क्या राहुल गांधी की निडरता से डरती है बीजेपी?
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी.एन. कृष्णा ने एक अंग्रेजी अखबार के साथ अपनी बातचीत में कहा कि “आज हालात बहुत ख़राब हैं। मुझे स्वीकार करना होगा कि, अगर मैं एक सार्वजनिक चौक में खड़ा होता और कहता कि मुझे प्रधानमंत्री का चेहरा पसंद नहीं है, तो कोई मेरे घर पर छापा मार सकता है, मुझे गिरफ्तार कर सकता है, और मुझे बिना कोई कारण बताए जेल में डाल सकता है। यह एक ऐसी चीज है जिसका नागरिकों के रूप में हम सभी को विरोध करना चाहिए।”
2022 के भारत को लेकर यह चिंता किसी सामान्य आदमी की नहीं है। यह चिंता है एक ऐसे व्यक्ति की जिसने 16 वर्षों तक देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों व भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है। सोचने की बात यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपनी ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को लेकर चिंतित है और संभवतया भय में भी है तो आम नागरिकों, समाज सेवियों और विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं के भय की कल्पना सहज ही की जा सकती है। देश में सरकारी नीतियों के खिलाफ लिखना तो जारी है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अनिश्चित स्थिति डराने वाली है। बहुत से लोग लिख रहे हैं और बहुत से लोगों को लिखने से रोक दिया गया है। बहुत से लोग बोल रहे हैं, साथ ही बहुतों को बोलने से रोक दिया गया है। यह अनिश्चितता है, और यही डराने वाली है। जिस तरह लोकतंत्र के टूल्स का इस्तेमाल करके भयतंत्र का प्रोटोटाइप तैयार किया जा रहा है, यह डराने वाला है।
प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक अग्रणी चेहरा है। इस चेहरे में पड़ने वाली झुर्रियों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अंदाजा लगाया जा सकता है। 2022 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों के मुकाबले 150वें स्थान पर था। 140 करोड़ की आबादी वाले देश के मीडिया की यह हालत, यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत में कुछ ऐसा तोड़ा जा रहा है जिसे वर्षों तक ठीक नहीं किया जा सकेगा। इन आंकड़ों की पुष्टि के लिए ‘बिहाइन्ड बार्स: अरेस्ट एण्ड डेटेन्शन ऑफ जर्नलिस्ट्स इन इंडिया-2010-2020’ रिपोर्ट को पढ़ना चाहिए। इस रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2020 के बीच 154 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। इनमें से 40% मामले अकेले वर्ष 2020 से ही संबंधित हैं। अर्थात 9 सालों में 60% मामले और एक ही साल में 40% मामले।
आँकड़े साफ कर रहे हैं कि एक सर्वोच्च न्यायालय में रह चुका न्यायाधीश सरकार की आलोचना करने से डर रहा है और पत्रकार खुलकर अपनी बातें कहने के लिए जेलों में डाले जा रहे हैं। दुनिया में ऐसा कोई सम्मानित लोकतान्त्रिक राष्ट्र नहीं जिसके राजनैतिक प्रधान ने आधिकारिक रूप से अपने देश के सबसे बड़े विपक्षी दल अर्थात सबसे बड़े लोकतान्त्रिक प्रतिद्वंद्वी को समाप्त करने का अभियान चलाया हो। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस देश के और दुनिया के संभवतया पहले ऐसे नेता हैं जिन्होंने यह लोकतंत्र विरोधी कारनामा कर दिखाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार अपने भाषणों में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात करते रहे हैं। दंडवत पड़ा मुख्यधारा का मीडिया इस कवायद में कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रहा है।
केंद्र सरकार की डोर से बंधी ईडी व सीबीआई जैसी एजेंसियाँ देश की लगभग हर विपक्षी पार्टी के किसी न किसी बड़े नेता को भ्रष्टाचारी साबित करने में जी जान से जुटी हैं। विपक्ष के लिए केंद्र सरकार का यह ‘प्रेम’ तब और दिलचस्प हो जाता है जब संसद में प्रधानमंत्री जी देश में ‘विपक्ष की आवश्यकता’ पर बल देते हुए सुनाई पड़ते हैं।
