कांग्रेस ने अगर आंतरिक लोकतंत्र विकसित नहीं किया तो मिट जायेगी!
जिस तरह 'चिट्ठी' लिखने वाले वरिष्ठ कांग्रेसजनों के 'सिर' के ऊपर राहुल गांधी के युवा और 'जूनियर' चहेतों को लोकसभा और राज्यसभा की संसदीय पार्टी (सीपीपी) में बीते गुरुवार की देर रात को लादा गया है, वह पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र की मांग पर भिनभिना जाने वाला कांग्रेस 'आलाकमान' के बदनीयत चेहरे को पर्दाफ़ाश करता है।
पार्टी में ‘आतंरिक लोकतंत्र’ की समझ न रखने वाले खीरी लखीमपुर (उप्र) के उन कार्यकर्ताओं को उनके उस 'अपराध' के लिए क्षमा किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने पार्टी कार्यसमिति सदस्य जितिन प्रसाद सहित कांग्रेस के उन अति वरिष्ठ 23 नेताओं को पार्टी से निकालने का प्रस्ताव पास कर दिया था जो पार्टी अध्यक्ष से व्यापक सांगठनिक रद्दोबदल के अनुरोध का पत्र लिख रहे थे।
पार्टी के 'सुपर आलाकमान' को लेकिन क्या इस बात के लिए क्षमा किया जा सकता है कि क्यों नहीं उसने ज़िला स्तर के इन निचले और छोटे कार्यकर्ताओं को पार्टी के भीतर आतंरिक लोकतंत्र की महत्ता समझाने की कोई पहल की?
क्या 'सुपर आलाकमान' को इस बात के लिए भी क्षमा किया जा सकता है कि क्यों नहीं उसने राहुल गांधी जैसे वरिष्ठ नेता को इस बात के लिए कस कर फटकार लगाई कि किस हैसियत से उन्होंने पार्टी के इन वरिष्ठतम नेताओं पर 'गरजने-बरसने' की जुर्रत की थी जो पार्टी नेतृत्व में सुधारात्मक बदलाव की मांग कर रहे थे?
ऐसी कांग्रेस और उसके नेता आखिर किस मुंह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी द्वारा लोकतान्त्रिक संस्थाओं के 'विनाश की कोशिश' के बरख़िलाफ़ आम जनता से खड़ा होने की अपील करते हैं?
संस्थाएं ध्वस्त!
इसमें कोई शक़ नहीं कि बीते 6 सालों में लोकतांत्रिक संस्थाओं को पतन के द्वार तक पहुंचाने में कोई गुरेज़ नहीं बरता गया है। मोदी सरकार ने कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले मीडिया को किरिच-किरिच करके मिटा देने की अभूतपूर्व कार्रवाईयां की हैं।समूचे विपक्ष को 'टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहने वाले प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाने की कार्रवाइयों से भला लोकतान्त्रिक संस्थाओं और मान्यताओं में विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति कैसे असहमत नहीं होगा। आज़ादी के बाद के इतिहास को लेकिन देखें तो क्या लोकतंत्र के इस क़िले की एक-एक ईंट को चुन-चुन कर ढहाने की शुरुआत के लिये और लोग अपराधी नहीं है?
आंतरिक लोकतंत्र क्यों ज़रूरी?
