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सरकार ख़ज़ाना खाली करे तभी आईसीयू से बाहर निकल पाएगी अर्थव्यवस्था

सरकार ख़ज़ाना खाली करे तभी आईसीयू से बाहर निकल पाएगी अर्थव्यवस्था

लॉकडाउन ने देश के सामने मुश्किल हालात पैदा कर दिए हैं। आर्थिक गतिविधियाँ दम तोड़ चुकी हैं और भविष्य को लेकर अनिश्चितता है। 

लॉकडाउन के दो महीनों में देश की आर्थिक गतिविधियाँ दम तोड़ चुकी हैं। इनका मूल्य लगभग शून्य हो चुका है। भविष्य को लेकर बेहद अनिश्चितता है। साफ़ दिख रहा है कि आर्थिक गतिविधियों को सामान्य होने में लम्बा वक़्त लगेगा। 21 लाख करोड़ रुपये के ‘आत्म-निर्भर भारत मिशन’ के एलान का 90 फ़ीसदी यानी 19 लाख करोड़ रुपये महज फंड या आवंटन है। 

ये फंड भले ही काफ़ी बड़ा दिखे लेकिन इसमें सरकारी ख़र्चों का कोई खाक़ा नहीं है। इसीलिए मौजूदा वित्त वर्ष के बाक़ी बचे दस महीनों में हमें इस फंड का बेहद मामूली असर भी तभी दिखाई देगा जब अर्थव्यवस्था आईसीयू (सघन चिकित्सा इकाई) से बाहर आएगी। ऐसा कब और कैसे होगा इसे समझना भी ज़्यादा मुश्किल नहीं है। अभी असली दारोमदार सरकारी ख़र्चों पर है, क्योंकि सिर्फ़ सरकार ही गाँठ में पैसा नहीं होने के बावजूद ख़र्च कर सकती है।

दरअसल, अर्थव्यवस्था अलग आकारों वाले चार पहियों की सवारी है। यही पहिये ‘ग्रोथ-इंज़न’ भी कहलाते हैं। इन पहियों पर होने वाला ख़र्च ही GDP (सकल घरेलू उत्पाद) का ईंधन है। ख़र्च तीन तरह के होते हैं - सरकारी, कारोबारी और व्यक्तिगत। 

आर्थिक गतिविधियों के मूल्य का मतलब है - देश में उत्पादित कुल वस्तुओं और सेवाओं का बाज़ार भाव। इसे ही GDP कहते हैं। ज़ाहिर है, बीते वित्त वर्ष के मुक़ाबले मौजूदा वित्त वर्ष में देश की GDP बहुत कम रहेगी। इसी वजह से खेती, उद्योग और सेवा क्षेत्र, सभी में सकल मूल्य वर्धित यानी Gross Value Added (GVA) में गिरावट आएगी। GVA को आमदनी नापने का ज़रिया भी माना जाता है। ये GDP में से कुल करों को घटाकर प्राप्त होता है।

आमदनी गिरने से ख़र्च भी गिरेगा

GVA में गिरावट का सीधा मतलब है कि जनता की आमदनी का गिरना। आमदनी गिरने के तीन असर होंगे। पहला, हमारे-आपके जैसे लोग अपने ख़र्चों में भारी कटौती करेंगे। ख़ासतौर पर ऐसे ख़र्च जिनके बग़ैर हमारा काम चलता रहे। जैसे हम नई कार या घर ख़रीदने से परहेज़ करेंगे। सैर-सपाटा, पर्यटन और मनोरंजन जैसी चीज़ों पर ख़र्च करना या तो बन्द कर देंगे या बेहद कम कर देंगे। यहाँ तक कि हम खाने-कपड़े के ख़र्चों में भी कटौती करने लगेंगे।

माँग गिरेगी 

दूसरा, जनता के ख़र्चों में कटौती से अर्थव्यवस्था में सकल-माँग गिरेगी। माँग-पक्ष की गिरावट के चलते उद्योग-धन्धों में नया निवेश नहीं होगा। वे निवेश को टालते रहेंगे। माँग गिरने और निवेश के नहीं होने से बेरोज़गारी और बढ़ेगी। छँटनियाँ होंगी। मज़दूरी या आमदनी गिरेगी। ग़रीबी बढ़ेगी। अपराध बढ़ेंगे। अपराध बढ़ेंगे तो निवेशक और कतराएँगे। अन्ततः अर्थव्यवस्था और कमज़ोर होगी। यही कुचक्र, लोगों पर लगातार अपने ख़र्चों को और घटाने का दबाव बनाता रहेगा।

