लॉकडाउन के दो साल: अर्थव्यवस्था पर बुरी मार
अब से दो दिन बाद भारत में लॉकडाउन के दो साल पूरे हो जायेंगे। 22 मार्च 2020 को चौदह घंटे का जनता कर्फ्यू लगाया गया था और उस रात नौ बजे पूरे देश के लोगों को अपने घरों के दरवाजों या बालकनी में आकर ताली और थाली बजानी थी। लोगों ने उत्साह के साथ यह किया भी। लेकिन बात बनी नहीं। दो ही दिन बाद 24 मार्च को रात आठ बजे प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया।
इससे चार साल पहले आठ नवंबर को भी प्रधानमंत्री ने ऐसे ही दूरदर्शन पर आकर ‘मेरे प्यारे देशवासियों..’ के साथ नोटबंदी का संदेश दिया था। लेकिन इस बार संदेश और भी गंभीर था। प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘हिंदुस्तान को बचाने के लिए, हिंदुस्तान के हर नागरिक को बचाने के लिये, आपको बचाने के लिए, आपके परिवार को बचाने के लिए, आज रात बारह बजे से घरों से बाहर निकलने पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जा रही है।’ उन्होंने कहा कि कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए यह क़दम अब बहुत आवश्यक है।
प्रधानमंत्री को पता था कि यह कदम महंगा पड़ने वाला है। उन्होंने कहा भी कि निश्चित तौर पर इस लॉकडाउन की एक आर्थिक कीमत भारत को चुकानी पड़ेगी, लेकिन उस समय देश की जनता को बचाना बड़ी प्राथमिकता थी। हालांकि आज यह कहना बहुत मुश्किल है कि प्रधानमंत्री को, सरकार में बैठे किसी भी व्यक्ति को या फिर देश की जनता को इस बात का अंदाजा भी था कि यह कदम कितना महंगा पड़ने वाला है।
प्रधानमंत्री का ऐलान ख़त्म भी नहीं हुआ था कि हर शहर के सड़कों और बाज़ारों में भगदड़ मच चुकी थी। लोग पूरी-पूरी दुकानें खरीदकर घर भरने में जुटे हुए थे। क्योंकि चार घंटे से भी कम का वक़्त था उनके पास और उसके बाद क्या होगा किसी को पता नहीं था। बाद में आंकड़े आए तो पता चला कि इन चार घंटों की वजह से ही मार्च के आख़िरी हफ्ते में रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की खपत अस्सी परसेंट बढ़ गई थी। और उसके अगले हफ्ते बिक्री में क़रीब सैंतालिस प्रतिशत की गिरावट आई। उसके बाद अप्रैल के तीसरे हफ्ते में एक बार फिर खपत तेज़ हुई और जब सरकार ने लॉकडाउन बढ़ाने का ऐलान किया तो फिर एफएमसीजी सामान की बिक्री लगभग ढाई गुना बढ़ गई। लेकिन इस खरीद बिक्री का बहुत बड़ा हिस्सा घरों में बैठकर ही या ऑनलाइन चल रहा था। लोगों का घर से बाहर निकलना बंद था।
फिटनेस का ख्याल रखनेवाले ज़्यादातर लोग आजकल इस बात का हिसाब रखते हैं कि वो दिनभर में कितने कदम चले। इसके लिये आपके मोबाइल फोन पर ऐप भी मिलते हैं और अलग से फिटनेस बैंड या एक्टिविटी ट्रैकर भी। ऐसे ही एक एक्टिविटी ट्रैकर चलाने वाली कंपनी ने आंकड़े जारी किए कि बड़ा लॉकडाउन लगने के पहले पंद्रह दिन में ही देश में लोगों के चलने का आंकड़ा बासठ परसेंट तक गिर चुका था। यानी कदम थम रहे थे। ध्यान रखिए कि अपने स्टेप्स या कदम गिननेवाले ज्यादातर लोग वो हैं जिन्हें अंग्रेजी में अपवर्डली मोबाइल कहा जाता है, यानी जो ज़िंदगी में कुछ पा चुके हैं और कुछ और पाने की कोशिश में लगातार दिल मांगे मोर करते रहते हैं। ये वो लोग हैं जो देश की तरक्की में औसत से ज्यादा हिस्सेदारी कर रहे होते हैं।
इनके कदम थमने या धीमे पड़ने का सीधा मतलब यही है कि देश में ऐसा कामकाज कम हो रहा है जिसे आर्थिक तरक्की कहा जाता है।
लेकिन यह एक्टिविटी ट्रैकर देश की पूरी तसवीर नहीं दिखा रहे थे। दिखाते तो लॉकडाउन शुरू होने के साथ ही देश का ऐवरेज स्टेप काउंट कई गुना हो चुका होता। लॉकडाउन के पहले दिन मुंबई और दिल्ली के रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर इसकी आहट दिखाई पड़ी तो अगले कुछ दिनों में देश भर के राजमार्गों पर लाखों की तादाद में पैदल, साइकिल, रिक्शा और टेंपो या छोटी गाड़ियों पर सफर करते लोग छा चुके थे। देखने पढ़नेवालों का कहना है कि यह भारत में विभाजन के बाद का सबसे बड़ा विस्थापन तो था ही, दुनिया में भी इतने बड़े पैमाने पर लोगों के एक साथ यहां से वहां जाने के उदाहरण शायद ही कहीं मिल पाएँ।
इन लोगों की ठीक ठीक गिनती क्या थी यह तो आज भी एक रहस्य है और शायद आगे भी रहेगा, लेकिन विश्वबैंक का अनुमान है कि करीब चार करोड़ लोग इस तरह दर दर भटकते हुए शहर से गांव की ओर निकले थे। इनमें से बहुतों ने सैकड़ों किलोमीटर का तो कुछ ने हज़ारों किलोमीटर का सफर पैदल या साइकिल से तय किया। विश्व बैंक का मानना है कि इनमें से ज़्यादातर लोगों की रोज़ी रोटी पर असर पड़ा था जिसने उन्हें इस असंभव यात्रा पर निकलने को मजबूर किया।