किसी भी संसदीय लोकतंत्र में लोकतांत्रिक संस्थाओं को 2 स्तर पर सुदृढ़ बनाये रखने की दरकार होती है, अंदरूनी और बाहरी। पहला काम होता है इन संस्थाओं को अंदरूनी तौर पर मज़बूत बनाना। स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाओं को स्वतंत्र, पूर्णतः लोकतांत्रिक और ज़िम्मेदार बनाया जाता है।अमेरिका से लेकर समूचे यूरोप का इतिहास यही बताता है। इन संस्थाओं को लोकतांत्रिक बनाने से भी पहले पार्टी के संगठन को लोकतांत्रिक बनाया जाना सबसे पहले ज़रूरी माना जाता है। जब आतंरिक संरचना मज़बूत हो जाती है तो लोकतंत्र के बाहरी आवरण को जिसमें संसद, कार्यपालिका और न्यायपलिकाएं होती हैं, मज़बूत किया जाता है। दुनिया में इसके अनेक उदाहरण हैं।
इस देश की पार्टीगत संरचना में कांग्रेस चूंकि सबसे पहली पार्टी है, लिहाज़ा पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने का सबसे पहला काम भी उसी ने किया है।
शुरुआत से ही दिक्क़त
आगे चलकर मट्ठा डालने की उसकी प्रवत्ति हिंस्र होती चली गयी और तब उसकी देखा-देखी बाक़ी पार्टियों को भी यह एक 'सुविधाजनक' कार्रवाई दिखी। भारत में पार्टी-पॉलिटिक्स की शुरुआत से ही झोल नज़र आता है। सन 39 में 'अखिल भारतीय कांग्रेस' के अध्यक्ष पद पर गाँधी जी के प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया की हार के विरुद्ध सुभाषचंद बोस की स्पष्ट जीत और उसके बाद गाँधी जी द्वारा इसे 'व्यक्तिगत हार' के रूप में अभिव्यक्त करना और उनके चेलों-चपाटों द्वारा 3 महीने में सुभाष बाबू को 'चीं' बुलाकर त्यागपत्र देने के लिए अभिशप्त कर देना भारत के पार्टीगत इस संसदीय खामियों को दर्शाते हैं।सुभाषचंद बोस अपनी जीत की क़तई उम्मीद नहीं करते थे। वास्तविकता यह है कि देश और कांग्रेस, दोनों के भीतर गांधी जी इतने बड़े क़द-काठी के नेता बन चुके थे कि उन्हें हराना या कि उनके' प्रत्याशी को पटखनी देना एक नामुमकिन घटना ही मानी जा सकती थी।
क्यों गाँधी जी ने डॉ० पट्टाभि की हार को 'निजी हार' माना? क्यों उन्होंने बोस के इस निवेदन को स्वीकार किया जिसमें उन्होंने बापू से अपनी मर्ज़ी से समूची कार्यसमिति चुनने की बात कही थी? 'क्यों बल्लभभाई पटेल सहित उनके 10 समर्थकों ने एक के बाद एक कांग्रेस कार्यसमिति से त्यागपात्र दे दिया?
वस्तुतः उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हम जब संसदीय राजनीति के विचार को विकसित करने की 'स्टेज' में थे तब हम एक औपनिवेशिक देश थे। बेशक हम अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्ति चाहते थे, लेकिन भीतर से हमारी नसों में ग़ुलाम ख़ून ही दौड़ता था। आज के मीडिया की तरह उस काल में भी अंग्रेज़ अपनी शिक्षा, अपने अखबार-रेडियो, अपनी सांस्कृतिक संचेतना, अपने सामजिक ज्ञान और अपनी राजनीति के जरिए हर वक़्त हमारी ज़हनियत में 'असमान की प्रधानता' का अपना विचार ठूंस पाने में कामयाब होते रहे और तभी हमारे भीतर ये बीज प्रस्फुटित हो गया कि एक ऊपर है और दूसरा नीचे।
न 1947 से पहले और न 1947 के बाद हमारे समाज के आकाओं ने कभी यह सोचने की कोशिश की कि क्यों दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त होने के बावजूद अंग्रेज़ पिछड़ते चले गए और लोकतंत्र के पहरुए होने के बावजूद क्यों पहले यूरोप में और फिर सारी दुनिया में लोकतंत्र का उनका ध्वज भीड़ में कहीं गुम होता चला गया।
नेहरू थे डेमोक्रेट?
आज़ादी प्राप्ति के बाद भी ग़लतफ़हमियों का यही रिकॉर्ड बजता रहा। पंडित जवाहरलाल नेहरू यद्यपि ऊपरी आवरण में लोकतंत्र के पुजारी थे, कांग्रेस में उनके समकक्ष कई बड़े नेता थे, जिनके दबाव में उन्हें कभी-कभी 'दबना' भी पड़ जाता था।
लेकिन जैसे-जैसे काल का पहिया आगे घूमता गया, प० नेहरू 'ऑटोक्रेट' होते चले गए। उनके बाद जब उनकी पुत्री इंदिरा गाँधी सत्तासीन हुईं तब तो उन्होंने पार्टी के अधिनायकत्व को इस चरम तक पहुंचाया कि पूरे देश को 'इमरजेंसी' का दंश झेलना पड़ा।
आपातकाल को देश के नागरिकों को कुचलने के लिए मानना, थोड़ा अल्प राजनीतिक सूझबूझ का परिचायक होगा। वस्तुतः इसका मूल उद्देश्य पार्टी के भीतर अपने संभावित विरोधियों को नेस्तनाबूद कर डालना था।
क्या हाल है दूसरे दलों में?
