मोदी के ख़िलाफ़ प्रियंका को उतारने पर कभी गंभीर थी कांग्रेस?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शुक्रवार को वाराणसी से पर्चा दाखिल करने के एक दिन पहले ही कांग्रेस ने अजय राय को वहाँ से अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। इससे यह साफ़ हो गया कि मुक़ाबला अब मोदी और राय के बीच होगा। इसके साथ ही इस अटकल पर पूर्ण विराम लग गया कि मोदी को रोकने के लिए वाराणसी से ख़ुद प्रियंका गाँधी मैदान में उतर रही हैं।
शुक्रवार को कांग्रेस की ओर से सैम पित्रोदा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर यह साफ़ कह दिया कि प्रियंका गाँधी वाराणसी से चुनाव नही लड़ेंगी। उन्होंने कहा, ‘यह प्रियंका का निजी फ़ैसला है, उनकी कुछ दूसरी ज़िम्मेदारियाँ भी हैं। उन्होंने सोचा कि एक सीट पर केंद्रित होने के बजाय हाथ में जो काम है, उस पर ध्यान दिया जाए।’
Sam Pitroda, Indian Overseas Congress Chief: It (not contesting from Varanasi) was Priyanka ji's decision, she has other responsibilities. She thought rather than concentrating on one seat she should focus on the job she has at hand. So, that decision was her and she decided it. pic.twitter.com/65hTQurplT
— ANI (@ANI) April 26, 2019
प्रतीकात्मक लड़ाई
अजय राय के वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा से यह भी साफ़ हो गया कि कांग्रेस ने मोदी के लिए एक तरह से मैदान खाली छोड़ दिया है और अजय राय सिर्फ सांकेतिक रूप से विरोध कर रहे हैं। पिछली बार उन्हें सिर्फ 75,000 वोट मिले थे और वे तीसरे नंबर पर आए थे। उनसे दुगना वोट तो आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ले गए थे। केजरीवाल की लड़ाई भी प्रतीकात्मक ही थी। वह भी सिर्फ इसलिए मैदान में उतरे थे कि वह कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को एक समान कहते थे और दोनों पर समान रूप से हमले कर रहे थे।
दरअसल, पर्यवेक्षकों का कहना है कि मोदी को चुनौती देने के लिए प्रियंका को उतारने को लेकर कांग्रेस कभी भी गंभीर नहीं थी। पार्टी ने इस पर न सोचा था, न ही कोई होम वर्क किया था। ज़मीनी स्तर पर तो कोई तैयारी नहीं ही थी।
वाराणसी में पार्टी का ऐसा जनाधार भी नहीं है कि प्रधानमंत्री को चुनौती दी जा सके। दरअसल, ख़ुद प्रियंका ने एक बार नहीं, दो-दो बार सार्वजनिक तौर पर यह कह दिया था कि पार्टी यदि कहेगी तो वह वाराणसी से भी चुनाव लड़ने को तैयार हैं। इससे यह धारणा फैली की प्रियंका मोदी को चुनौती देने उतरेंगी। पर न तो वह खुद और न ही उनकी पार्टी इसके लिए तैयार थी।
भारतीय जनता पार्टी की चुनावी रणनीति का एक बड़ा कमज़ोर पहलू यह है कि चुनाव प्रचार का पूरा दारोमदार एक अकेले व्यक्ति नरेंद्र मोदी पर टिका है। उनके अलावा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हैं। ऐसे में यदि मोदी को उनके ही चुनाव क्षेत्र में उलझा कर रख दिया जाता तो यह एक बेहतरीन रणनीति हो सकती थी। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि अब तक यानी तीन चरणों में 300 से ज़्यादा सीटों पर चुनाव हो चुके हैं, यानी आधे से अधिक सीटों पर जो होना था, वह हो चुका है। ऐसे में मोदी को वाराणसी में उलझाए रखने का कोई मतलब नहीं है।
ग़लत रणनीति?
पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि यह ग़लत रणनीति इसलिए भी होती कि प्रियंका को पहले ही चुनाव में कठिन स्थिति में धकेल देना ठीक नहीं होता। हालाँकि उसका फ़ायदा उन्हें यह ज़रूर मिलता कि वह राष्ट्रीय फलक पर छा जातीं। चुनाव हार कर भी उनकी छवि हीरो की बन जाती, जिसने मोदी जैसे नेता को चुनौती दी हो। लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का मानना था कि इससे बेहतर यह होगा कि यदि राहुल अमेठी और वायनाड, दोनों सीटों से जीत जाते हैं तो अमेठी खाली कर देंगे। प्रियंका वहाँ से उपचुनाव में उतरें। यदि वह जीत जाती हैं तो परिवार के पास ही वह सुरक्षित क्षेत्र रह जाएगा।
एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि मोदी का विरोध करने के लिए वाराणसी में विपक्षी एकता न हुई, न इसके लिए कोई कोशिश ही की गई। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन ने ख़ुद को कांग्रेस से दूर रखा।
समाजवादी पार्टी ने वाराणसी से शालिनी यादव को मैदान में उतार दिया। लेकिन कांग्रेस ने वाराणसी सीट पर पहले समाजवादी पार्टी से कोई बातचीत नहीं की थी। यदि वहाँ मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष का एक ही उम्मीदवार होता तो शायद उन्हें टक्कर देना मुमकिन होता। लेकिन इसके लिए ज़रूरी होमवर्क तो कांग्रेस को ही करना था, जो उसने नहीं किया।
राहुल पर उठता सवाल
पर्यवेक्षकों का कहना है कि प्रियंका गाँधी को मोदी जैसे सबसे बड़े नेता के ख़िलाफ़ उतारना एक तरह से राहुल की छवि को ग्रहण लगाने जैसा होता। पार्टी ने काफ़ी जद्दोजहद के बाद बड़ी मुश्किल से राहुल गाँधी की एक छवि गढ़ी है। यदि वाराणसी से प्रियंका को उतारा जाता तो उनका कद यकायक बहुत बढ़ जाता और यह राहुल की छवि के ख़िलाफ़ जाता। इससे कार्यकर्ताओं में भी भ्रम की स्थिति होती। पार्टी इससे भी बचना चाहती थी।सवाल उठता है कि प्रियंका गाँधी ने यह घोषणा ही क्यों की कि वह मोदी को चुनौती देने के तैयार हैं। समझा जाता है कि उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए ऐसा किया गया था ताकि ज़मीनी स्तर के लोगों को लगे कि पार्टी बीजेपी के लिए मैदान खाली नहीं छोड़ रही है। उससे टकराने को तैयार है। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक युद्ध था, जिसके ज़रिए कांग्रेस बीजेपी को उलझाना चाहती थी। इसका क्या नतीजा होगा, यह तो चुनाव के बाद ही पता चल पाएगा, पर यह साफ़ है कि कांग्रेस का यह मोहरा चल नहीं पाया।