तीसरा असर यह होगा कि कमज़ोर होती अर्थव्यवस्था में सरकारी राजस्व भी गिरता जाएगा। सरकार के पास सामाजिक और औद्योगिक योजनाओं के लिए संसाधन घटते जाएँगे। उस पर राजस्व से अधिक ख़र्च करने का दबाव रहेगा। उसका वित्तीय घाटा यानी आमदनी और ख़र्च का अन्तर बढ़ेगा।

इस अन्तर को पाटने के लिए या तो सरकार टैक्स की दरें बढ़ाएगी या भारी कर्ज़ लेगी या फिर और रुपये छापकर अर्थव्यवस्था में डालने के लिए मज़बूर होगी। इससे महँगाई, टैक्स की चोरी और भ्रष्टाचार बढ़ेगा। बढ़ती महँगाई और घटती आमदनी से समाज का सबसे कमज़ोर तबका और तबाह होगा।

सरकारी ख़र्च ही सुपर पावर

अर्थव्यवस्था के चारों पहियों में सरकारी ख़र्च वाला पहिया सुपर पावर कहलाता है। क्योंकि यही पहिया तब भी पैसा ख़र्च कर सकता है, जब इसकी ख़ुद की जेब खाली हो। इसीलिए जितना पैसा सरकार ख़र्च करती है, उससे कहीं ज़्यादा उसका असर ज़मीन पर दिखाई देता है। मसलन, यदि सरकार एक लाख रुपये ख़र्च करेगी तो अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव इससे भी कहीं ज़्यादा होगा। 

लॉकडाउन से चरमराई अर्थव्यवस्था के लिए 21 लाख करोड़ रुपये के कुल एलान में से राहत पर ख़र्च हुई रकम महज 2 लाख करोड़ रुपये ही है। 130 करोड़ की आबादी के लिए ये रक़म प्रति व्यक्ति क़रीब 1,538 रुपये बैठती है। इसे पाँच-छह महीने के संकट काल में बाँटा जाए तो बात 300 रुपये महीना या रोज़ाना दस रुपये से ज़्यादा नहीं बैठेगी। 

2 लाख करोड़ रुपये का असली पैकेज़ बेहद मामूली है। GDP का महज एक प्रतिशत। इससे माँग-पक्ष में हिलने-डुलने लायक हरक़त भी नहीं हो सकती। मछली मारने वाले काँटे और उसकी डोरी से पानी में डूबे हाथी को नहीं निकाला जा सकता।

विकास दर में भारी गिरावट तय

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक फ़ाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफ़) और नेशनल काउन्सिल ऑफ़ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) का आकलन है कि मौजूदा दौर की वजह से अर्थव्यवस्था की GVA में इस साल 13% की भारी गिरावट दर्ज़ होगी। ये अनुमान इस आधार पर है यदि केन्द्र और राज्य सरकारें अपने वित्तीय घाटे को बजटीय दायरे में ही रखने के लिए अपने ख़र्चों को उतना कम कर दें जितना उनका राजस्व हो। 

इसका मतलब ये है कि यदि सरकारें वित्तीय घाटे की सीमाओं को तोड़कर अपना ख़र्च नहीं बढ़ाएँगी तो देश की GDP में 12.5% की गिरावट दर्ज़ होगी। इसी गिरावट को थामने के लिए सरकार से भारी ख़र्च वाले राहत पैकेज़ की अपेक्षा थी।

सरकारी ख़र्च को बढ़ाना बेहद ज़रूरी

इसी आकलन में बताया गया है, ‘यदि सरकार मौजूदा वित्त वर्ष के केन्द्रीय बजट की सारी रक़म के अलावा GDP का 3% और ख़र्च करके दिखा दे तो आर्थिक वृद्धि दर को धनात्मक क्षेत्र (positive territory) में रखा जा सकता है।’ इसका मतलब ये हुआ कि अर्थव्यवस्था सिकुड़ेगी ज़रूर, लेकिन यदि सरकारी ख़र्च खूब बढ़ा दिया जाए तभी विकास-दर को शून्य से नीचे जाकर ऋणात्मक बनने से रोका जा सकता है। 

