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COP29 में बड़ी सफलता, जानें कार्बन बाज़ार पर सहमति के मायने क्या

COP29 में बड़ी सफलता, जानें कार्बन बाज़ार पर सहमति के मायने क्या

जलवायु परिवर्तन यानी जहरीली होती हवा, अधिक गर्मी, अधिक सर्दी, कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ जैसे अप्रत्याशित होते जा रहे मौसम को सुधारने के लिए दुनिया एकमत होगी? जानें COP29 में क्या हुआ।

जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए उठाए जा रहे क़दमों को लेकर एक बड़ी सफलता मिली है। वर्षों बाद दुनिया भर के देशों के बीच 'कार्बन बाज़ार' पर सहमति बनी है। यह सहमति इसलिए अहम है कि जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कार्बन बाज़ार बेहद अहम है। यह एक ऐसी योजना है जो कार्बन उत्सर्जन को कम करने वाले को पैसे के रूप में प्रोत्साहन देती है। 

कार्बन बाज़ार क्या है, यह कितना ज़रूरी है और COP29 में और क्या-क्या फ़ैसले लिए गए हैं, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर जलवायु परिवर्तन पर दुनिया भर के देशों का साथ आना ज़रूरी क्यों है। 

जलवायु परिवर्तन का असर यह हो रहा है कि मौसम अनपेक्षित हो गया है। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ का कहर है। सर्दी पड़ रही है तो ऐसी कि रिकॉर्ड ही टूट रहे हैं। गर्मी भी ऐसी पड़ रही है कि पूरी दुनिया इसका असर महसूस कर रही है। हाल ही में इंग्लैंड सहित कई यूरोपीय देशों ने भीषण गर्मी झेली। कई ऐसी रिपोर्टें आई हैं जिनमें कहा गया है कि अगले कुछ दशकों में तापमान इतना बढ़ जाएगा कि यह असहनीय हो जाएगा और बड़े-बड़े ग्लेशियर पिघल जाएँगे। फिर तटीय इलाकों के डूबने का ख़तरा भी है। यानी जब ऐसे हालात बनेंगे तो लोग अपनी जान बचाएँगे या फिर आर्थिक विकास देखेंगे। तो क्यों न अभी से संभल जाएँ। 

तो जलवायु परिवर्तन पर संभलने के लिए ही देशों ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन यानी सीओपी (COP) का गठन किया। COP29 की बैठक अजरबैजान की राजधानी बाकू में हो रही है। वैश्विक जलवायु वार्ता सम्मेलन के पहले दिन एक ऐतिहासिक फ़ैसला हुआ। इस फैसले के तहत पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 को अपनाया गया। पेरिस समझौते के अनुच्छेद छह में वैश्विक कार्बन बाजार के गठन का प्रावधान है। सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों ने कार्बन बाजारों से संबंधित कुछ नए मानकों और नियमों को मंजूरी दी जो कम से कम दो वर्षों से ठंडे बस्ते में थे।

क्या है कार्बन बाजार?

कार्बन बाजार कार्बन क्रेडिट में व्यापार की अनुमति देते हैं। इसका कुल मिलाकर उद्देश्य यह है कि कार्बन का उत्सर्जन कम किया जाए। इसके तहत जो कोई ईकाई या देश तय सीमा से कम कार्बन का उत्सर्जन करता है उसको कार्बन क्रेडिट दिया जाता है। इस कार्बन क्रेडिट को वह किसी दूसरी ईकाई या देश को पैसे से बेच भी सकता है। 

जाहिर है कि इस कार्बन क्रेडिट को वह ईकाई या देश ख़रीदेगा जो अपने उत्सर्जन मानकों को प्राप्त करने में असमर्थ है। इस तरह कार्बन बाज़ार का सीधा मक़सद मौद्रिक प्रोत्साहन देकर उत्सर्जन में कमी को लाना है। कार्बन क्रेडिट एक प्रकार का व्यापार योग्य परमिट है।

कार्बन बाजारों की स्थापना 2015 के पेरिस समझौते का अंतिम बचा हुआ हिस्सा है जिसे अभी तक लागू नहीं किया गया है। ऐसा मुख्य रूप से इसलिए हुआ क्योंकि इस बहुत जटिल और तकनीकी संरचना के नियम, तौर-तरीक़े और प्रक्रियाओं को अभी भी अंतिम रूप दिया जाना है। इनमें से कुछ मानकों को COP29 की मंजूरी एक छोटा कदम है, लेकिन अभी भी कई और कदम उठाए जाने हैं।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन के कार्यकारी सचिव साइमन स्टील ने इस निर्णय को एक 'सफलता' बताया है।  उन्होंने जोर देकर कहा, 'यह संयुक्त राष्ट्र की नौकरशाही का कोई रहस्यमयी हिस्सा नहीं है। जब ये कार्बन बाज़ार चालू हो जाएँगे, तो ये देशों को अपनी जलवायु योजनाओं को तेज़ी से और सस्ते में लागू करने में मदद करेंगे, जिससे उत्सर्जन में कमी आएगी। हम इस दशक में अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को प्राप्त करने से बहुत दूर हैं, लेकिन COP29 में कार्बन बाज़ारों पर जीत हमें उस दौड़ में वापस लाने में मदद करेगी।'

हालाँकि, कुछ मामलों में अभी भी बात आगे नहीं बढ़ी है। बाकू में भी वित्त को लेकर वार्ता अटकी हुई है। 130 से अधिक विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करने वाला जी77 प्लस चीन समूह ने वित्तीय समझौते पर शुरुआती मसौदा प्रस्ताव को खारिज कर दिया है और एक नए संस्करण की मांग की।

सीधे सीधे कहें तो इन देशों का कहना है कि विकसित देशों ने तो अब तक बेरोकटोक कार्बन उत्सर्जन कर अपना विकास कर लिया है, लेकिन अब जब विकासशील देश उसी दौर में पहुँच गए तो उन पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती लाने का दबाव है। इन देशों का कहना है कि ऐसा करने से कमजोर समुदायों और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होगी और इसलिए वित्तीय मदद का प्रावधान किया जाए। 

क्लाइमेट एक्शन के लिए धन के बढ़े हुए प्रवाह को सक्षम करने के लिए बाकू को एक व्यापक वित्त पैकेज देना चाहिए। 100 बिलियन डॉलर की राशि जो विकसित देश हर साल विकासशील देशों को देने के लिए बाध्य हैं, उसे 2026 से काफी हद तक बढ़ाना होगा। भारत समेत विकासशील देश मांग कर रहे हैं कि 2026 से जलवायु कार्रवाई के लिए कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष उपलब्ध कराया जाए। मंगलवार को जी77 देशों के समूह ने कहा कि वे विकसित देशों से विकासशील देशों को कम से कम 1.3 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष मिलते देखना चाहेंगे।

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