सेक्युलर राजनीति की भेंट चढ़ते दलित नेता
सेक्युलर राजनीति ने दलित राजनीति करने वाले नेताओं का बुरा हाल कर दिया है। इस कदर कि उनकी पहचान ही ख़त्म होती जा रही है और दलित नेताओं को जनप्रतिनिधि के तौर पर उनके दलित समाज से ही मान्यता मिलती कम होती जा रही है। पहली नज़र में यह बात बड़ी अजीब लगती है लेकिन भारत में दलित राजनीति करने वाले नेताओं की स्थिति दरअसल कुछ ऐसी ही हो गई है और उसकी बड़ी वाजिब वजहें हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो नाराज़ होकर उदित राज कांग्रेस में चले गये और कांग्रेस ने उत्तर पश्चिमी दिल्ली की सीट से उन्हें टिकट दे दिया लेकिन कांग्रेस के टिकट पर उदित राज भारतीय जनता पार्टी के हंसराज हंस से हार गये। उत्तर पश्चिमी दिल्ली सुरक्षित सीट है। अब यहाँ इस बात को समझना ज़रूरी है कि हंसराज हंस मशहूर गायक हैं लेकिन जब भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित दिल्ली की उत्तर पश्चिम लोकसभा से उम्मीदवार घोषित किया तो ज़्यादातर लोगों के लिए चौंकाने वाली बात यही थी कि क्या हंसराज हंस दलित हैं। हंसराज हंस की पहचान कभी दलित के तौर पर नहीं रही, उनकी पहचान गायक के तौर पर लोगों के दिलोदिमाग में जमी थी। उम्मीदवारी घोषित होने के बाद लोगों को भरोसा हुआ कि हंसराज हंस दलित हैं जबकि उन्होंने जिन उदित राज को हराया, उन उदित राज की पूरी पहचान ही दलित नेता की रही है।
उदित राज ऑल इंडिया कनफ़ेडरेशन ऑफ़ एससी-एसटी ऑर्गनाइजेशंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। यह भी जानना ज़रूरी है कि उदित राज 2001 में बौद्ध धर्म अपना चुके हैं। भारतीय राजस्व सेवा से त्यागपत्र देने के बाद उदित राज ने इंडियन जस्टिस पार्टी बनाई थी और अभी भी उदित राज यही दावा करते हैं कि उनका पूरा जीवन दलितों के हितों के लिए समर्पित है। कमाल यह रहा कि जिस भारतीय जनता पार्टी को उदित राज दलित विरोधी बताते थे, उसी भारतीय जनता पार्टी से टिकट मिलने की आस बंधी तो उन्होंने एलान कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी में दलितों का भविष्य चमकदार है और यहाँ तक कि उदित राज ख़ुद को बीजेपी के बड़े नेता के तौर पर भी प्रस्तुत करने लगे थे।
जीवन भर दलितों के हितों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले उदित राज को पहली बार लोकसभा में पहुँचने का अवसर उसी भारतीय जनता पार्टी की वजह से मिला जिसे उदित राज घोर दलित विरोधी बताकर हर मौक़े पर अपशब्द कहने से नहीं चूकते थे। दलितों की ठेकेदारी के साथ बीजेपी से हाथ मिलाकर उदित राज सांसद बने और जब फिर उनकी सांसदी के टिकट पर ख़तरा दिखा तो बीजेपी फिर से दलित विरोधी हो गई लेकिन दलितों ने बीजेपी को अपना माना और कमल के फूल चुनाव चिन्ह पर उस हंसराज हंस को मत दे दिया जिसने अपने जीवन में बेवजह दलित राग नहीं अलापा और उस उदित राज को हरा दिया जिसने बीजेपी का साथ सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए किया था।
उदित राज उदाहरण हैं कि देश में दलितों के नाम पर ठेकेदारी करने वालों को समाज के निचले पायदान पर रह गये लोगों का जीवनस्तर उठाने में कितनी दिलचस्पी है और इसी वजह से दलितों की राजनीति का दावा करने वाले नेताओं का प्रभाव हर बीतते दिन के साथ दलितों में ही घटता जा रहा है।
दलित राजनीति करने वाले नेता पहले कांग्रेस पार्टी और अभी सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी का विरोध करके राजनीतिक ज़मीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू, हिन्दुत्व और मनुवादी, ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गाली देकर दलित नेता अपनी राजनीति बढ़ाने की भोथरी कोशिश कर रहे हैं।
दरअसल, दलित राजनीति करने वालों ने दलितों का भरोसा जीतने के बजाय सवर्ण और दूसरी जातियों का भरोसा तोड़ने की राजनीति पर मज़बूती से क़दम आगे बढ़ाया और यह क़दम बढ़ते हुए हिन्दू बनाम दलित तक गया और फिर सेक्युलर राजनीतिक स्थान को भरने की कोशिश में हिन्दू बनाम दलित और आगे जाकर दलित और मुसलमान गठजोड़ के हिन्दू विरोधी होने तक चला गया। फौरी तौर पर और कांग्रेस की घिसी पिटी राजनीति से उकताये और बीजेपी में सवर्ण राजनीति का बढ़ा हुआ प्रभाव देखकर कुछ समय तक दलितों ने ऐसे राजनीतिक नेताओं और दलों के साथ अपनी प्रतिबद्धता दिखाई लेकिन बदलती राजनीति में सामाजिक समीकरण बदले तो राजनीतिक समीकरण पर भी उसका असर स्पष्ट दिखने लगा।