इस कहानी का दूसरा पहलू भी कम दर्दनाक नहीं है। बड़े छोटे शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में सभी तरह के कारोबार ठप होने का असर सीधे-सीधे उनकी कमाई पर पड़ा। बड़ी कंपनियाँ तो काफी हद तक इसे झेल गईं। उन्होंने अपने कर्मचारियों और डीलरों तक को सहारा भी दिया। हालाँकि बहुत जगह इसी वक़्त तनख्वाह में कटौती और छँटनी भी हुई लेकिन कुल कारोबार की तुलना में यह बहुत कम था और लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद ज़्यादातर दफ्तरों या कंपनियों में वेतन कटौती वापस भी ले ली गई। फिर बड़ी कंपनियों का काम इसलिए भी पटरी से कम उतरा क्योंकि जिनके लिए संभव था उन्होंने बहुत तेज़ी से वर्क फ्रॉम होम शुरू कर दिया।
लेकिन छोटे और मझोले कारोबारियों के लिए यह रास्ता था ही नहीं। कुछ ज़रूरी चीजों को छोड़कर बाक़ी दुकानों के शटर बंद हो गए तो महीनों नहीं खुले। सिनेमाहॉल, जिम और स्विमिंग पूल जैसी चीजें तो अब जाकर खुल पाई हैं। जाहिर है जो खुद नहीं कमाएगा वो स्टाफ को कब तक और कैसे तनख्वाह देता रहेगा? लॉकडाउन शुरू होते ही बारह करोड़ लोग एक झटके में बेरोज़गार हो गए थे। हालाँकि इनमें से बहुत से लोगों को फिर काम मिल गया लेकिन तब से अब तक रोजगार एक गंभीर समस्या बनी हुई है।
एक साल बाद हालात सुधरने के आसार बन रहे थे कि कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर ने एक बार फिर कहर ढा दिया। सरकारी आँकड़ों पर ही भरोसा करें तो भारत में तेईस करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे जा चुके हैं।
आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि ग़रीबों की गिनती घटने के बजाय बढ़ रही है।
लॉकडाउन का सबसे बड़ा नुक़सान किसे हुआ? इसके जवाब में होटल, रेस्त्रां, एयरलाइंस, टूरिज्म, जिम, छोटे कारोबारी और दुकानदार वगैरह के नाम तो खूब गिनाए जाते हैं और उनके आंकड़े भी मौजूद हैं। लेकिन सबसे बड़ी मार पड़ी है कारीगरों यानी कोई न कोई हुनर जानने और उसके भरोसे अपनी रोज़ी रोटी चलाने वाले लोगों पर। हैरानी की बात यह है कि हस्तशिल्प के कारोबार में लगे इन लोगों की गिनती का कोई पक्का आंकड़ा तक नहीं है।
अलग अलग अध्ययनों में इनकी गिनती सत्तर लाख से लेकर बीस करोड़ तक बताई जाती है। इससे भी अंदाजा लगा लीजिए कि सरकारें और विश्लेषक इन पर कितना ध्यान दे रहे हैं। इसके बावजूद ब्रिटिश काउंसिल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ यह खेती के बाद देश का सबसे बड़ा सेक्टर है। बीस करोड़ लोग मिलकर क़रीब दस हज़ार करोड़ रुपए का योगदान करते हैं और एक्सपोर्ट भी सालाना बीस प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा था। लेकिन कोरोना ने इनमें कम से कम चालीस परसेंट लोगों को काम छोड़ने पर मजबूर कर दिया और बीस प्रतिशत से ज़्यादा लोगों की सालाना कमाई एक चौथाई ही रह गई। इनमें भी सबसे तगड़ी मार महिलाओं के रोजगार और कमाई पर पड़ी है।
उधर रोजगार का ताज़ा आँकड़ा दिखा रहा है कि नौजवानों के दुख भरे दिन भी अभी बीते नहीं हैं। कोरोना काल के पहले लॉकडाउन के लगते ही अप्रैल से जून 2020 के बीच तीस साल से कम के नौजवानों में बेरोज़गारी की दर करीब पैंतीस परसेंट पहुंच गई थी। उसके बाद इसमें लगातार सुधार हो रहा था हालांकि कभी भी यह बीस परसेंट से नीचे नहीं पहुंच पाई। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद यानी बीते साल अप्रैल से जून के बीच यह फिर उछलकर 25.9% हो गई है। और यहां भी इसी उम्र की लड़कियों में बेरोजगारी 31% पर पहुंच गई है।
बेरोजगारी और कमाई की कमी से जूझते लोगों के सामने अब महंगाई का ख़तरा और बढ़ रहा है। खासकर यूक्रेन संकट के बाद तेल के दामों को देखते हुए। अभी तो भारत को रूस से सस्ता तेल मिलने की उम्मीद बंधी है, लेकिन उसके बावजूद कच्चे तेल के दाम सरकार के अनुमान से कहीं ऊंचे हैं। आम खरीदार तक महंगाई कैसे पहुंचेगी यह सिर्फ थोक और खुदरा सूचकांक में नहीं दिखता। सरसों के तेल से लेकर बिस्कुट के पैकेट और मैगी के पैक तक देख लीजिए, सबके दाम बढ़ रहे हैं। यानी जेब पर बोझ तो बढ़ रहा है लेकिन जेब भरेगी कैसे इसका इंतज़ाम दिखाई नहीं देता।
(हिंदुस्तान से साभार)