ये भी दीगर बात है कि यदि सरकार अपनी आमदनी से कहीं अधिक ख़र्च करेगी तो वित्तीय घाटा बहुत तगड़ा हो जाएगा और महँगाई बहुत बढ़ जाएगी। लेकिन आर्थिक वृद्धि का ऋणात्मक होना तो इससे भी कहीं ज़्यादा भयंकर होगा। क्योंकि इसका मतलब होगा व्यापक पैमाने पर आर्थिक तबाही, बेरोज़गारी और यहाँ तक कि ग़रीबी और भुखमरी से होने वाली मौतें भी।

कर्ज़ और सुधारों का असर देर से दिखेगा

फ़िलहाल, कोई नहीं जानता कि मौजूदा वित्त वर्ष के समापन तक कुल कितनी रकम सरकार ख़र्च करने में सफल होगी लेकिन ज़्यादातर आर्थिक विशेषज्ञों का अनुमान है कि ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ के तहत जो 21 लाख करोड़ रुपये ख़र्च होने की पेशकश की गयी है, उसे भले ही GDP का 10% बताया गया, लेकिन इसमें से सरकारी ख़र्च तो GDP का सिर्फ़ एक फ़ीसदी ही है। बाक़ी, 19 लाख करोड़ रुपये की योजनाएँ या तो कर्ज़ हैं या प्रस्तावित आर्थिक सुधारों का अनुमानित मौद्रिक प्रभाव (Projected Monetary impact of proposed economic reforms)। 

अभी तो हमें ये भी नहीं पता कि अब तक 2 लाख करोड़ रुपये की जो राहत दी गयी है, वह मौजूदा बजटीय ख़र्चों के अलावा है या फिर इसे अन्य मदों के ख़र्चों में कटौती करके बनाया जाएगा।

रहा सवाल ये कि आख़िर 21 लाख करोड़ रुपये की जो घोषणाएँ हुई हैं, उसके लिए पैसा कहाँ से आएगा वित्त मंत्री बता चुकी हैं कि रुपये कर्ज़ से जुटाये जाएँगे। फिर भी इतना तो साफ़ दिख रहा है कि आत्म-निर्भर पैकेज़ का ज़मीनी फ़ायदा दिखने में महीनों ही नहीं बल्कि सालों लगेंगे।

फंड चाहे जितना बड़ा हो, उसके इस्तेमाल के बग़ैर कोई राहत नहीं मिलने वाली। घोषित पैकेज़ में सरकारी ख़र्चों का इरादा नदारद है। सरकार चाहती है कि ग़ैर-सरकारी क्षेत्र उससे कर्ज़ लेकर अर्थव्यवस्था में जान फूँके। ये रास्ता बहुत लम्बा वक़्त लेगा और जितना फ़ायदा पहुँचाएगा, उससे कहीं ज़्यादा नुकसान करवा देगा।

लॉकडाउन से पहले भी बैंकों को कर्ज़दार नहीं मिल रहे थे। अब तो और भी कठिन है डगर पनघट की। क्योंकि कर्ज़ पाना उतना मुश्किल नहीं होता, जितना उसे पाटने के लिए आमदनी का बेहतर होना ज़रूरी होता है। आमदनी हो तो माँग की भरपाई तस्करी से भी हो जाती है और नहीं हो तो कौड़ियों के मोल बिक रहे सामान को भी खरीदार नहीं मिलते। 

अर्थव्यवस्था में एक के ख़र्च से ही दूसरे की आमदनी पैदा होती है। इसीलिए इत्मिनान रखिए, अगले कई सालों तक ज़िन्दगी मुश्किलों भरी ही रहने वाली है। फ़िलहाल तो सरकार ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ के पैकेज़ की आड़ में आर्थिक सुधारों वाला ‘अच्छे दिन’ का सपना ही बेच रही है।

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