतकर और ब्राउन विश्वविद्यालय के विश्वविख्यात प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश की चुनाव यात्रा मुझे अब तक अभिभूत कर चुकी है। लोकसभा के चुनाव में जो जीतेगा वह सांसद बनेगा लेकिन लखनऊ से बनारस तक की हमारी यात्रा में हमारे साथी, कुमार केतकर सांसद हैं लेकिन पत्रकारिता के धर्म में अड़चन न आने पाए इसलिए वह अपने इस परिचय को पृष्ठभूमि में रख कर चल रहे हैं। कुमार केतकर हमारे साथ सड़क पर छप्पर में बनी चाय की दुकानों पर बैठकर जिस तरह से श्रोता भाव से सब कुछ सुनते रहते हैं, वह बहुत ही दिलचस्प है। जब अमेठी के रामनगर में संजय सिंह के महल के सामने झोपड़ी में चल रही चाय की दुकान में हम बैठे थे तो मुझे लगा कि अगर किसी अधिकारी को पता लग जाए कि टुटही कुर्सी पर बैठे यह श्रीमानजी संसद सदस्य हैं तो वह प्रोटोकॉल का पालन करने की कोशिश करेगा लेकिन कुमार को वह मंज़ूर नहीं।

हमारी पूरी यात्रा में दलितों को केवल वोटर के रूप में पहचानने की कवायद से बार-बार सामना हुआ। मैं जानता हूँ कि दलित युवकों का शिक्षित वर्ग सामाजिक न्याय के सवालों को बहुत ही तरीक़े से समझता है और उसके राजनीतिक भावार्थ को जानता है। ‘हरिजन’ शब्द के प्रयोग की राजनीति को मैंने 1973 में ही अपने गाँव के दलित लोगों के वरिष्ठ दलित लोगों को बताने की कोशिश की थी। अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स के बारे में दिनमान ने कुछ छापा था और उसके आधार पर और सूचना इकट्ठा करके मैंने गाँव के समझदार दलित खेलई से बात की थी। उसके पहले इन लोगों ने बराबरी के छोटे ही सही, लेकिन महत्वपूर्ण प्रयोग किये थे। हमारे गाँव में सभी जातियों के बाल नाई काटते थे।

बाल काटने के पहले नाई लोग पानी से बाल को ख़ूब भिगोते थे। इस तरह से सिर में मालिश हो जाती थी। लेकिन दलित व्यक्ति जब बाल कटवाने जाते थे तो नाई का आदेश होता था कि बाल भिगोकर आओ, वह अपने ही हाथ से पानी से बाल भिगोते थे, उसके बाद उनके बाल काटे जाते थे।

खेलई दादा ने मुझे एक दिन बताया कि अब हम लोग अपने बाल ख़ुद नहीं भिगोएँगे। जैसे बाभन-ठाकुरों के बाल नाई जी भिगोते हैं, वैसे ही हमारे भी बाल उनको भिगोना पड़ेगा, लेकिन नाई लोग सहमत नहीं हुए। इस समस्या की काट निकाल ली गयी। दलित बस्ती के कुछ लड़कों ने उस्तरा कैंची ख़रीद लिया और ख़ुद ही बाल काटने की कोशिश की। धीरे-धीरे वे कुशल नाई हो गए। उन दलित लड़कों को उनकी अपनी बिरादरी के लोग नाऊ ठाकुर ही कहने लगे।

दलित चेतना का कारवाँ

यह बहुत बड़ी बात थी। जन्म से नहीं कर्म से जाति के सिद्धांत का एक उदाहरण था। उसके बाद बहुत सारे विकास हुए। शिक्षा का महत्व, सरकारी नौकरी का महत्व, मेरे गाँव के दलितों की राजनीतिक समझदारी में बड़ा कारक बना। बाद में जब दलित मुद्दा आन्दोलन का रूप लेने लगा तो कांशी राम के एक साथी मेरे गाँव में आये। यह 1984 के चुनाव के बाद की बात है। बहुजन समाज पार्टी का गठन नहीं हुआ था। डीएस 4 नाम के संगठन के ज़रिये दलित चेतना के विकास की बात हो रही थी। उन्होंने ही लोगों को अपना कोई उद्यम लगाने की बात सबसे पहले समझायी थी। जब गाँव के चौराहे पर दलित लड़कों ने छोटी-छोटी दुकानें खोलना शुरू किया तो मुझे स्पष्ट हो गया कि अब यह कारवाँ चल पड़ा है। यह रुकने वाला नहीं है। अब तो मेरे गाँव के दलितों के लड़के-लड़कियाँ उच्च शिक्षा ले रहे हैं। पिछली यात्रा में पता चला कि जिस सरकारी विभाग में मेरे काका का पौत्र सहायक इंजीनियर हुआ है, उसी के साथ एक दलित नौजवान की नियुक्ति भी उसी विभाग में हुई है। दोनों राजपत्रित अधिकारी हैं। इस घटना का महत्व यह है कि उस दलित के पिता और बाबा मेरे काका के यहाँ हरवाही करते थे।