विपक्षी नेताओं की गिरफ़्तारी और विपक्ष की आवश्यकता जैसे विरोधाभाषों से एक निश्चित निहितार्थ निकालने में मदद मिल सकती है। वह यह कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार एक ऐसे विपक्ष को संसद और विधानसभाओं में बिठाना चाहती है जिसमें ‘भय’ और ‘लोकतंत्र’ दोनों के प्रति समान आस्था हो।
सरकार ऐसे गैर भाजपाई पार्टियों को खड़ा करना चाह रही है जो शरीर से विपक्षी हों लेकिन आत्मा से भाजपाई। ऐसी कोशिश की जा रही है कि ‘भय और लालच’ का ऐसा अद्वितीय काक्टैल बनाया जाए जिससे विपक्ष का शोर तो सुनाई दे लेकिन वैचारिक प्रतिरोध को जगह न मिलने पाए। लगभग यही प्रयोग भारतीय लोकतंत्र के हर खंभे के साथ किया जा रहा है।
कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जो वैचारिक आधार पर कभी भी भाजपा का समर्थन नहीं कर सकती। वर्षों और दशकों तक भाजपा के सत्ता में बने रहने के लिए मात्र एक रोड़ा, कांग्रेस पार्टी ही है। और वर्तमान में कांग्रेस का मतलब राहुल गांधी समेत सम्पूर्ण गांधी परिवार है। इसलिए भाजपा हर वो कोशिश कर रही है, हर वो टूल और संसाधन इस्तेमाल कर रही है जिससे राहुल गांधी और कांग्रेस को लगातार कमजोर किया जा सके। यह लड़ाई एक से अधिक मोर्चों पर लड़ी जा रही है।
पहला मोर्चा है जवाहरलाल नेहरू से लेकर प्रत्येक गांधी-नेहरू परिवार के सदस्य का चारित्रहनन करना। भाजपा निश्चित रूप से यह जानती है कि देश के निर्माण में जो योगदान जवाहरलाल नेहरू का है उसे भाजपा चाहकर भी कभी प्राप्त नहीं कर पाएगी। जिस नेहरू ने विकास की एक एक ईंट को स्वयं इस देश की नींव में रखा और यह ध्यान रखा कि ईंट को मजबूती प्रदान करने वाला मसाला आवश्यक रूप से लोकतान्त्रिक ही हो, वह नेहरू आज भाजपा के सर्वोच्च नेताओं से लेकर निचले कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार अपमानित किए जा रहे हैं। जिस परिवार ने देश के लिए अपनी जान दे दी उन्हें प्रतिदिन अपमानित किया जा रहा है। भले ही अटल बिहारी वाजपेयी नेहरू की शख्सियत को मान गए हों लेकिन आज की भाजपा के लिए नेहरू-गांधी परिवार का अपमान ‘सर्वाइवल’ का टूल है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जो अपने ‘फाउंडिंग फादर्स’ को अपमानित करे लेकिन भारत में यह अनवरत जारी है। जिस देश के नागरिक अपने ही देश के निर्माताओं को नकार दें क्या उसे सभ्य कहा जा सकता है? दुनिया के कितने देशों में ऐसा हुआ है? शायद किसी में नहीं।
दूसरा मोर्चा है कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेस के ही लोगों को तैयार करना। ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर गुलामनबी आजाद तक की 'कांग्रेस छोड़ो यात्रा' कांग्रेस का कांग्रेस में विश्वास तोड़ने के लिए तैयार किया गया सत्ताधारी मॉडल है। कोई बहुत आसानी से पूछ सकता है कि किसी कांग्रेसी द्वारा कांग्रेस छोड़ने को लेकर भाजपा को क्यों जिम्मेदार माना जाए, कांग्रेस को क्यों नहीं? इसका उत्तर प्रश्न में छिपा हुआ है। बस इतनी पड़ताल कर ली जाए कि कांग्रेस छोड़ते समय किसी नेता के पास कितनी राजनैतिक शक्ति थी और कांग्रेस छोड़ने के बाद कितनी? ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़ने के बाद केन्द्रीय मंत्री का पद मिला, ईडी, सीबीआई से छूट मिली और साथ ही सत्ता के अन्य लाभ भी मिलते ही जा रहे हैं जोकि कांग्रेस के साथ संभव नहीं था। ग़ुलामनबी आजाद जिन्हें कांग्रेस ने फिर से राज्यसभा न भेजने का फैसला किया वहीं बीजेपी ने उन्हें पद्मभूषण दिया, दिल्ली का सरकारी बंगला भी बचा रह गया, और आगे भी लगातार यह क्रम जारी रह सकता है यह सब कांग्रेस में संभव नहीं था। यह सिर्फ सत्ताधारी दल ही कर सकता था वह भी लालच व भय के काक्टैल द्वारा।
