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क्या इंसान के घमंड को तोड़ने आया है कोरोना?

क्या इंसान के घमंड को तोड़ने आया है कोरोना?

जिस कोरोना वायरस का वजूद इतना सूक्ष्म है उसके सामने समस्त मानव जाति घुटने टेक कर जीने की भीख माँग रही है।  क्या इंसान के घमंड को तोड़ने आया है कोरोना?

लॉकडाउन से पहले लोग अपने-अपने कामों में कुछ इस तरह व्यस्त थे मानो ट्रेन गंतव्य स्थान तक पहुँचने के लिए अपनी पटरी पर हो। मानव की गतिविधियाँ इतनी तेज़ हो चुकी थीं कि उसके मुनाफ़े में उन गतिविधियों के सापेक्ष ही प्रभाव (relativistic effects) दिखने लगा था। कुछ करने की ज़िद ‘क्यों’ जैसे सवालों को दरकिनार कर चुका था, नए रिश्ते की तलब में पुराने और गहरे रिश्ते कुछ इस तरह छुप गये थे जैसे ठंड के दिनों में कुहासों से अपना घर। मानव की स्वार्थपूर्ण हरकतों से प्रकृति का समस्त जीव सहमा-सहमा सा रहने लगा था। उसे उसके हक़ की ज़मीन, घर खाना, पानी तक नहीं मिलने लगा। विज्ञान की प्रगति से हम अंधे हो चुके थे। ...अन्य जीवों की जीवन शैली में हस्तक्षेप प्रकृति के बर्दाश्त करने की हद को पार कर चुका और इसने हमारे घमंड को बहती धारा से बहिष्कृत कर छोटे से साहिल पर ठहरा दिया और सोचने पर मजबूर किया। जिस कोरोना वायरस का वजूद इतना सूक्ष्म है उसके सामने समस्त मानव जाति घुटने टेक कर जीने की भीख माँग रही है। 

कई बार मुझे ऐसा लगता है कि विज्ञान और अध्यात्म दो ऐसी विधा हैं जिसके माध्यम से प्रकृति की अधिकांश सच्चाई को उजागर करके समझा जा सकता है। लेकिन दोनों के बीच कुछ विभिन्नताएँ हैं। विज्ञान में आपके लिये किसी तथ्य को पूरी तरह बिना छेड़छाड़ किए जानना शायद मुमकिन ना हो लेकिन आध्यात्मिक शक्ति से ऐसा किया जा सकता है। विज्ञान लोगों की जीवन शैली को प्रभावित करने में कारगर है जबकि इसके दुष्परिणाम से प्रकृति के समस्त जीव प्रभावित होते हैं, जबकि अध्यात्म के साथ ऐसा नहीं है। कम शब्दों में इसे समझना थोड़ा कठिन है।

शायद कहीं ऐसा तो नहीं कि नौकरी वाले, बेरोज़गार लोगों के ऊपर कटाक्ष पूर्ण हँसी के परिणामस्वरूप प्रकृति ने बेरोज़गार लोगों के पक्ष में फ़ैसला कर आज सभी को बेरोज़गार घोषित कर दिया हो! प्रकृति के समानता के अधिकार को कोई झुठला नहीं सकता। कई बार हम युद्ध में इसलिए हार जाते हैं क्योंकि हमारे पास आवश्यकता से अधिक साधन होता है जिसे हम सही तरीक़े से उपयोग नहीं कर पाते या निर्णय लेने में ग़लती करते हैं।

किसी वस्तु के विनाश के गर्भ में निर्माण की प्रक्रिया पलती है। विनाश और निर्माण एक साथ पूरक हैं किसी चीज का अस्तित्व में होने के। मानव के अलावा अन्य जीवों को अपने जीवन काल में सबसे कम संसाधन की आवश्यकता होती है। उन्हें कल की फिक्र नहीं होती जिसके कारण प्राकृतिक आपदाओं, बदलते मौसम के मिज़ाज आदि का सामना उन्हें करना पड़ता है जो कुछ समय के लिए कष्टपूर्ण हो सकते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद ये जीव जीवन की तमाम दुख-सुख की घटनाओं को जीते हैं। वहीं एक तरफ़ मानव है जिसे जीने के लिए एक से बढ़कर एक संसाधन की आवश्यकता होती है। इसके बावजूद उसके चेहरे पर ख़ुशी की लकीरें दिखने के लिए सदियों बैठ कर इंतज़ार करना पड़ेगा। लगता है, संसाधन युक्त जीवन शैली उच्च स्तर पर है, पर है नहीं।

कई बार मैं उन दिनों के बारे में कल्पना करने लगता हूँ जिस दिन मानव अन्य जीवों के हक़ के बारे में सोचने लगेगा, प्रकृति को अपना दुश्मन नहीं, साथी मानकर उसके साथ जीने लगेगा, अपने बौद्धिक क्षमता का उपयोग कर अन्य जीवों के लिए भी संसाधन का निर्माण करेगा, उसके बुरे समय में मसीहा का फ़र्ज़ अदा करेगा, अन्य जीवों की जीवन शैली में मानव का कोई हस्तक्षेप ना हो… आदि और फिर मैं सोचता हूँ कि क्या ऐसा हो सकता है

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