पंजाब की कांग्रेस सरकार में पिछले दो महीने से चल रही उठापटक का पटाक्षेप हो गया है। कांग्रेस पार्टी ने दलित समाज से आने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है। कांग्रेस के इस क़दम से मीडिया और राजनीति के स्वर बदलने लगे हैं। काफ़ी अरसे के बाद कांग्रेस द्वारा लगाए गए इस 'मास्टर स्ट्रोक' को चुनावी राजनीति का बेहतरीन क़दम माना जा रहा है। चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने बड़ा दांव खेला है। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस के इस राजनीतिक फ़ैसले के मायने क्या हैं? कांग्रेस को इससे क्या हासिल होगा?
पूरे देश में आनुपातिक रूप से सबसे ज़्यादा दलित आबादी पंजाब में है। लगभग एक तिहाई (32- 33 फ़ीसदी) आबादी वाले पंजाब में पहली बार किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाया गया है। कांग्रेस जोर-शोर से अपने इस क़दम का प्रचार कर रही है। दूसरी तरफ़ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से 17 प्रांतों में सत्ता पर काबिज बीजेपी का कोई मुख्यमंत्री दलित नहीं है। इतना ही नहीं, पिछले तीन दशक से कई प्रांतों में सत्ता पर काबिज बीजेपी ने अब तक किसी दलित को मुख्यमंत्री नहीं बनाया है। जबकि कुल 8 दलित मुख्यमंत्रियों में से 5 कांग्रेस ने बनाए हैं। सबसे पहले आंध्र प्रदेश में 1960 दामोदरम संजीवय्या को मुख्यमंत्री बनाया। इसके बाद बिहार में भोला पासवान शास्त्री 1968 से 1971 के बीच तीन बार मुख्यमंत्री बने। 1980 में जगन्नाथ पहाड़िया राजस्थान के पहले दलित मुख्यमंत्री हुए। 2003 में सुशील कुमार शिंदे को कांग्रेस ने महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया। 2021 में पंजाब को यह गौरव प्राप्त हुआ।
117 सीटों वाली पंजाब विधानसभा में 34 सीटें दलितों के लिए सुरक्षित हैं। इनमें से 20 सीटों पर फ़िलहाल कांग्रेस का कब्जा है। इस लिहाज से भी कांग्रेस को चुनाव में फायदा मिल सकता है। लेकिन इससे बड़ा सवाल भी है। कांग्रेस के इस क़दम का फायदा यूपी और उत्तराखंड में भी होगा। इन राज्यों में भी दलितों की तादाद काफ़ी अच्छी है। 70 विधानसभा वाले उत्तराखंड में 18- 20 फ़ीसदी दलित वोट हैं। क़रीब 18 सीटों पर दलित निर्णायक भूमिका में हैं। देहरादून, हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर में जाटव, दर्जी, कोरी, धोबी, जादूगर आदि दलित जातियों की अच्छी तादाद है।
इसी तरह से 403 विधानसभा सीटों वाले देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में भी कांग्रेस की राजनीति पर इसका सकारात्मक प्रभाव होगा। यूपी में 87 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं। यहाँ 21 फ़ीसदी दलित आबादी है। इनमें से क़रीब 11 फ़ीसदी जाटव समुदाय है।
इसी तरह से उत्तराखंड की दलित आबादी में क़रीब आधा जाटव समाज है। चन्नी स्वयं पंजाब के रविदासिया जाटव समाज से आते हैं। कांग्रेस पार्टी इसका संदेश देने की कोशिश करेगी। ग़ौरतलब है कि कांशीराम भी रविदासिया जाटव थे। वे पंजाब के रोपड़ ज़िले से थे, चरणजीत सिंह चन्नी भी उसी ज़िले से आते हैं।
दलित, मुसलिम और ब्राह्मण उत्तर भारत में कांग्रेस के मज़बूत आधार रहे हैं। कद्दावर दलित नेता बाबू जगजीवन राम कभी प्रधानमंत्री पद के भी दावेदार रहे थे। उनकी मौजूदगी के कारण भी उत्तर भारत का दलित समाज कांग्रेस के साथ जुड़ा रहा।