यद्यपि 'इमरजेंसी' को देश की जनता ने उखाड़ फेंका, बाक़ी विपक्षी दलों ने भी इससे त्राहिमाम-त्राहिमाम कर डाला, लेकिन मन के भीतर पार्टी के अंदरूनी विरोध के स्वर को कुचलने का 'आइडिया' सभी को भाया। साल 1977 के बाद के भारतीय राजनीतिक दलों की विकास यात्रा का अध्ययन करें तो सर्वत्र यही कहानी दिखेगी। क्या 'लेफ्ट' और क्या 'राइट', आतंरिक लोकतंत्र की इजाज़त कहीं नहीं दिखती। ककथित राष्ट्रीय दलों की बात दरकिनार, छोटे-छोटे क्षेत्रीय क्षत्रपों में भी विरोध के स्वरों के लिए कोई 'स्पेस' नहीं। 'बीजेपी' (याकि उसकी पूर्ववर्ती वंशज 'भारतीय जनसंघ') से तो इसलिए लोकतंत्र की कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उनका ढांचा ही 'संघ' आधारित है और उनका सारा लोकतंत्र नागपुर के 'डब्बे' में बंद है।
बीजेपी का खेल
बीजेपी निजाम मूलतः देश की जनता की लोकतांत्रिक समझ को कुंद करने और चुनिंदा एकाधिकार प्राप्त पूंजीपतियों को देश के आर्थिक संसाधनों के शिखर पर बैठा देने के लिए अभिशप्त है। यह देश के नागरिकों से उनके आर्थिक और राजनीतिक अधिकार पूरी तौर पर छीन डालने को संकल्पित पार्टी है। समय-समय पर वह देश की जनता को भ्रमित करने के लिए हिन्दू-मुसलमान से लेकर पाकिस्तान-चीन का खेल खेलती रहेगी।कोई भी राजनीतिक दल यदि इससे 'पंजा लड़ाना' चाहता है तो उसे जान लेना चाहिए कि 'सॉफ़्ट' या 'हार्ड' हिन्दू-मुसलमान के उनके अखाड़े में कूदने की जगह नागरिकों के लोकतांत्रिक आर्थिक-राजनीतिक अधिकारों के छीने जाने के सवालों को मुद्दा बनाने और उनके लिए संघर्ष करने के बग़ैर कुछ भी मुमकिन नहीं।
वेंटीलेटर पर कांग्रेस
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, यह अभी भी देश की दूसरे नम्बर की सबसे बड़ी पार्टी है। ठीक है कि यह यूपी और बिहार में बुरी तरह हांफ रही है और वहां इसे, वेंटिलेटर' पर रखने की ज़रूरत है, लेकिन कई राज्यों में यह पहले नम्बर पर है और ज़्यादातर राज्यों में दूसरे नम्बर पर। अलबत्ता यह अपने कारणों से क्रमवार ध्वंस के कग़ार पर है।इसके पुनरुद्धार के लिए जिन 'राजनीतिक रसायनों' की ज़रुरत है उसमें 'पुनर्नवा' का तत्व है- इसका लोकतांत्रीकरण किया जाना। ज़ाहिर है पार्टी का लोकतांत्रीकरण समाज के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चैतन्य बने बग़ैर संभव नहीं है। समाज के लोकतांत्रिक अधिकारों का यह चैतन्यीकरण गले में जनेऊ डालने और कैलाश मानसरोवर की यात्रा के टोटकों से नहीं आने वाला, यह पूर्वकाल का इतिहास बताता है। यदि ऐसी कोशिश नहीं की जाती तो यह भविष्य की एक मुर्दा पार्टी बनकर रह जायेगी।