दलित और मुसलमान गठजोड़ की राजनीति से दलित अंदर ही अंदर चिढ़ने लगा था और उसकी बड़ी वजह मुसलमानों के साथ दलित गठजोड़ की बात नहीं थी, उसकी असली वजह दलितों को मुसलमानों के साथ खड़ा करके हिन्दुओं, हिन्दू आराध्यों, हिन्दू प्रतीकों को उसी के ज़रिये अपमानित करने की कोशिश थी।
सोशल मीडिया पर हिन्दू विरोधी ट्रेंड में दलितों की आड़ लेकर सेक्युलर और कट्टर मुसलमान हिन्दुओं, हिन्दू आराध्यों, हिन्दू प्रतीकों का हर चौथे रोज़ मज़ाक़ बनाते दिखने लगे। जाने-अनजाने हिन्दू विरोधी बनते दलित-मुसलिम गठजोड़ ने उनको हिन्दुओं के बीच सम्मान दिलाने की जगह दलितों की पहचान, विरासत, संस्कृति ही पूरी तरह से ख़त्म करना शुरू किया।
जब दलित राजनीति करने वाले वोटबैंक तलाश कर दलित-मुसलमान समीकरण तलाश रहे थे, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों के साथ भारतीय जनता पार्टी लगातार दलितों को किसी के विरोध में खड़ा करने के बजाय अपने साथ खड़ा करने की योजना पर काम कर रही थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत हिन्दू एकता पर काम कर रहे थे। एक मंदिर, एक कुंआ और एक श्मशान के ज़रिये पूरे हिन्दू समाज को जोड़ने पर काम कर रहे थे। यह भी चौंकाने वाली बात थी कि संघ और पूरा संघ परिवार जिसमें राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है, ज़ाहिर तौर पर मुसलमान विरोधी दिखने के बजाय हिन्दू एकता के आधार पर आगे बढ़ना चाह रही थी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि केंद्र में दोबारा भारतीय जनता पार्टी की प्रचण्ड बहुमत की सरकार के साथ देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी और भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व भी पिछड़ी जाति से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास था। मोदी निर्विवाद तौर पर बीजेपी के शीर्ष नेता थे और नरेंद्र मोदी की हर योजना की प्राथमिकता में वंचित तबक़ा था और उस वंचित तबक़े में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उसी दलित समाज की थी जिसे मुसलमान के साथ खड़ा करके दलित राजनीति करने वाले हिन्दू विरोधी कर देना चाह रहे हैं।
‘दलित लाइव्स मैटर’
दलितों को यह बात स्पष्ट तौर पर समझ आ रही थी। अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या पर हिंसक प्रदर्शन हुआ तो यहाँ सेक्युलर जमात ‘मुसलिम लाइव्स मैटर’ जैसा आन्दोलन चलाने की इच्छा ज़ाहिर करने लगी। बाद में इसमें ‘दलित लाइव्स मैटर’ भी जोड़ने की कोशिश हुई। इससे पहले नागरिकता क़ानून के ज़रिये पड़ोसी मुसलिम देशों के हिन्दू दलितों को नागरिकता मिलने को भी मुसलिम विरोधी पेश किया गया। देश के दलितों में यह गहरे बैठ गया कि जिन मुसलिम देशों में हिन्दू दलित होने की वजह से उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, उन्हीं मुसलिम देशों के मुसलमानों को भारत में नागरिक बनाने के लिए देश के मुसलमान सड़कों पर बवाल काट रहे थे।
दलितों को यह बात स्पष्ट समझ आ रही थी कि जिस भारतीय जनता पार्टी को दलित विरोधी बताया जा रहा था, उस बीजेपी ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं के सवर्ण होते हुए भी दलित नेता रामनाथ कोविंद को प्राथमिकता दे दी।
अभी उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में भदेठी गाँव में मुसलमानों ने दलितों का घर फूंक दिया और दलित नेता सिर्फ़ इसलिए चुप रहे कि इसमें हिन्दू विरोध, सवर्ण विरोध कहीं नहीं है और उस समय योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सभी दोषियों पर रासुका के तहत कार्रवाई की और दलितों को आर्थिक मदद भी की। और, यह सब तब हो रहा था जब अमेरिकी ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आन्दोलन की तर्ज पर ‘दलित लाइव्स मैटर’ चलाकर उसके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और राज्यों की सरकार को लेने की कोशिश हो रही थी। दलित सब स्पष्ट देख पा रहा है, समझ रहा है, इसीलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में 131 आरक्षित सीटों में से 77 सीटें बीजेपी को जिता दीं। बीजेपी की 2014 में आरक्षित सीटों में जीती सीटों में 10 सीटें और जोड़कर 2019 में दलितों ने दे दी। उदित राज बीजेपी की वजह से दलितों के जनप्रतिनिधि बन पाये थे और बीजेपी से बाहर गये तो दलितों ने उन पर भरोसा नहीं किया। दलित राजनीति का एक चक्र पूरा हो चुका है।