कांग्रेस आखिर कब तक बचेगी स्थायी अध्यक्ष के चुनाव से?
नेतृत्व संकट के सवालों से जूझ रही कांग्रेस को पार्टी से निलंबित किए गए नेता संजय झा ने एक और मुसीबत में डाल दिया है। झा ने ट्वीट कर कहा है कि कांग्रेस के लगभग 100 नेता पार्टी के आंतरिक मामलों के कारण नाराज हैं और इन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर नेतृत्व में बदलाव की मांग की है।
झा ने कहा है कि इन नेताओं मे पार्टी के सांसद भी शामिल हैं और ये नेता कांग्रेस में निर्णय लेने वाली सर्वोच्च सस्था कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) में पारदर्शी ढंग से चुनाव चाहते हैं।
स्थायी अध्यक्ष की मांग जोरों पर
बीते कुछ दिनों में कांग्रेस में खुलकर यह मांग उठी है कि पार्टी को स्थायी अध्यक्ष मिलना चाहिए। कुछ दिन पहले ही पार्टी के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी के साथ ‘सत्य हिन्दी’ के लिए की गई बातचीत में कहा था कि नेतृत्व का संकट हल नहीं होने से कांग्रेस को नुक़सान हो रहा है और यदि राहुल गांधी अध्यक्ष न बनने को लेकर ज़िद पर अड़े हैं तो फिर चुनाव के जरिये नया अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। इस बातचीत को यहां सुनिए-
‘पार्टी भटकी हुई है’
सिंघवी ने बयान के दो-तीन बाद ही पूर्व केंद्रीय मंत्री और मोदी लहर में भी 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने वाले शशि थरूर ने और ज़्यादा गंभीर बयान दिया। न्यूज़ एजेंसी पीटीआई के साथ बातचीत में थरूर ने कहा कि कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष चुने जाने की प्रक्रिया को तेज़ किया जाना चाहिए क्योंकि जनता के बीच में यह धारणा बढ़ती जा रही है कि पार्टी भटकी हुई है और बिना पतवार की है।
दीक्षित ने भी उठाया था मुद्दा
थरूर ने कहा था, ‘राहुल गांधी में यह क्षमता है कि वह एक बार फिर से पार्टी का नेतृत्व कर सकते हैं। लेकिन अगर वह ऐसा नहीं करना चाहते हैं तो पार्टी को नया अध्यक्ष चुनने की दिशा में क़दम उठाने चाहिए।’ इस साल की शुरुआत में भी राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने पार्टी में नेतृत्व संकट का सवाल उठाया था। ऐसे ही सवाल पार्टी के अन्य नेता भी उठाते रहे हैं लेकिन खुलकर नहीं।
कुल मिलाकर कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता पहले जिस बात को दबी-छुपी जबान में कह रहे थे, उसे सिंघवी और थरूर ने बीते दिनों खुलकर कहा।
झा की हुई थी छुट्टी
कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता संजय झा कुछ समय से पार्टी आलाकमान के ख़िलाफ़ बग़ावती तेवर दिखा रहे थे। झा के द्वारा उठाए जा रहे इस तरह के सवालों के बाद पार्टी ने सख़्त कार्रवाई करते हुए पहले उन्हें प्रवक्ता के पद से और फिर पार्टी से निलंबित कर दिया था।
अब जब झा ने फिर से अपना मुंह खोला तो हंगामा मचा और कांग्रेस को झा के इस ट्वीट का जवाब देने के लिए सामने आना पड़ा। कांग्रेस ने कहा कि झा द्वारा कही गई बात पूरी तरह झूठ है और यह फ़ेसबुक-बीजेपी मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश है और बीजेपी की कठपुतलियों द्वारा ऐसा प्रचार किया जा रहा है।
फ़ेसबुक विवाद और सफाई
बता दें कि मशहूर अमेरिकी पत्रिका 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' ने एक ख़बर में दावा किया है कि फ़ेसबुक ने भारत के सत्तारूढ़ दल बीजेपी से जुड़े लोगों की नफ़रत फ़ैलाने वाली पोस्ट को नहीं हटाया और ऐसे कम से कम तीन मामले सामने आए हैं। इस पर फ़ेसबुक ने सफाई दी है और कहा है कि वह ऐसी सामग्री जिससे ‘नफ़रत को बढ़ावा मिलता हो’ या ‘हिंसा को उकसावा मिलता हो’ उसे रोक देती है।
भले ही कांग्रेस ने झा की बात को खारिज कर दिया हो लेकिन पार्टी को संदीप दीक्षित से लेकर शथि थरूर और अभिषेक मनु सिंघवी की बात पर तो ध्यान देना ही चाहिए और अब वह चाहकर भी नेतृत्व संकट के सवाल से बच नहीं सकती।
अध्यक्ष चुनने में हीलाहवाली क्यों?
पिछले साल लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने अपनी जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़ा दिया था तो पार्टी की ओर से सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। तब कांग्रेस नेताओं को यह उम्मीद थी कि कांग्रेस में नेतृत्व संकट केवल कुछ वक्त का है और कुछ समय बाद या तो राहुल गांधी पद संभाल लेंगे या पार्टी किसी और नेता का चुनाव कर लेगी।
लेकिन बीते एक साल में मध्य प्रदेश में सरकार गिरने से लेकर गुजरात में कांग्रेस विधायकों की भगदड़ के बाद भी पार्टी आलाकमान ने इस मसले को सुलझाने की ओर ध्यान नहीं दिया। राजस्थान संकट के दौरान भी यह सवाल उठा कि आख़िर पार्टी अध्यक्ष क्यों नहीं चुनती और कब तक वह इस हाल में बीजेपी जैसी मजबूत और आक्रामक प्रचार रणनीति रखने वाली पार्टी से मुकाबला कर पाएगी।
कांग्रेस को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसका मुक़ाबला बीजेपी जैसी पार्टी से है। जिसने पिछले 5 साल में देश के लगभग सभी जिलों में स्थायी ऑफ़िस खोल लिए हैं और जिसके पास सोशल मीडिया पर कार्यकर्ताओं की बड़ी टीम है।
राज्य के क्षत्रपों में मारामारी
पार्टी को इस बात पर ध्यान देना होगा कि जिन गिने-चुने राज्यों मे उसकी सरकारें हैं, वहां भी राज्य के क्षत्रपों में मारामारी मची हुई है। ऐसे में नेतृत्व पर सवाल उठेंगे ही और पार्टी का भविष्य अंधकारमय देख पार्टी के नेता साथ छोड़ेंगे ही। क्योंकि राजनीति में हारते हुए साथ कोई नहीं देना चाहता।
कांग्रेस को यह समझना होगा कि वह भले ही जीतने की स्थिति में न हो लेकिन उसे पूरी ताक़त का इस्तेमाल करने से किसने रोका है। गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने मेहनत की और उसका फल भी मिला। इसलिए, पार्टी को ज़मीन पर मेहनत का मंत्र नहीं छोड़ना चाहिए।
शीर्ष नेतृत्व को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का यह असंतोष इस हद तक न चले जाए कि वे पार्टी छोड़ने को मजबूर हो जाएं। आलाकमान को तुरंत नेतृत्व संकट का मसला सुलझाकर कोरोना संकट ख़त्म होने के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटियों में जान फूंकने के लिए दिल्ली से कूच करना चाहिए क्योंकि केवल ट्विटर से जनता के बीच मजबूत पकड़ नहीं बनाई जा सकती।