सुप्रीम कोर्ट सोचे कि संविधान ने उसे क्या दायित्व सौंपा है और वह किस ओर जा रहा है
माननीय जज महोदयों!
मैं यह पत्र सम्मान और पीड़ा के साथ लिख रहा हूँ। मैं यह एक इतिहासकार और सामान्य नागरिक की हैसियत से लिख रहा हूँ, इन दोनों ही रूपों में मैं सर्वोच्च न्यायलय के कामकाज के प्रति लोगों के घटते विश्वास से चिंतित हूँ।
मैं यह सीधे -सीधे कह दूँ कि यह भारतीय लोकतंत्र के पतन का ही हिस्सा है, जिसमें निश्चित रूप से अदालत की केंद्रीय भूमिका रही है। इस पतन के दूसरे और शायद अधिक गंभीर रूप हैं- नौकरशाही व पुलिस, व्यक्ति को केंद्र में रख कर पूरे एक पंथ का निर्माण, मीडिया को डराना-धमकाना, टैक्स व जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल कर स्वतंत्र आवाज़ को डराना-धमकाना, औपनिवेशिक युग के दमनकारी क़ानूनों को हटाने के बजाय उसे और सख़्त करना और राज्यों के अधिकारों को लगातार कम करते हुए संघीय ढाँचे को कमज़ोर करना।
मैं यह भी साफ़ कर दूँ कि भारतीय लोकतंत्र में गिरावट किसी एक पार्टी या व्यक्ति के कारण नहीं हो रहा है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को विकृत करने का यह काम कांग्रेस ने शुरू किया था, जब वह केंद्र की सत्ता में थी और मई 2014 से भारतीय जनता पार्टी ने उसे और आगे बढ़ाया है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र का यह पतन कैसे और क्यों शुरू हुआ, हाल के वर्षों में इसने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया है।
इस मामले में अदालत की नाकामी के कुछ उदाहरण हैं, यूएपीए जैसे क़ानून, जिनका संवैधानिक लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, उन्हें खारिज करने से अदालत का इनकार करना, बड़े मामलों की सुनवाई में देरी करना, (मसलन, चुनाव फंडिंग और समान नागरिकता क़ानून), कश्मीर के बच्चों और छात्रों को बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित रखना, लोकतंत्र में सबसे लंबे समय तक इंटरनेट बंद कर पूरे एक साल के लिए शिक्षा और ज्ञान के सभी साधनों को रोकना। संविधान विशेषज्ञ और वकील इन उदारणों में और बहुत कुछ जोड़ सकते हैं।
अधिनायकवाद और सत्ता के केंद्रीयकरण के इस ट्रेंड को कोविड-19 के संकट ने और आगे बढ़ाया है। केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल ने व्यक्तित्व-आधारित पंथ की प्रवृत्ति को और आगे बढ़ाया है ताकि राज्य सरकारों के अधिकारों को और कम किया जा सके, स्वतंत्र मीडिया पर हमले किए जा सकें। यह अफ़सोस की बात है कि जैसा कि बीते कुछ महीनों की सुनवाइयों और आदेशों से साफ़ है, सर्वोच्च अदालत इन अशुभ रुझानों को रोकने में अनिच्छुक या असफल है।
एक मुख्य न्यायाधीश ने दमनकारी क़ानून के तहत जेल में बंद माँ से मिलने के लिए तड़प रही एक बेटी से कहा कि वह ठंड से बचे, एक दूसरे न्यायाधीश ने यकायक हुए लॉकडाउन की वजह से बेरोज़गार हुए प्रवासी मज़दूरों से कहा कि उन्हें वेतन की माँग नहीं करनी चाहिए क्योंकि उन्हें थोड़ा बहुत खाना तो मिल ही रहा है, मुख्य न्यायाधीश इस तरह की निष्ठुर और संवेदनहीन बातें करें, यह अपने आप में सुप्रीम कोर्ट के लिए अच्छा नहीं है।
मौजूदा सरकार के 6 साल के कार्यकाल में एक मुख्य न्यायाधीश रिटायर होने के तुरन्त बाद राज्यपाल बनना स्वीकार कर लेते हैं और एक दूसरे न्यायाधीश राज्यसभा का सदस्य बनने पर राजी हो जाते हैं, अदालत के लिए यह तो और बुरी बात है।
