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गाँवों में कोरोना पहुँचा तो जान ख़तरे में रहेगी ही, क़र्ज़ में भी डूबेंगे ग्रामीण

गाँवों में कोरोना पहुँचा तो जान ख़तरे में रहेगी ही, क़र्ज़ में भी डूबेंगे ग्रामीण

कोरोना वायरस का गाँवों पर क्या असर होगा? अगर गाँव के लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है तो क़रीब 24.9 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिन्हें क़र्ज़ लेना पड़ जाता है। 

उत्तर प्रदेश के हापुड़ ज़िले के पिलखुआ में एक युवा ने आत्महत्या कर ली। सुसाइड नोट से पता चला है कि उसे कोरोना होने का डर था और वह लंबे समय से घर से कटा हुआ था। जनता कर्फ्यू के दौरान शाम 5 बजे लोगों ने घंटा, शंख, थाली पीटने की कवायद की। यह एक उदाहरण है कि आम नागरिकों में किस तरह से कोरोना वायरस का डर फैल गया है।

शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जनता कर्फ्यू की घोषणा के बाद देश में अफरा-तफरी और भगदड़ का माहौल है। पुणे, मुंबई और बेंगलूरु जैसे शहरों से जो ख़बरें आईं उससे लगा कि लोग अपने घरों तक पहुँचने की कवायद कर रहे हैं। रेलवे स्टेशनों पर बेतहाशा भीड़ बढ़ गई। आख़िरकार रेलवे को लंबी दूरी की ट्रेनें भी रद्द करनी पड़ी। पटना शहर में बाहर से किसी तरह पहुँचे लोग बसों की छत पर यात्रा कर अपने गाँव-घर पहुँच जाना चाहते हैं।

यह भारत की ही स्थिति नहीं है। यूरोप और अमेरिका में भी नौकरियाँ करने वाले अपने-अपने देशों में भाग रहे हैं। यहाँ तक कि यूरोप के देशों में भी कोरोना से कम प्रभावित इलाक़ों के लिए लोग उड़ान भर रहे हैं। ऐसे में यह बीमारी भयावह रूप लेती जा रही है और लोग इस वायरस को फैला रहे हैं। हालत यहाँ तक पहुँच गई कि जिन देशों की स्वास्थ्य सेवा दुनिया में बेहतर मानी जाती थी, वहाँ पूरी व्यवस्था चरमरा गई है और मौत के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं।

जिन इलाक़ों में कोरोना वायरस कम है, उन इलाक़ों की ओर पलायन और भारत में अपनों के बीच पहुँच जाने के लिए मची दौड़ इस बीमारी को फैलाने में अहम है। भारत के गाँव अभी क़रीब क़रीब बचे हुए हैं। मौतों की ख़बरें ज़्यादातर महानगरों से आ रही हैं। ग्रामीण इलाक़ों में जगह ज़्यादा होने की वजह से लोग एक-दूसरे से दूरी रख सकते हैं, लेकिन जिस तरह से जनता कर्फ्यू के दौरान उत्सव का माहौल रहा और ज़िलाधिकारी से लेकर आम नागरिकों तक ने रैलियाँ निकालीं, उससे ऐसा नहीं लगता कि हम भारत के नागरिकों को यह बताने में कामयाब हो पाए हैं कि कोरोना वायरस को फैलने से कैसे रोका जा सकता है।

आइए, देखते हैं कि गाँवों और शहरों में भारत के स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है। भारत सरकार का नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल,  2019 का 14वाँ संस्करण इसके लिए बेहतर आधिकारिक स्रोत माना जा सकता है। भारत के ग्रामीण इलाक़ों में 21,402 सरकारी अस्पताल और 2,65,257 बेड हैं, जबकि शहरों में 4,375 अस्पतालों में 4,48,711 बेड हैं। इस आँकड़े से पता चलता है कि बड़े अस्पताल शहरों में ही केंद्रित हैं और गाँवों के हिस्से सुविधाविहीन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ही हैं। 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़ 31.14 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती है, जबकि शेष आबादी गाँवों में रहती है। यानी शहरीकरण की सभी कवायदों के बावजूद भारत ग्रामीण आबादी वाला देश बना हुआ है। 

कोरोना वायरस से बुजुर्ग लोग ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं और भारत में 60 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी महज 8.3 प्रतिशत है, यह थोड़ी राहत वाली बात हो सकती है। हालाँकि देश की कुल सवा अरब से ऊपर आबादी के 8.3 प्रतिशत आबादी के रूप में देखें तो यह संख्या भी कई विकसित देशों से ज़्यादा है और ये आँकड़े एक बार फिर डरावने लगने लगते हैं। कोरोना बच्चों को भी शिकार बना रहा है और भारत में शून्य से 14 साल की उम्र के बच्चों की आबादी 28.5 प्रतिशत है।

अगर गाँव के लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है तो क़रीब 24.9 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिन्हें क़र्ज़ लेना पड़ जाता है।

अस्पतालों पर ख़र्च का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र के अस्पतालों के पास जाता है, जो गाँवों में नहीं हैं। आँकड़ों से पता चलता है कि देश के क़रीब सभी राज्यों में गाँवों में स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। दिल्ली से सटे राजस्थान में जहाँ शहरों में प्रति 10,000 लोगों पर 20.2 बेड हैं, वहीं गाँवों में 2.4 बेड हैं। बिहार जैसे राज्य में तो दयनीय स्थिति है, जहाँ शहरों में प्रति 10,000 व्यक्ति 5.2 और गाँवों में 0.6 बेड हैं।

ऐसे में देश के भीतर गाँवों में जाने को लेकर मज़दूरों के बीच मची भगदड़ भयावह रूप ले सकती है। अगर गाँवों में कोरोना वायरस फैल जाता है तो न वहाँ उपचार की सुविधा है, न लोगों के पास इतने पैसे हैं कि वह उपचार करा सकेंगे। सरकार द्वारा लंबी दूरी की ट्रेन रोक देने की कवायद इस हिसाब से अहम है कि देश के ग्रामीण इलाक़ों में यह वायरस न फैलने पाए।

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