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बिहार के गाँवों में कोरोना का असर, क्या मनरेगा में मिल रहा है काम?

बिहार के गाँवों में कोरोना का असर, क्या मनरेगा में मिल रहा है काम?

लॉकडाउन की मार शहरों और गाँवों, दोनों पर पड़ी है। इसका असर कृषि कार्यों पर भी हुआ है और ग़ैर कृषि कार्यों पर भी। लाखों लोगों को इस वजह से बेरोज़गार होना पड़ा है। 

कोरोना महामारी और उससे जुड़ी समस्याओं पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस विश्व्यापी महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था पर कितना गहरा आघात किया है। विश्व के तमाम विकसित और विकासशील देश इससे हो रहे जान और माल के नुक़सान को समान रूप से झेल रहे हैं और इसका मुक़ाबला कर रहे हैं। 

भारत में 25 मार्च को पहले लॉकडाउन की शुरुआत हुई और अब सरकार ने कुछ रियायतों के साथ लॉकडाउन 4.0 की घोषणा कर दी है। लॉकडाउन के कारण बंद हुए काम-धंधों ने आम-जन को, चाहे वह शहरी हों या ग्रामीण, आर्थिक रूप से बहुत प्रभावित किया है। 

वापस लौट रहे मजदूर

काम-धंधों के बंद होने और रोजी-रोटी की समस्या के कारण हर रोज हज़ारों की संख्या में मजदूर शहरों से पलायन कर गाँवों में अपने घर वापस लौट रहे हैं। वापस लौट रहे मजदूरों के सामने रोज़गार और खाने की बड़ी दिक्कत है। 

गाँवों में किसान, श्रमिक/कामगार भी आर्थिक गतिविधियों के सुस्त पड़ जाने के कारण कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं।

बिहार के बैरिया गाँव का सर्वे

यह लेख एक प्राथमिक सर्वे द्वारा प्राप्त सूचना पर आधारित है। यह सर्वे बिहार के पश्चिमी चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया से लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित बैरिया गाँव में किया गया है। सर्वे में 30 गृहस्थों/व्यक्तियों से प्राप्त जानकारियों के आधार पर कृषि, गैर-कृषि और खाद्य सुरक्षा के ऊपर एक स्थितिजन्य विश्लेषण किया गया है। 

कृषि है आजीविका का साधन

2011 की जनगणना के अनुसार, बैरिया गाँव की आबादी 1,479 थी। गाँव की साक्षरता दर मात्र 47 प्रतिशत थी जो राष्ट्रीय औसत 74 और बिहार की साक्षरता दर 61.8 से काफी कम थी। विकास की दृष्टि से देखें तो पश्चिमी चंपारण जिला बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में आता है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि और इससे जुड़े काम करती है और यही यहां के लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन है। 

सर्वे से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि गाँव में 64.5% लोगों का मुख्य पेशा कृषि है पर उसके साथ ही वे अन्य कृषिगत और गैर-कृषिगत काम भी करते हैं। इनमें प्रमुख हैं - दूसरे के खेतों में मजदूरी, राजमिस्त्री और निर्माण कार्य श्रमिक, लोकल बाजार में खुद की दुकान चलाना या दूसरे की दुकान पर नौकरी करना, ठेले पर अंडे और चाय बेचना और हलवाई का काम इत्यादि। 

गाँव में 35.5% कामगार ऐसे हैं जो सिर्फ गैर-कृषि कार्यों में लगे हैं। इनमें प्रमुख हैं - शिक्षक, स्वास्थ्य कर्मचारी, निर्माण कार्य में लगे श्रमिक और फेरी वाले इत्यादि। 

कोरोना और लॉकडाउन के कारण गाँव में खेती से जुड़े कामों को छोड़कर अन्य सभी काम पिछले दो महीनों से बंद हो गये हैं। इस कारण चाहे वे खेती में लगे श्रमिक हों या गैर-कृषि कामों में लगे लोग, उनके सामने आजीविका का गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। 

लॉकडाउन का कृषि कार्यों पर असर

कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से कृषि कार्यों खासकर रबी की फसल (मुख्य रूप से गेहूं) की कटाई बाधित हुई। कटाई के लिए मजदूर मिलने में समस्या आयी जिससे कई किसानों को खुद ही कटाई करनी पड़ी। जो किसान गेहूं की कटाई के लिए कंबाइन हार्वेस्टर का प्रयोग करते हैं उनके लिए कटाई का काम और भी मुश्किल हो गया था क्योंकि मशीनें, उनके ड्राइवर और मैकेनिक बाहर से आते हैं और लॉकडाउन के कारण उन्हें पास मिलने में परेशानी हुई। 

एम.एस.पी से कम मिला दाम

गाँव के अधिकतर घरों में सिर्फ खुद के खाने के लिए ही अनाज पैदा होता है पर कुछ किसानों, जिनके पास खाने के अलावा भी अनाज था, उन्होंने उसे नजदीकी बाजार या स्थानीय व्यापारियों को बेच दिया। जिसके लिए उन्हें प्रति क्विंटल 1600 से 1700 रुपये ही मूल्य मिला जो कि एम.एस.पी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) से काफी कम है। एम.एस.पी 1925 रुपये प्रति क्विंटल है। 