तीसरा मोर्चा है संचार के माध्यमों में प्रभाव स्थापित कर कांग्रेस के कार्यकलापों को या तो जनता तक जाने से रोकना या फिर गलत तरीके से कांग्रेस को जनता के सामने पेश करना। इनमें से वह तरीका इस्तेमाल किया जाता है जिसमें कांग्रेस का सर्वाधिक नुकसान हो। विभिन्न टीवी चैनलों की बहसों को देखिए और उसके प्रतिभागियों के पैनल पर गौर कीजिए। एंकर समेत आधे से अधिक प्रतिभागी सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस से ही सवाल पूछते नजर आएंगे। और राहुल व सोनिया गांधी पर व्यक्तिगत हमलों की प्रक्रिया उचित डोज के साथ जारी रहती है।
चौथा मोर्चा है, बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना जिन्हें इस ऐतिहासिक रूप से विपरीत समय में जब स्वयं पूरे लोकतंत्र को खतरा है, इन बुद्धिजीवियों को निष्पक्षता का नशा प्रदान किया जाना। सत्ताधारी दल द्वारा इन बुद्धिजीवियों से यह आशा नहीं की जाती कि वह भाजपा का समर्थन करेंगे लेकिन यह आशा जरूर की जाती है कि वह कांग्रेस का विरोध अवश्य करेंगे और अगर संभव हो तो किसी नए ‘विकल्प’ की भी बात जरूर करें खासकर ऐसे विकल्प की जिसमें कांग्रेस न हो और अगर हो भी तो किसी भी तरह लीड न करने पाए।
पाँचवाँ महत्वपूर्ण मोर्चा है ऐसे किसी राजनैतिक दल को ‘कैल्क्युलेटेड समर्थन’ प्रदान करना जो स्वयं तो कभी विकल्प न बन सके लेकिन कांग्रेस को जरूर लगातार नुकसान पहुँचाती रहे। अरविन्द केजरीवाल ऐसे ही एक दल के मुखिया हैं। यह जानते हुए भी कि वह आने वाले 20 सालों में भी कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पाएंगे, केजरीवाल को लगातार विकल्प बनने का सपना कुछ पत्रकारों और भाजपा द्वारा दिखाया जा रहा है। वो तेजी से राष्ट्रीय पार्टी बनने की राह पर हैं लेकिन भारत के लगभग 7 लाख गाँव में पहुँच बनाना यदि उन्हें आसान लग रहा है तो उन्हें 2014 के चुनावों की मदद लेनी चाहिए जब उन्हें लगने लगा था कि उनकी पार्टी की लहर इतनी जबरदस्त है कि वो लड़खड़ाती हुई कांग्रेस का विकल्प बन जाएंगे। लेकिन इतिहास बता रहा है कि वो औंधे मुँह गिर गए थे।
छठा मोर्चा है कांग्रेस के मनोबल को लगातार तोड़ते रहना। यह साबित करने की कोशिश करना कि भले ही जनता कांग्रेस को चुनकर किसी राज्य में सरकार बना देती है लेकिन किसी भी हालत में ऐसी किसी भी राज्य सरकार को चलने नहीं दिया जाएगा जहां किसी भी रूप में कांग्रेस शामिल हो।
मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और अब झारखंड में की जा रही कोशिशें तो कम से कम यही बताती हैं। यदि लोकतंत्र की मौत को सम्मानित शब्दों में व्यक्त करना हो तो उसे ‘ऑपरेशन लोटस’ बोला जा सकता है।
राहुल गांधी आज की राजनीति के सबसे बड़े केंद्र हैं। यह बात भाजपा को अच्छे से समझ आ चुकी है कि राहुल गांधी पर लगातार और कई दिशाओं से किए जाने वाले हमले ही उन्हें कांग्रेस से लड़ने में मदद कर सकते हैं। नेहरू के बाद जिस नेहरू -गांधी परिवार के व्यक्ति से सबसे ज्यादा दिक्कत भाजपा को है वह हैं राहुल गांधी। सभी मोर्चों से जो लड़ाई कांग्रेस के खिलाफ लड़ी जा रही है उसका केंद्र हैं राहुल गांधी। भाजपा मन ही मन हँसती होगी कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक्षशिला और नालंदा में भेद नहीं कर पाते (कक्षा 6 एनसीईआरटी), सिकंदर को मगध तक ले आते हैं (कक्षा 6 एनसीईआरटी), नालियों से खाना बनाने वाली गैस बना डालते हैं, और फाइटर जेट्स को बादल में छिपा सकते हैं, तब पप्पू तो प्रधानमंत्री जी को होना चाहिए न कि राहुल गांधी को। लेकिन मुद्दा राहुल गांधी को पप्पू बनाने का नहीं बल्कि उनकी क्षमताओं, नैतिकता और मूल्यों से लड़ने का है जिनके बीज भारत के स्वाधीनता संग्राम से संबंधित हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस बीच जितने भी बड़े कांग्रेसियों ने कांग्रेस छोड़ी उन्हें सारा दोष सिर्फ राहुल गांधी में ही दिखा। मेनस्ट्रीम मीडिया भी राहुल गांधी की छवि को बिगाड़ने में बहुत मेहनत मजदूरी कर रहा है। और अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता समय समय पर राहुल गांधी का मजाक बनाने से नहीं चूकते। यह सब सामान्य नहीं है बल्कि एक ‘लार्जर प्लान’ का हिस्सा है। जरा सोचिए, जो केजरीवाल दिल्ली की सरकार को गिराने की कोशिश करने के लिए नरेंद्र मोदी और भाजपा को दोषी ठहरा रहे हैं, जिनके उपमुख्यमंत्री के यहाँ सीबीआई के तथाकथित छापे पड़े, वो केजरीवाल बजाय नरेंद्र मोदी और भाजपा से लड़ने के अपनी लड़ाई कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ लड़ रहे हैं। 4 महीने पहले से कांग्रेस, भाजपा की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए ‘भारत-जोड़ो’ यात्रा की तैयारी कर रही है। यह जानते हुए भी कि आज का वक्त विपक्षी एकता को मजबूत करने का है ताकि देश में लोकतंत्र भयतंत्र के रूप में न स्थापित हो जाए, यह जानते हुए भी कि उनकी इस यात्रा से हो सकता है कांग्रेस को नुक़सान पहुंचे, यह जानते हुए भी कि यह यात्रा कर लेने के बाद भी केजरीवाल की आम आदमी पार्टी विपक्ष की धुरी और कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पाएगी, 7 सितंबर को शुरू होने वाली कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के दिन ही ‘इत्तेफाक से’ केजरीवाल जी ने भारत को नंबर एक बनाने की यात्रा शुरू करने का फैसला किया है।
‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के माध्यम से कांग्रेस को स्वयं प्रधानमंत्री समाप्त करना चाहते हैं। इसके लिए जरूरी है राहुल गांधी को कमजोर किया जाना। वो राहुल गांधी जो लगातार बिना डरे आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ मुखर होकर बोल रहे हैं।
भारत-जोड़ो यात्रा की सफलता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुर्सी और आरएसएस के अरमानों पर पानी फेर सकती है। इसलिए एक बार फिर एक ऐसे व्यक्ति को कांग्रेस के सामने लाया गया है जिसने 2011 के अन्ना आंदोलन के पहले दिन से झूठ के सिवाय कुछ नहीं बोला। जिस नींव (जनलोकपाल की मांग) पर यह आंदोलन खड़ा था, केजरीवाल ने उस नींव को ही गिरा दिया। दिल्ली का लोकयुक्त देश के सबसे कमजोर लोकयुक्तों में से एक है। आंदोलन की आड़ में बनाई गई उनकी अपनी पार्टी में लोकतंत्र नदारद है। मैंने तो कभी ‘आप’ में संचालक/अध्यक्ष का चुनाव होते नहीं सुना। लगातार केजरीवाल ही पार्टी में वो सबकुछ हैं जिससे पार्टी के वो फैसले हो सकें जो केजरीवाल चाहते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य पर किए गए कार्यों से ही ‘भारत को नंबर एक’ देश नहीं बनाया जा सकता। देश नंबर एक तब बनेगा जब यहाँ नेता और राजनैतिक दल समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे मूल्यों के लिए अपनी सत्ता जाने से न डरें। अगर कोई दल या नेता इन मूल्यों के लिए आवाज न उठा सका तो यह मानना चाहिए कि उसकी 24*7 मोड की राजनीति हुनर नहीं बल्कि एक बीमारी है। मूल्यों के लिए राजनीति में आने का दावा करने वाले केजरीवाल इतने ज्यादा ‘प्रैक्टिकल’ हो गए कि न उन्हें ‘शाहीन बाग’ और दिल्ली दंगा दिखा और न ही बिलकिस बानो। केजरीवाल को मुस्लिम परस्त और हिन्दू विरोधी दिखने से ज्यादा डर लगा क्योंकि इससे उनकी सत्ता/कुर्सी चली जाती, यही वो डर है जो आरएसएस और भाजपा को सूट करता है। लेकिन राहुल गांधी को यह डर छूकर भी नहीं गया। राहुल गांधी की यही निडरता और राजनीति व सत्ता की प्राप्ति में मूल्य आधारित भेद कर पाने की उनकी क्षमता उन्हें वो बनाती है जिससे वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान को भय लगता है।