इसके बावजूद अकेले शीर्ष पर बैठे आदमी को दोष नहीं दिया जा सकता है। मुमकिन है कि 'मास्टर ऑफ़ द रोस्टर' की क्षमताओं को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया हो, और पद पर बैठा आदमी इसका दुरुपयोग कर सकता है, (जे. चेलामेश्वर और दूसरे लोगों ने 2018 में प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस पर ज़ोर दिया था।)। लेकिन यदि हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थानों का क्षरण लगातार, सिलसिलेवार ढंग से और बढ़ती रफ़्तार से हो रहा हो तो इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ मुख्य न्यायाधीशों पर ही नहीं डाली जा सकती है।
मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि देश की सबसे बड़ी अदालत के सभी कार्यरत जजों को संविधान द्वारा दिए गए दायित्वों और अदालत जिस दिशा में जा रहा है, उसके बीच के अंतर पर विचार करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा आपातकाल के बाद से अब तक शायद सबसे निचले स्तर पर है। हमारे शीर्ष के संविधान विद्वानों के लेखों को पढ़ने से ऐसा ही लगता है।
अंतिम मुख्य न्यायाधीश के बारे में गौतम भाटिया ने लिखा है कि उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे संस्थान से जिसका मुख्य काम लोगों के बनियादी हकों की सुरक्षा करना था, उससे गिर कर ऐसा संस्थान बन गया है, जो कार्यकारी की भाषा बोलता हो, जिसे कार्यकारी से अलग करना मुश्किल हो गया हो। ( 'द वायर', 16 मार्च, 2019)।
इस दौरान प्रताप भानु मेहता ने कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट की ओर संविधान की रक्षा के लिए देखते हैं, अदालत का फ़ैसला क्या होगा, यह हमे नहीं मालूम, पर हाल के इतिहास से हमने यह सीखा है कि लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट कैसे काम करता है, इस मामले में हम ग़लतफ़हमी के शिकार हुए हैं। हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने हमें बुरी तरह निराश किया, राजनीतिक आज़ादी न होने से काम टालने, नहीं करने की इच्छा और उत्साह की कमी से ऐसा हुआ है। ('इंडियन एक्सप्रेस', 12 दिसंबर, 2019)।
सबसे ताजा मिसाल है, सुहास पलसीकर ने ‘भारतीय राज्य का उत्पीड़क में तब्दील होना’ लेख में कहा कि उत्पीड़क में बदलने की यह राजनीतिक तब्दीली इतनी आसानी से नहीं हुई होती यदि न्यायपालिका ने मुँह फेर कर दूसरी ओर नहीं देखा होता। ('इंडियन एक्सप्रेस', 4 अगस्त)।
न्यायपालिका के सबसे अनुभवी और बुद्धिमान लोग भी इन बातों से सहमत हैं, जो सार्वजनिक रूप से अपनी व्यग्रता जाहिर नहीं कर सकते।
मैं भाटिया, मेहता और पलसीकर के आकलन का समर्थन करता हूं। इसके साथ ही एक इतिहासकार के रूप में मैं यह भी जानता हूं कि संस्थानें सड़ती हैं, पर उन्हें फिर से ठीक भी किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के मामले में, 1970 के दशक में राजनीतिक लोगों और सत्ता में बैठे लोगों के सामने आपातकाल के दौरान समर्पण के बाद 1980 और 1990 के दशक में अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर उसने ज़ोर दिया। इसी तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा समय का पतन रुक सकता है और इसे एक बार फिर दुरुस्त किया जा सकता है, एक तरफ अधिनायकवादी और सांप्रदायिक कट्टरता की ताक़तें तेजी से आगे बढ़ रही हैं और सुप्रीम कोर्ट इसे रोकने की दिशा में कुछ नहीं कर रहा है या जो कुछ कर रहा है वह नाकाफी है, दूसरी ओर इतिहास और संविधान के विद्वानों का फ़ैसला मौजूदा समय से अधिक कड़ा हो सकता है।
इस मामले में आज की अदालत को भविष्य में आने वाली पीढियों के लोग कार्यकारी के अदालत के रूप में ही नहीं देखेंगे, बल्कि उसे इस रूप में देखेंगे जो कार्यकारी के साथ मिलीभगत कर काम करता हो।
इसलिए यह पत्र एक इतिहासकार और नागरिक की ओर से है, जो लोकतंत्र और संवैधानिक ढाँचे को अपनी आँखों के सामने टूट कर बिखरता हुआ देख रहा है।
(इंडियन एक्सप्रेस से साभार)