गाँव के किसान प्रोक्योरमेंट केंद्र तक गेहूं बेचने इसलिए नहीं जाते क्योंकि उन्हें वहां तक जाने के लिए ढुलाई का खर्च वहन करना पड़ता है और किसानों के पास इतना सरप्लस नहीं होता कि इस खर्च को वहन कर सकें। अन्य कृषिगत समस्याओं में आंधी और बारिश के कारण भी फसलों को नुक़सान हुआ। 

बाजार, ढाबों, होटल आदि के बंद होने से दूध की मांग काफी कम हो गयी है। दूध से होने वाली आय लगभग ख़त्म होने से दूध उत्पादन में लगे किसानों को पशुओं के लिए चारा खरीदने में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

सब्जियां उगाने वाले किसानों को नुक़सान 

बीते कुछ हफ़्तों में हरी सब्जियों की क़ीमत में भारी गिरावट आयी है जिसके कारण गाँव में सब्जी उगाने वाले किसान नुक़सान उठा रहे हैं। ये किसान बताते हैं कि कोरोना और लॉकडाउन के कारण इस इलाक़े में सभी फंक्शन (शादियाँ इत्यादि) बंद हो गये हैं तथा साथ ही बाजार, ढाबों, होटल और रेस्तरां के बंद होने से सब्जियों की मांग कम हो गयी है। 

लॉकडाउन के कारण जो अनिश्चितता आयी है और काम-धंधे बंद होने से लोगों की आमदनी में आई कमी के कारण भी लोग सब्जियों पर कम खर्च कर रहे हैं, इस वजह से भी सब्जियों की मांग में कमी आई है। इस कारण सब्जी उगाने वाले किसानों को भारी नुक़सान हो रहा है। हरी सब्जियां या तो सड़ रही हैं या बहुत कम दाम पर बिक रही हैं।

गैर-कृषि कार्यों में लगे लोग बेरोज़गार 

गाँव में निर्माण कार्य लगभग बंद हैं जिससे इनमें काम करने वाले श्रमिक बेरोज़गार हो गये हैं। जो थोड़ा बहुत निर्माण कार्य चल रहा है, वह भी बिल्डिंग मैटेरियल की सप्लाई कम होने से प्रभावित हो रहा है। लोकल बाजार बंद होने से दुकानें बंद हैं। हालाँकि लॉकडाउन 4.0 में कुछ ढील मिलने से गाँव के लोगों का मानना है कि दुकानें खुलेंगी और इन दुकानों में काम करने वालों को राहत मिलेगी। सर्वे में लोगों ने माना कि गाँव में मनरेगा योजना के तहत इस लॉकडाउन में ग्रामीणों को कोई रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया गया है। 

कोरोना महामारी गाँव के लोगों के सामने न सिर्फ उनके स्वास्थ्य से संबंधित खतरे ले कर आयी है बल्कि उनके रोज़गार, आय और खाद्य सुरक्षा पर भी इसकी वजह से संकट छा गया है।

राशन की उपलब्धता 

हालाँकि गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के माध्यम से गेहूं और चावल की आपूर्ति की जाती है पर इसके तहत हर घर को राशन नहीं मिल पाता। गाँव की अपनी राजनीति, सामाजिक और आर्थिक हाइरार्की और सरकारी नियमों के कारण उन तमाम घरों को जिन्हें राशन मिलना चाहिए, वे इससे वंचित रह जाते हैं। 

जिनके पास राशन कार्ड हैं, उन्हें भी राशन के लिए फेयर प्राइस शॉप चलाने वाले ठेकेदारों की अक्सर मनमानी का सामना करना पड़ता है। सर्वे से यह भी पता चला कि गाँव में पिछली बार राशन अप्रैल में मिला था और मई में अभी तक राशन नहीं मिला है। 

क्वारन्टीन सेंटर बदहाल 

गाँव में प्राइमरी स्कूल को क्वारन्टीन सेंटर बनाया गया है। कुछ लोग जो बाहर से आये थे उन्हें वहां रखा गया पर वे अनिवार्य 14 दिन बिताये बिना ही अपने-अपने घरों को चले गये। इसका कारण इन सेंटरों पर खाने और रहने की सुविधाओं का घोर अभाव था। 

गाँव में न तो स्क्रीनिंग की कोई व्यवस्था है और न ही सरकारी पदाधिकारियों की तरफ से कोई जन जागरण अभियान चलाया गया है। जो लोग गाँव में बाहर से आ रहे हैं, उनके लिए भी रोज़गार और खाद्य सुरक्षा की समस्या बहुत बड़ी है। 

डॉ. भीम राव आंबेडकर कहा करते थे कि भारत के गाँव जाति व्यवस्था और सामंतवाद की प्रयोगशाला हैं। गाँव से जो लोग बाहर चले गए थे, वे आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत हो रहे थे, पर कोरोना और लॉकडाउन के कारण फिर उन्हें गाँव वापस आना पड़ा और एक छोटे वक्त के लिए ही सही, उन्हें गाँव में मजदूरी या कोई और काम शुरू करना पड़ेगा। सवाल यह है कि क्या इतनी संख्या में मजदूरों का वापस आना फिर से उन्हें उसी सामाजिक शोषण, जातिवाद और उससे जुड़ी वस्तुस्थितियों में नहीं ले जायेगा 

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