मोदी सरकार में सबसे निचले स्तर पर पहुंचा उपभोक्ता का भरोसा: आरबीआई
आर्थिक मोर्चे पर एक के बाद एक आ रही निराशाजनक ख़बरों के बाद रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया की ओर से शुक्रवार को जारी की गई मौद्रिक नीति की रिपोर्ट से मोदी सरकार की मुश्किलें बढ़ना तय है। रिपोर्ट के मुताबिक़, सितंबर 2019 में उपभोक्ताओं का भरोसा मोदी सरकार पर पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। रिपोर्ट के मुताबिक़, सितंबर 2019 में वर्तमान स्थिति सूचकांक 89.4 तक पहुंच गया है और यह मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में सबसे कम है।
देश में बेरोज़गारी और ख़राब आर्थिक हालात को मानने से इनकार करती रही केंद्र सरकार क्या आरबीआई की इस रिपोर्ट को भी नहीं मानेगी। यह ताज़ा ख़बर है कि भारतीय रिज़र्व बैंक ने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वृद्धि दर में कटौती कर इसे 6.9 प्रतिशत से कम कर 6.1 प्रतिशत कर दिया है।
इसी हफ़्ते यह ख़बर आई है कि सितंबर के जीएसटी कलेक्शन के आंकड़ों में गिरावट आई है और यह 19 महीने में सबसे बड़ी गिरावट है और यह भी ख़बर आई थी कि अगस्त महीने में 8 कोर सेक्टर की विकास दर में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि 5 कोर सेक्टर में निगेटिव ग्रोथ हुई है। ये क्षेत्र हैं - बिजली, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, कोयला और सीमेंट। इससे यह साफ़ है कि अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है। इन 8 कोर सेक्टर की देश के कुल औद्योगिक उत्पादन में लगभग 40 फ़ीसदी की हिस्सेदारी होती है।
आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि आरबीआई की ओर से उपभोक्ता विश्वास सर्वे के तहत देश के बड़े शहरों के लगभग 5,000 उपभोक्ताओं की राय ली गई थी। इस सर्वेक्षण में पांच आर्थिक मुद्दों पर उपभोक्ताओं की सोच या धारणा को मापा जाता है। ये हैं - आर्थिक हालत, रोज़गार, मूल्य स्तर, आमदनी और ख़र्च।
उपभोक्ता विश्वास सर्वे में मुख्य रूप से दो सूचकांक होते हैं। वर्तमान स्थिति सूचकांक और भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक। वर्तमान स्थिति के सूचकांक को पिछले एक साल में उपभोक्ता द्वारा अनुभव किये गए आर्थिक हालात से मापा जाता है जबकि भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक आने वाले एक साल में आर्थिक हालात पर उपभोक्ताओं की राय से तैयार होता है।
आरबीआई का सर्वे बताता है कि मौजूदा हालत और भविष्य, दोनों को ही लेकर उपभोक्ताओं में असंतोष है और उन्हें सरकार से कोई ज़्यादा उम्मीद नहीं है। क्योंकि उपभोक्ता विश्वास का सूचकांक जब 100 से ऊपर होता है तब उपभोक्ता आशावादी होते हैं और 100 से नीचे होने पर निराशावादी।
रिपोर्ट के मुताबिक़, सितंबर 2013 में यह सूचकांक 88 अंक तक गिर गया था लेकिन सितंबर 2014 में उपभोक्ता विश्वास का सूचकांक 103.1 तक पहुंच गया था और दिसंबर, 2016 तक यह आशावादी बना रहा और 102 अंकों के आसपास रहा। लेकिन, केंद्र सरकार के नवंबर 2016 में नोटबंदी के फ़ैसले के बाद यह नीचे आने लगा लगभग ढाई साल तक (30 महीने तक) यह निराशावादी स्थिति (100 अंकों से नीचे) में ही बना रहा और लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इस स्थिति से बाहर आया।
रिपोर्ट के मुताबिक़, मार्च 2019 में यह 104.6 पर पहुंचा और दिसंबर 2016 के बाद यह पहला मौक़ा था जब इसने 100 अंकों के स्तर को पार किया लेकिन यह कुछ ही समय तक रहा और लोकसभा चुनावों के दौरान ही यह फिर से गिरना शुरू हो गया। रिपोर्ट कहती है कि मई 2019 में यह 97.3 जबकि जुलाई में 95.7 अंकों तक पहुंच गया और सितंबर में तो यह नोटबंदी के बाद से अब तक के सबसे निचले स्तर तक पहुंच गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, भविष्यकालीन अपेक्षाओं का सूचकांक जुलाई 2019 में 124.8 था जो सितंबर में हुए सर्वेक्षण में 118 तक पहुंच गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि रिजर्व बैंक के मई, जुलाई और सितंबर के सर्वे के दौरान उपभोक्ताओं का विश्वास लगातार कम होता गया और यह आर्थिक हालात और रोज़गार के गिरते स्तर के कारण हुआ।
रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि नोटबंदी के फ़ैसले के लगभग ढाई साल बाद तक उपभोक्ता विश्वास सूचकांक निराशावादी स्थिति में रहा। इसका मतलब है कि नोटबंदी से लोगों को परेशानी हुई। जबकि सरकार ऐसा मानने से इनकार करती रही।
उपभोक्ताओं का सरकार से विश्वास गिरना और वह भी इतने लंबे समय तक, बेहद ख़राब संकेत है। केंद्र सरकार को आरबीआई की इस रिपोर्ट के आने के बाद ऐसे ठोस क़दम उठाने चाहिए जिससे यह निराशा का माहौल समाप्त हो क्योंकि पिछले काफ़ी समय से ऑटो इंडस्ट्री की ख़राब हालत, कई कंपनियों में उत्पादन कम होना, लोगों की नौकरियां जाना, जीडीपी का 5 फ़ीसद पर पहुंच जाना जैसी ख़बरों से अर्थव्यवस्था की हालत डांवाडोल है और ख़ुद नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार कह चुके हैं कि पिछले 70 सालों में उन्होंने नक़दी का ऐसा भयंकर संकट पहले कभी नहीं देखा। देश भर के दिग्गज उद्योगपति स्वीकार कर चुके हैं और चेता चुके हैं कि आर्थिक मोर्चे पर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं लेकिन लगता है कि सरकार की ओर से उठाये गये तमाम क़दम नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं।