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कोरोना का भय क्या सीनों में घुमड़ते विद्रोह को ख़त्म कर सकता है?

कोरोना का भय क्या सीनों में घुमड़ते विद्रोह को ख़त्म कर सकता है?

युद्ध, महामारी, ये दो ऐसी स्थितियाँ हैं जिनमें हम सबको भेदभाव भुलाकर न सिर्फ़ एक हो जाने के लिए कहा जाता है, बल्कि राज्य से भी एक हो जाने के लिए कहा जाता है। इसलिए विद्रोह की बात तो कोई सोच ही नहीं सकता।

कोरोना और कारागार का क्या रिश्ता है? यह अनुप्रास अलंकार का एक प्रयोग भर नहीं है। ईरान ने, जिसे हम ख़ासा क्रूर राज्य मानते हैं, 85,000 कैदियों को अस्थायी तौर पर छोड़ दिया है। इनमें राजनैतिक कैदी भी शामिल हैं। वह अपनी जेलों पर इन कैदियों की संख्या के कारण जो दबाव है, उसे कम करना चाहता है। कोरोना का सामना करने के लिए यह भी ज़रूरी है।

ईरान से अलग ख़बर इटली से आई है। वहाँ फोग्गिया, अवेल्लिनो, बोलोंगा और मोदेना की जेलों से कैदियों के विद्रोह का समाचार मिला। यह 8 मार्च को शुरू हुआ। एक दिन पहले इटली के न्याय मंत्रालय ने कैदियों के परिजन और सामाजिक कर्मियों से उनकी मुलाक़ात पर पाबंदी लगा दी। ऐसा कोरोना के ख़तरे को देखते हुए किया गया। इस वजह से नाराज़ कैदियों ने बग़ावत कर दी। यह 3 दिनों तक चलता रहा। कुछेक जेलों को भारी नुक़सान भी हुआ है। इसमें 14 मौतें हुईं। इटली की सरकार ने कहा कि वह किसी भी ग़ैर-क़ानूनी हरकत को बर्दाश्त नहीं करेगी और जो कुछ भी हुआ वह आपराधिक था। सरकार हर कड़ा क़दम इसे दबाने के लिए उठाएगी।

सोसाइटी एंड स्पेस  वेबसाइट ने लिखा कि कैदियों के संघ ने इस बात पर अप्रसन्नता ज़ाहिर की है कि कोरोना से उनके बचाव का कोई उपाय सरकार नहीं कर रही है। परिजन से संवाद के लिए भी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता था। इसके अलावा सरकार यह तो कर सकती ही थी कि छोटे मोटे जुर्म के लिए कैद लोगों को रिहा कर देती या जो अपनी पहली सुनवाई का इंतज़ार कर रहे हैं, उन्हें ईरान की तरह ही अस्थायी तौर पर छोड़ देती। इनकी तादाद ही तकरीबन 10,000 है। 

अब हम अपने मुल्क आएँ। कोलकाता की दमदम जेल से हिंसा की ख़बर आई है। कुछ अधिकारियों का ख्याल है कि कुछ कैदी भाग निकलने की साज़िश कर रहे थे। जेल से धुँआ निकलता दिखलाई दिया है। घायल अस्पताल ले जाते हुए देखे गए। मालूम हुआ कि कैदियों में कोरोना को लेकर आशंका और ग़ुस्सा था। इटली की तरह ही यहाँ भी उनके परिजनों से मुलाक़ात बंद कर दी गई है। इसके साथ ही उन्हें मालूम हुआ कि अदालतें सामान्य तौर पर नहीं बैठेंगी। इसका असर ख़ासकर उनपर पड़ेगा जिनके मामले विचारधीन हैं। यानी जो सजायाफ्ता नहीं हैं और निर्दोष भी पाए जा सकते हैं और अनेक की पहली सुनवाई भी नहीं हुई है। आशंका है कि इस विद्रोह में मौतें भी हुई हैं लेकिन जैसा भारत का रिवाज़ है हमें सच जानने के लिए सरकार की जगह किसी और की तलाश करनी होगी।

दमदम जेल या इटली की जेलों में जो विद्रोह हुआ उसे भी अपराध कहा जा रहा है। उससे निबट लिया गया है। इस ख़बर के बाद हम अख़बार का पन्ना पलट लेंगे। लेकिन कोरोना के समय भी सरकारों के ख़िलाफ़ विद्रोह की इन ख़बरों को मात्र नकारात्मक कहकर हम टाल न दें और इनके दबा दिए जाने पर राहत की साँस न लें।

जीवन के न्यूनतम स्तर पर रहने को बाध्य ये कैदी अपने जैविक और भावनात्मक अवकाश को आख़िरी तौर पर संकुचित करने के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे। इस विद्रोह में एक संदेश हम सबके लिए है। कोरोना की आपदा से सरकारें बहुत सीखेंगी लेकिन हम क्या सीखेंगे?