लेकिन कांग्रेस के आधार रहे दलितों को खासकर यूपी में कांशीराम ने बसपा के साथ गोलबंद कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1989 के बाद कांग्रेस अपने बूते यूपी में खड़ी नहीं हो सकी।
आज कांग्रेस दलित राजनीति को पंजाब से धार देने की कोशिश कर रही है। इसी पंजाब से निकलकर कांशीराम ने यूपी को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। कांशीराम ने बड़ी मेहनत और लगन से बामसेफ और डीएस-फोर जैसे संगठन खड़े किये।
फ़ोटो साभार: ट्विटर/द दलित वॉइस
दलितों, पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों के बीच कांशीराम ने आंबेडकर के संघर्षों और विचारों को पहुँचाया। हाशिए पर खड़े इन समुदायों में राजनीतिक चेतना पैदा की। उन्हें सत्ता में पहुँचने का सपना ही नहीं दिखाया बल्कि 'गुरु किल्ली' की ताक़त का एहसास भी कराया। नतीजे में पश्चिमी यूपी के जाटव समाज से आने वाली मायावती सूबे की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। निसंदेह दलित चेतना जगाने, उनमें स्वाभिमान पैदा करने और सामाजिक परिवर्तन के लिए मायावती का कार्यकाल उल्लेखनीय साबित हुआ। लेकिन पिछले एक दशक में जैसे-जैसे मायावती मज़बूत हुई हैं, बीएसपी कमजोर होती गई। कांशीराम के साथ मिशन से जुड़े रहे कद्दावर नेता पार्टी से बाहर हो गए। सुप्रीमो मायावती का फ़ैसला ही बसपा की राजनीतिक लाइन बन गया। इन दिनों मायावती ने अपनी विचारधारा को सिर के बल खड़ा कर दिया है। ब्राह्मणों को साधने के लिए मायावती गणेश और त्रिशूल मंच पर हाथ में लिए हुए दिखती हैं। इन हालातों में दलित राजनीति और विमर्श पृष्ठभूमि में चला गया।
पिछले एक साल में यूपी और केंद्र की राजनीति में हिंदुत्व और मंडल दो ही मुद्दे मज़बूत होते दिख रहे हैं। बीजेपी ने कमंडल के साथ मंडल की राजनीति को भी मुद्दा बनाया। लेकिन चौतरफ़ा दलितों पर हो रहे हमले और उनका उत्पीड़न राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सका। हाथरस और दिल्ली में दलित लड़की के साथ बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराध के बावजूद दलित समाज राजनीतिक पटल से लगभग ग़ायब हो गया। ऐसे में पंजाब की सत्ता दलित के हाथ में आने से निश्चित तौर पर दलित मुद्दों और राजनीति का पुनर्वास होगा। जाहिर है कांग्रेस पार्टी इसका लाभ लेने की कोशिश करेगी। कुशलतापूर्वक दलित कार्ड को खेलकर कांग्रेस विरोधियों को चित्त कर सकती है। बसपा के कमजोर होने से दलित राजनीति की खाली जगह को भी कांग्रेस पार्टी भर सकती है। इससे 2022 के विधानसभा चुनावों में ही नहीं बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को फायदा मिल सकता है। पूरे देश में 18 फ़ीसदी दलितों को फिर से जोड़कर कांग्रेस अपने आधार को मज़बूत कर सकती है।
लगता है कि कांग्रेस अब दलित कार्ड को तुरुप के इक्के की तरह खेलने का मन बना चुकी है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हरीश रावत ने उत्तराखंड में भी दलित मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की है। दरअसल, इस मुद्दे पर बीजेपी को घेरना आसान भी है और मुफीद भी। हिन्दुत्व का जवाब दलित अस्मिता की राजनीति ही हो सकती है, नरम हिन्दुत्व नहीं।