कोरोना की तबाही को कैसे झेल पाएगी पहले से ही चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्था?
कोरोना महामारी ने भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर फिर से ग़ौर करना आवश्यक बना दिया है। अभी भी भारत कोरोना के दूसरे स्टेज में ही है। यानी बीमारी अभी भी पूरे समुदाय को संक्रमित नहीं कर रही है। चीन, इटली और अमेरिका की तरह इसका सामाजिक विस्फोट हो तो भारत में 4 करोड़ से ज़्यादा लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं। 50 लाख लोगों के अस्पताल में इलाज की ज़रूरत पड़ सकती है। हमारी चिकित्सा व्यवस्था इतनी बड़ी संख्या में रोगियों की देखभाल के लिए तैयार दिखायी नहीं देती। भारत में इटली तथा अमेरिका से भी ज़्यादा गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में स्वास्थ्य सुविधा के व्यापक इंतज़ाम की लगातार उपेक्षा हो रही है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के रिकॉर्डों को खंगालने से पता चलता है कि भारत के अस्पतालों में रोगियों के लिए क़रीब 70 हज़ार आईसूयी बेड हैं। इनमें भी महज 40 हज़ार के क़रीब वेंटिलेटर लगे हैं।
कोरोना के दस्तक देने के बाद वेंटिलेटर और आईसीयू बेड बढ़ाए जा रहे हैं लेकिन कोरोना पीड़ितों की संख्या अगर तेज़ी से बढ़ती है तो हमारे यहाँ भी इटली जैसी स्थिति आ सकती है जहाँ अब डॉक्टर यह तय करने पर मजबूर हैं कि बेड की सीमित संख्या को देखते हुए किन रोगियों को बचाया जाए और किनको ईश्वर की इच्छा पर छोड़ दिया जाए। इटली की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुनिया सबसे बेहतर माना जाता है क्योंकि यहाँ एक हज़ार जनसंख्या पर क़रीब 4 बेड उपलब्ध हैं। भारत में क़रीब डेढ़ हज़ार जनसंख्या पर एक बेड उपलब्ध है।
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि एक हज़ार की आबाद पर कम से कम एक डॉक्टर होना चाहिए। लेकिन भारत में 2 हज़ार से ज़्यादा की आबादी पर एक डॉक्टर उपलब्ध है।
स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि देश में क़रीब साढ़े नौ लाख सक्रिय डॉक्टर हैं। अगर सरकारी अस्पतालों की बात करें तो क़रीब 10 हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। निजी अस्पताल और इलाज के लिए जेब से ख़र्च के कारण हर साल क़रीब 6 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। डब्ल्यूएचओ के मानदंडों के हिसाब से सरकारी अस्पतालों में अभी क़रीब छह लाख डॉक्टर और 20 लाख नर्सों की कमी है। अस्पतालों में ऑक्सीज़न सिलेंडर की कमी की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। इसका मतलब यह है कि जिन अस्पतालों में आईसीयू हैं उनमें भी उपकरणों की कमी है।
अब जब कोरोना फैल रहा है तब भी डॉक्टर सावधान कर रहे हैं कि उनके पास पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट यानी पीपीई की कमी है। इनमें वायरस से सुरक्षा के लिए विशेष प्रकार की ड्रेस, दस्ताने और मास्क शामिल हैं। आश्चर्यजनक यह है कि जनवरी में चीन के वुहान शहर में बुरा हाल होने के बाद दुनिया के ज़्यादातर देश पीपीई का स्टॉक जमा कर रहे थे तब भारत सरकार ने मास्क, दस्ताने और 8 अन्य उपकरणों को निर्यात में छूट दे रखी थी। यह छूट 19 मार्च तक जारी थी। अब देश में मास्क की जमकर कालाबाज़ारी हो रही है।
स्वास्थ्य सेवाएँ अब भी भारत सरकार की प्राथमिकता में दिखायी नहीं देती है। डब्ल्यूएचओ की सिफ़ारिश है कि हर देश को अपने जीडीपी का कम से कम 4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च करना चाहिए। लेकिन भारत में अब भी स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का क़रीब एक प्रतिशत ही ख़र्च हो रहा है। 2020-21 के ताज़ा बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर सिर्फ़ 69 हज़ार करोड़ ख़र्च की व्यवस्था की गई है। यह रक़म 2019-20 के 62 हज़ार करोड़ छह सौ साठ करोड़ के मुक़ाबले क़रीब 6400 करोड़ ज़्यादा है। लेकिन एक साल में मुद्रास्फ़ीति क़रीब साढ़े सात फ़ीसदी बढ़ चुकी है। इस हिसाब से बजट में बढ़ोतरी नाम मात्र की ही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 तक स्वास्थ्य सेवा पर ख़र्च को जीडीपी का ढाई प्रतिशत करने की घोषणा की थी। इस दिशा में कोई ठोस पहल अब तक सामने नहीं है।
कोरोना के ज़्यादातर मरीजों का इलाज सरकारी अस्पतालों में हो रहा है। बहुत कम प्राइवेट अस्पताल इसके लिए आगे आए हैं। इससे एक बार फिर साबित होता है कि स्वास्थ्य सेवा को प्राइवेट के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। ब्रिटेन और यूरोप के लगभग सभी देशों में स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा सरकारी क्षेत्र में ही है। पिछले कुछ वर्षों से भारत सरकार का जोर प्राइवेट सेक्टर पर दिखाई दे रहा है। देश के ग़रीब और मध्यम वर्ग का संकट और बढ़ सकता है।