भारत सरकार के लिए चुनौती है कि वह यह बताए कि 2017 में इजराइल के साथ हुए रक्षा सौदे में पेगासस शामिल नहीं था। न्यूयॉर्क टाइम्स के ताजा खुलासे के बाद अगर मोदी सरकार ऐसा कर पाती है तो पेगासस मुद्दे में जो राजनीतिक विस्फोट करने की ऊर्जा है वह निष्क्रिय हो जा सकती है अन्यथा यह मुद्दा राष्ट्रीय चिंता का सबब बनने जा रहा है। पेगासस मुद्दे पर मोदी सरकार पर आक्रामक होते हुए राहुल गांधी ने कहा है कि मोदी सरकार ने देशद्रोह किया है।
राष्ट्रवादी पार्टी और राष्ट्रवादी सरकार होने का दावा करने वाली बीजेपी पर पहली बार देशद्रोह का आरोप चस्पां हुआ है। मगर, इस आरोप पर जनता कितना विश्वास करती है यह इस बात पर निर्भर करने वाला है कि कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी इस मुद्दे पर न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अलावा सुप्रीम कोर्ट में कितनी मज़बूती से लड़ाई को आगे बढ़ा पाते हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स में ताजा खुलासे से पहले भी पेगासस कोई कम गंभीर मसला नहीं था। किसान आंदोलन के बजाए पेगासस को प्राथमिकता में रखकर कांग्रेस ने भले ही बौद्धिक बहस को नहीं जीता हो, लेकिन कोई गलती की हो- यह भी स्थापित नहीं होता। मगर, यह मुद्दा आम जन में मोदी सरकार के लिए कोई आक्रोश पैदा कर गया हो, ऐसा भी नहीं था।आखिर क्यों? और, क्या अब ऐसा हो सकेगा?
क्या है पेगासस डील के मायने?
2 अरब डॉलर की डिफेंस डील में पेगासस भी शामिल था- इसके मायने समझने भी होंगे और आम जनता को समझाने भी होंगे।
- सेना के हिस्से की डिफेंस डील में पेगासस को जोड़कर रक्षा बजट का दुरुपयोग किया गया है।
- रक्षा बजट का इस्तेमाल लोकतंत्र की प्राथमिक संस्थाओं, नेताओं और जनता की जासूसी के लिए किया गया है।
- सत्ता पक्ष विपक्ष सेना, न्यायपालिका सब पर निगरानी रखी गयी और उन्हें निशाना भी बनाया गया।
- सेना और सैन्य खर्च का दुरुपयोग लोकतंत्र के ढांचे को कमजोर करने में किया गया।
आम जनता को समझाना यह भी होगा कि आखिर संसद से छिपा कर कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने ही देश के लोगों, संस्थाओं और विपक्षी दलों की जासूसी कैसे करा सकती है! इसकी क्या जरूरत थी? क्या वह जरूरत पूरी हुई? और, क्या वह जरूरत देश की जरूरत थी?
