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कोरोना की चपेट में डॉक्टर-नर्स क्यों; क्या स्वास्थ्य मॉडल ही जानलेवा?

कोरोना की चपेट में डॉक्टर-नर्स क्यों; क्या स्वास्थ्य मॉडल ही जानलेवा?

84,000 लोगों पर एक आइसोलेशन बेड, 36,000 लोगों पर एक क्वरेंटाइन बेड, प्रति 11,600 भारतीयों पर एक डॉक्टर और 1,826 भारतीयों के लिए अस्पताल में एक ही बेड। ऐसे में कोरोना से कैसे निपटेंगे?

84,000 लोगों पर एक आइसोलेशन बेड। 36,000 लोगों पर एक क्वरेंटाइन बेड। प्रति 11,600 भारतीयों पर एक डॉक्टर। और 1,826 भारतीयों के लिए अस्पताल में एक ही बेड। यह तसवीर है हमारे देश की स्वास्थ्य सेवा की। ये आँकड़े कुछ दिन पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पत्रकारों से साझा किए थे। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, देश में 1,154,686 पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टर और सरकारी अस्पतालों में 7,39,024 बेड हैं। कोरोना ने न सिर्फ़ हमारे देश की बल्कि दुनिया के उन सभी विकसित पूंजीवादी देशों की भी पोल खोलकर रख दी है जिन्होंने अंधानुकरण के चलते स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं का निजीकरण कर डाला। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाएँ किसी भी सरकार की जवाबदेही होनी चाहिए।

राष्ट्रीकृत उद्योगों के निजीकरण का रास्ता आसान करने और कल्याणकारी राज्य को सीमित करने का मतलब था शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक उद्योगों से राज्य की विदाई और मुख्य लक्ष्य मुनाफा कमाना। इस नीति को सफलता से लागू कराने के लिए पूंजीवादी विकसित देश ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर जैसे नेता तारीफ़ करते नहीं थकते थे आज वे इस बात को सोचने पर ज़रूर मजबूर होंगे कि बाज़ारीकरण की अंधी दौड़ कितनी घातक है। भारत जैसे देश में भी इसका अंधानुकरण किया गया और स्वास्थ्य ढाँचे को संभालने या विकसित करने की बजाय बीमा योजना का सहारा लिया गया, जिसका नतीजा हमारे सामने है। 

20 मार्च से देश में लॉकडाउन है और अब 14 अप्रैल तक इसके लागू रखने की घोषणा की गयी है। लेकिन ऐसा कहीं से भी नज़र नहीं आ रहा कि 14 अप्रैल तक यह ख़त्म हो जाएगा और हम कोरोना को नियंत्रित कर लेंगे। जो तसवीर अब हर दिन नज़र आ रही है वह हर दिन अधिक भयावह नज़र आने लगी है। लंगड़ी स्वास्थ्य सेवा की विफलता की परतें खुलती जा रही हैं। अब तो लोगों का इलाज करने के लिए तैनात डॉक्टर और नर्स स्वयं ही बीमार पड़ने लगे हैं। 

साधनों का अभाव है, सुरक्षा उपकरणों की कमी है, ऐसे में क्या महज देश के लोगों को घरों में क़ैद रख कर ही इस बीमारी पर फतह पायी जा सकती है

मुंबई के कांदिवली क्षेत्र में शताब्दी नामक एक चिकित्सालय में कोरोना संक्रमित एक मरीज मिलने की वजह से वहाँ काम करने वाले 68 स्वास्थ्य कर्मियों को क्वरेंटाइन कर दिया गया। जसलोक चिकित्सालय के एक स्वास्थ्य कर्मी के कोरोना संक्रमित पाए जाने पर चिकित्सालय को बंद कर दिया गया है। इसी तरह चेंबुर में भी एक निजी चिकित्सालय को सील कर दिया गया क्योंकि वहाँ कोरोना संक्रमित मरीज पाया गया। यह सिर्फ़ मुंबई ही नहीं, दिल्ली में एम्स से लेकर लखनऊ, चंडीगढ़, शिमला, जयपुर, भोपाल जैसे हर शहर की कहानी है। 

मुंबई और ठाणे ज़िले में ऐसे क़रीब एक दर्जन चिकित्सालय बंद किए जा चुके हैं जो इस बात की तरफ़ भी संकेत करते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से मुंह फेर कर हमारी सरकारें जिस मॉडल को अपना चुकी हैं वे कितने दोषपूर्ण हैं।

सिर्फ़ मुनाफाखोरी ही नहीं, ये स्वास्थ्य मॉडल जानलेवा भी बन गए हैं। यह कहानी कोरोना वायरस से जंग लड़ रहे हमारे देश की ही नहीं बल्कि ब्रिटेन, इटली, अमेरिका, स्पेन, जर्मनी, फ़्रांस जैसे विकसित देशों की भी है। इन देशों ने वियतनाम और क्यूबा जैसे छोटे देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लादकर उन्हें बर्बाद करने के हर संभव प्रयास किए लेकिन आज इटली में उसी क्यूबा के चिकित्सक मदद करने पहुँचे हैं जहाँ पर स्वास्थ्य और शिक्षा को व्यापार नहीं बनने दिया गया। ऐसे में कोरोना से पीड़ित इटली की असहाय जनता को मदद करने के लिए क्यूबा और चीन के डॉक्टरों का दल वहाँ पहुँचा है। 

हमारे देश में कोरोना को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं। सरकार की तरफ़ से उनके जवाब आने की बजाय कुछ और ही मुद्दों की तरफ़ इसे ले जाया जा रहा है। देश में अप्रत्याशित, बिना तैयारी का लॉकडाउन, कोरोना जाँच के मामलों में कमी, स्वास्थ्य सेवाओं के ज़रूरी साधन, ग़रीबों को भोजन आदि सुविधाओं पर कोई ठोस जवाब देने की बजाय सरकार इसमें उलझी हुई है कि लोगों को घरों में कैसे समेटे।

गाँवों की कहानी अलग है और अंधाधुंध शहरीकरण की वजह या रोज़गार की तलाश में गाँव के लोगों का शहरों की तरफ़ जितने बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है उसका सच भी कोरोना ने उजागर कर दिया है। यह भी सच सबके सामने ला दिया है कि रोज़गार के नाम पर जो भीड़ शहरों में दाखिल होती है वह किसी तरह से अपने को ज़िंदा रखने का संघर्ष ही करती रहती है, उसके सिवा उसके आर्थिक स्तर में कोई सुधार नहीं हो रहा है। और ऐसे में जब शहरों के बंद होने की घंटी बजी तो लोग साधन नहीं मिलने पर पैदल ही हज़ारों मील का सफर तय करने निकल पड़े, क्योंकि संघर्ष बीमारी से पहले अपनी जान बचाने का था।

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