जाति बनाम जाति का विमर्श 

बहरहाल, मेरे सहयात्रियों को मेरे भाई सूर्य नारायण सिंह ने दलित नेताओं से मिलवाया। डॉ. लोकनाथ मेरे भाई के बहुत ही क़रीबी हैं और मेरे परिवार के सभी लोग उनको अपना डॉक्टर मानते हैं। चौराहे पर उनकी क्लिनिक है। इन लोगों को मेरे भाई ने डॉक्टर साहब से मिलवाया और उनके साथ दलित बस्ती में गए। वंचित तबक़े के असली मुद्दों पर बात हुई। शासक वर्गों की कोशिश रहती है कि दलितों को ब्राह्मण विरोधी साबित किया जाए और सारी बहस को जाति बनाम जाति के विमर्श में लपेट दिया जाए। लेकिन वहाँ से लौटकर आने के बाद इन लोगों ने मुझे बताया कि सामाजिक मुद्दों के प्रति जो जागरूकता वहाँ देखने को मिली, वह अद्वितीय है। दलित बस्ती के बाशिंदों ने साफ़ बता दिया कि हमारी लड़ाई किसी ब्राहमण से नहीं है, लड़ाई वास्तव में उस सोच से है जो एक ख़ास वर्ग के आधिपत्य की बात करती है। सवर्ण ‘सुप्रीमेसी’ की उस राजनीति को ब्राह्मणवाद भी कहा जा सकता है।

डॉ. आम्बेडकर से जुड़ाव

क़रीब घंटा भर चले इस वाद-विवाद में सब खुलकर बोले और सारे सवालों पर आम्बेडकर के हवाले से अपना दृष्टिकोण रखा। दलितों के इंसानी हुकूक का सबसे बड़ा दस्तावेज़ भारत का संविधान है। उसके साथ हो रही छेड़छाड़ की कोशिशों से हमारे गाँव के दलित चौकन्ना हैं। उनको जाति के शिकंजे में लपेटना नामुमकिन है। वे मायावती की राजनीति का समर्थन करते हैं तो उम्मीदवार किसी भी जाति का हो उसकी जाति की परवाह किये बिना उसको वोट देने में उनको कोई संकोच नहीं है। प्रो. आशुतोष वार्ष्णेय ने मुझसे साफ़ कहा कि इस चेतना के बाद सामाजिक परिवर्तन के रथ को रोक सकना असंभव है। अब यह कारवाँ रुकने वाला नहीं है। 

...क्योंकि इन दलित नौजवानों ने तय कर रखा है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अगर उनके भविष्य को डॉ. आम्बेडकर के राजनीतिक दर्शन से हटकर लाने की कोशिश करेगी तो वह उनको मंज़ूर नहीं है क्योंकि डॉ. आम्बेडकर की राजनीति में ही सामाजिक बदलाव का बीजक सुरक्षित है।

मेरे गाँव से बनारस की सड़क पर क़रीब 25 किलोमीटर चलने के बाद सिंगरामऊ पड़ता है। वहीं पर एक नायाब इंसान रहता है। सिंगरामऊ रियासत के मौजूदा वारिस कुँवर जय सिंह से मुलाक़ात हुई। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में शिक्षा के विकास के लिए उनके पूर्वजों ने क़रीब एक सौ साल पहले एक पौधा लगाया था जो अब बड़ा हो गया है। राजा हरपाल सिंह पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज केवल जौनपुर का ही नहीं, पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शिक्षा संस्थान है। कुंवर जय सिंह जिनको इस इलाक़े में सभी जय बाबा के नाम से जानते हैं, अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित इसी शिक्षा संस्थान का कार्यभार देखते हैं। उनके कोट में मट्ठा पीने को मिला। बेहतरीन पेय लेकर हम उनके साथ ही वहाँ चल पड़े जहाँ जाने के लिए दिल्ली, मुंबई के बहुत सारे साथी अक्सर प्लान बनाते रहते हैं लेकिन बहुत कम लोग अभी तक जा पाए हैं। 

मेरी मुराद बीएचयू के छात्र संघ के चालीस साल पहले अध्यक्ष रहे, श्री चंचल से है। उन्होंने अपने पुरखों के गाँव, पूरे लाल, में समता घर बना रखा है जहाँ ग़रीबी और वंचित लोगों के बच्चों को शिक्षा और हुनर की ट्रेनिंग देकर ग़रीबी के मुस्तकबिल को लगातार चुनौती दी जाती है। महानगर से जाकर जो लोग भी समता घर में रहे हैं, उनके लिए ग्रामीण जीवन के अनुभव के बेहतरीन अवसर इस ठीहे पर उपलब्ध रहते हैं। और लोगों के लिए वहाँ जाकर चंचल जैसे नामी कलाकार, पत्रकार, राजनेता, लेखक से मिलना सही होता होगा। पूरे लाल में राजनीतिक चर्चा भी हुई। हमारे मुंबई से आये दोस्तों को बहुत मज़ा आया। उन्होंने मुंबई में रहने वाले जौनपुर मूल के भइया बिरादरी के लोगों की ज़मीन की मिट्टी की समृद्धि को क़रीब से देखा और अनुभव किया। उनको लगता होगा कि इतने संपन्न इलाक़े से खेती के मालिक ठाकुरों-ब्राह्मणों के बच्चे मुंबई जाकर मज़दूरी क्यों करते हैं लेकिन इसका जवाब है और कभी मैं ही उसको लिखूँगा।

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