सरकार का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस मामले को सुनवाई के लिए स्वीकार किया तो उसके पीछे सबसे बड़ा आधार यही था कि केंद्र सरकार पेगासस के ज़रिए जासूसी की बात को लिखित रूप में नकार नहीं सकी थी। अब सुप्रीम कोर्ट में अभियोजन पक्ष के सामने उन सवालों के जवाब मांगने का भी अवसर होगा जो न्यूयॉर्क टाइम्स के खुलासे के बाद पैदा हुए हैं।
निश्चित रूप से पेगासक के मामले में केंद्र सरकार जितना मुंह खोलेगी, उतना अधिक वह फंसती चली जाएगी।
पेगासस ऐसा स्पाईवेयर है जो किसी के मोबाइल में प्रवेश कर जाता है और मोबाइल फोन, वाट्सएप आदि पर निगरानी रखता है। टेक्स्ट, ऑडियो, विजुअल सबकुछ पेगासस अपनी मेमोरी में ले लेता है और उसे हस्तांतरित कर लेता है। इसके जरिए उस व्यक्ति की पूरी निगरानी हो पाती है जिसके मोबाइल में पेगासस नामक स्पाइवेयर फिट किया जाता है। भारत में जिन लोगों के मोबाइल में यह स्पाईवेयर फिट किया गया था उनमें बीजेपी के मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जज, वकील, विरोधी दलों के नेता, स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोग शामिल रहे थे।
देशद्रोह के आरोप का जवाब देना होगा
अब तक बीजेपी आरोप लगाती रही थी कि कांग्रेस देशद्रोही पार्टी है। वह कांग्रेस को पाकिस्तान समर्थक, चीन समर्थक और भारतीय सेना का विरोधी बताकर हमले करती रही थी। चूंकि बीजेपी सत्ता में है लेकिन वह कांग्रेस के खिलाफ आरोप से आगे बढ़ नहीं सकी इसलिए बौद्धिक जगत में बीजेपी के आरोपों को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। हालांकि राजनीतिक रूप से जनता के बीच कांग्रेस विरोधी समझ मजबूत करने में कामयाब रही है। मगर, पेगासस मुद्दे ने कांग्रेस को ऐसा हथियार दिया है जिसमें वह बीजेपी के राष्ट्रवादी दंभ पर वह पलीता लगा सके। लेकिन, कांग्रेस क्या ऐसा कर पाएगी?
कांग्रेस का विरोध जमीन के स्तर पर आए तो असर सत्ताधारी दल पर पड़ेगा। मगर, कांग्रेस में इस मुद्दे पर आंदोलन खड़ा करने की क्षमता नहीं रह गयी है। ऐसे में वह क्या करे? निश्चित रूप से कांग्रेस को पेगासस के मुद्दे पर विपक्षी दलों की बैठक बुलानी चाहिए और इस मुद्दे पर आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए। तभी इस मुद्दे की स्वीकार्यता बढ़ेगी। फिलहाल कांग्रेस ऐसा करती नहीं दिख रही है। वह अकेले विपक्ष के धर्म का निर्वाह कर रही है।
सवाल उठाने की जिम्मेदारी सिर्फ कांग्रेस की नहीं
सवाल यह भी महत्वपूर्ण है कि पेगासस के जरिए अपने ही देश के लोगों की जासूसी कराने को लेकर सवाल उठाने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ कांग्रेस की है? क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां और दूसरे दलों को क्यों नहीं उतनी ही गंभीरता से अपनी-अपनी प्रतिक्रियाओं के साथ सामने आना चाहिए? क्या पेगासस ने क्षेत्रीय दलों पर असर नहीं डाला है? अगर देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां पेगासस पर एकजुट विरोध के तेवर के साथ सामने आए तो राजनीतिक विरोध की वर्तमान स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट ने यह अवसर दिया है।
देश के संवैधानिक संस्थाओं और मीडिया के लिए भी यह अवसर है जब वे पेगासस के ज़रिए जासूसी को लोकतंत्र विरोधी और नागरिक स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देखें।
अदालत इस मसले पर सबका नेतृत्व कर सकती है। संवैधानिक रूप से सही और गलत की व्याख्या का बेहतरीन मंच अदालत ही है। सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख अपनाने के बाद ही केंद्र सरकार ने लिखित रूप से जवाब दाखिल किया था। मगर, रक्षा-सुरक्षा के नाम पर केंद्र सरकार ने अपना बचाव किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी हैरानी और नाराज़गी जताई थी।
अमेरिका ने मना किया, भारत ने क्यों नहीं?
अमेरिका ने पेगासस का ट्रायल तो किया लेकिन उसे अपनी जनता के खिलाफ इस्तेमाल करने से मना कर दिया। भारत अगर ऐसा नहीं कर सका तो इसके पीछे क्या कारण थे? ईरान और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंध में बदलाव का आधार ही अगर यह पेगासस डील थी तो यह भी गंभीर मसला है। भारत ने अगर यूएन में फिलीस्तीन के खिलाफ पहली बार वोट किया था और उसकी वजह भी पेगासस डील थी, तो यह बात भी हैरान और परेशान करने वाली है।