सरकारें हमसे अपनी सामान्यता का बलिदान करने की माँग कर रही हैं और हम स्वेच्छया ऐसा कर रहे हैं। भय अपने प्राणों का जो है। लेकिन ऐसा करते हुए सरकारें सरकारी सामान्यता को कहीं भी स्थगित नहीं कर रही हैं।

इस कोरोना के समय ही कर्नाटक सरकार सर्वोच्च न्यायालय पहुँची यह गुहार करते हुए कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने जिन 22 लोगों को जमानत पर छोड़ दिया है, उन्हें बाहर न आने दिया आए। और हमारी सबसे बड़ी अदालत ने सरकार की सुनी, कर्नाटक उच्च न्यायालय की यह बात नहीं कि ख़ुद इन 22 के ख़िलाफ़ किसी हिंसा में शामिल होने का कोई सबूत नहीं पाया गया है।

ये 22 तो सिर्फ़ 22 हैं और वह भी मुसलमान, इसलिए उनकी फिक्र राष्ट्रीय नहीं हो सकती। लेकिन इस कोरोना आपदा के समय सर्वोच्च न्यायालय के एक दूसरे फ़ैसले से साफ़ होना चाहिए कि आपदा कैसी भी हो, सरकारियत बरकरार रहती है। केरल और कर्नाटक के उच्च न्यायालयों ने कोरोना से पैदा हुई विशेष स्थिति में आयकर विभाग और बैकों को कहा था कि इस दौरान वसूली में रियायत दें और करदाताओं के साथ ज़बरदस्ती न करें। केंद्र सरकार ने ज़रा देर न की। फौरन सबसे ऊँची अदालत पहुँची और कहा कि इस फ़ैसले से आर्थिक प्रशासन की प्रक्रिया ही चरमरा जाएगी। 

क्यों सरकार यह जानते हुए कि नागरिकों की सामान्य आर्थिक गतिविधि कोरोना के कारण प्रभावित होगी ही, उन्हें टैक्स वसूली में जोर ज़बर से भी राहत नहीं देना चाहती?

सरकार हमेशा ही ‘प्रजा’ का गठन करती रहती है। प्राकृतिक विपदाएँ इसमें उसकी मदद करती हैं। वह यह समझना चाहती है कि लोग ख़ुद को कितना सिकोड़ सकते हैं और कितनी दूर तक वे सरकारी फरमान बिना सवाल किए मान सकते हैं। यह हमारे स्वभाव, आचरण और हमारे भौगोलिक और भावनात्मक अवकाश का भी पुनर्गठन है।

आपातकालीन स्थिति में हम ख़ुद ही सरकारों की मदद करने लगते हैं। युद्ध, महामारी, ये दो ऐसी स्थितियाँ हैं जिनमें हम सबको भेदभाव भुलाकर न सिर्फ़ एक हो जाने के लिए कहा जाता है, बल्कि राज्य से भी एक हो जाने के लिए कहा जाता है। इसमें निजी अवकाश की माँग धार्मिक दूषण से कम नहीं। इसलिए विद्रोह की बात तो कोई सोच ही नहीं सकता।

यह असमय विद्रोह सरकार का ध्यान बँटाने की साज़िश है जिससे हम सब ख़तरे में पड़ सकते हैं। इसलिए सरकार जितना विद्रोह के ख़िलाफ़ आए उससे ज़्यादा साधारण जनता ही विद्रोह का दमन करने को तैयार रहेगी। यह ऐसा समय भी है जब लोग ख़ुद ही एक दूसरे के ऊपर सरकार के लिए जासूसी कर सकते हैं। यह वे अपने लिए ही कर रहे हैं, ऐसा उन्हें लगता है।

सड़कें सिर्फ़ चलने-फिरने,बसों और कारों की नहीं, जुलूसों के लिए भी हैं। शोभायात्राओं की ही नहीं, विरोध प्रदर्शनों की भी। विरोध और विद्रोह अन्याय के ख़िलाफ़। वह अन्याय तो स्थगित नहीं हुआ है। राज्यों की हिंसा तो नहीं रुकी है। साबुन, सैनिटाइजर और नकाब की माँग बढ़ने पर उनकी मनमानी क़ीमत माँगे जाने पर रोक तो नहीं लगी है। सरकार का नियम, बाज़ार का नियम, वह सब नियम है; शिथिल कैसे हो सकता है? कश्मीर में गिरफ़्तार लोग रिहा तो नहीं किए गए हैं। गाज़ा पट्टी पर इजराइल की जकड़ ढीली तो नहीं हुई है। ईरान पर अमेरिका की पाबंदियाँ कम तो नहीं हुई हैं। वह सब नियम है।

नाइंसाफ़ी क़ायदा है, इंसाफ़ की लड़ाई उस क़ायदे को चुनौती है। सड़कें जब सूनी हैं तो विद्रोह सिर्फ़ सीनों के भीतर घुमड़ रहा है। वह है लेकिन, कोरोना का भय भी उसे ख़त्म नहीं कर सकता।

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