एक ऐसे समय जब कांग्रेस अत्यंत कठिन राजनीतिक चुनौतियों के दौर से गुज़र रही है, लोग जानना चाह रहे हैं कि कई अपेक्षित-अनपेक्षित तूफ़ानों को मुस्कुराते हुए निपटा देने वाली इंदिरा गांधी अगर आज जीवित होतीं तो पार्टी के मौजूदा बदहाल हालात में ऐसा क्या करतीं जो उनकी बहू सोनिया गांधी नहीं कर पा रही हैं?
ताज़ा संकट पंजाब में प्रकट हुआ है। प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख और मुख्यमंत्री पद के पुराने दावेदार नवजोत सिंह सिद्धू ने अब पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी की हैसियत को चुनौती दे दी है। पंजाब में अभी चुनाव हुए नहीं हैं, मतदान होना बाक़ी है और महत्वाकांक्षी सिद्धू ने ताली ठोककर एलान कर दिया है कि मुख्यमंत्री पद का फ़ैसला पार्टी का आलाकमान नहीं बल्कि राज्य की जनता करेगी। यानी अगर राज्य में कांग्रेस को बहुमत मिल जाता है तो वे और उनके समर्थक ही सब कुछ तय करने वाले हैं।
इंदिरा गांधी के जमाने में उनके नेतृत्व को पार्टी के ही कई बड़े दिग्गजों द्वारा चुनौतियाँ दी गईं, नई-नई पार्टियाँ बनाई गईं, कांग्रेस को विभाजित करने की कोशिशें की गईं पर वे अविचलित रहीं। एक बड़ा फ़र्क़ अब के मुक़ाबले तब में यह ज़रूर था कि कांग्रेस की अंदरूनी तोड़फोड़ में कोई बाहरी हाथ नहीं हुआ करता था। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी आदि जैसे सौम्य नेता विपक्ष में हुआ करते थे। चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत, लक्ष्मी कांतम्मा जैसे ‘विद्रोही’ कांग्रेस में बने रहकर ही आंतरिक प्रजातंत्र की लड़ाई लड़ते रहते थे, कभी अलग पार्टी नहीं बनाई।
लगातार निरंकुश होते जा रहे सत्ता प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए जिस समय देश में एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस की सबसे ज़्यादा ज़रूरत महसूस की जा रही है, हाल ही में अपनी 137वीं वर्षगाँठ मनाने वाली उसी कांग्रेस के ‘पारिवारिक’ किरायेदार/कर्णधार उतनी ही ताक़त से जनता को निराश कर रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के समय के इस अग्रणी दल में नेतृत्व के ख़िलाफ़ जितने विद्रोह पिछले साढ़े छह दशकों में नहीं हुए होंगे, हाल के सवा दो दशकों में हो गए। एक के बाद एक राज्य और एक के बाद एक नेता और कार्यकर्ता पार्टी नेतृत्व के ख़िलाफ़ खुलेआम बग़ावत कर रहा है।
मुझे साल 1974 की एक घटना का स्मरण है। तब मैं पटना में रहते हुए जेपी के काम में सहयोग कर रहा था। एक दिन चंद्रशेखर जेपी से मिलने उनके कदम कुआँ स्थित निवास पर आए। उनकी बातचीत के बीच मैं भी (केवल बातचीत सुनने वाले की तरह से) दूर बैठा था। तमाम इतर बातों के बीच चंद्रशेखर ने जेपी से कहा कि इंदिरा जी के कारण पार्टी में उनके जैसे लोगों का काम करना मुश्किल हो रहा है। उनका आशय जेपी से कांग्रेस पार्टी छोड़ने की अनुमति प्राप्त करने से था।
सार में यह कि जेपी ने सलाह दी कि चंद्रशेखर पार्टी में रहते हुए ही आंतरिक लोकतंत्र के लिए अपनी लड़ाई जारी रखें और चंद्रशेखर लोकनायक का कहा मान भी गए। आज न तो इंदिरा गांधी हैं और न ही जयप्रकाश नारायण!
ग़ुलाम नबी आज़ाद ने पिछले दिनों जम्मू में अपने तूफ़ानी दौरे के समय इस सम्भावना से इनकार नहीं किया कि वह एक नई पार्टी (कांग्रेस?) बना सकते हैं। ग़ुलाम नबी की पार्टी फिर जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ सीटों का समझौता कर लेगी। अमरिंदर सिंह अपनी नई पार्टी बना ही चुके हैं और भाजपा के साथ सीटों का बँटवारा करके चुनाव भी लड़ रहे हैं। कांग्रेस पार्टी में हाल के दिनों की विद्रोह की घटना उत्तराखंड में हरीश रावत जैसे विश्वसनीय नेता की थी जिसे समझा-बुझाकर बग़ैर ज़्यादा नुक़सान झेले हाल-फ़िलहाल के लिए शांत कर दिया गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद की उमर वाले भाजपा (और तृणमूल भी) में भर्ती हो रहे हैं; और बूढ़े महत्वाकांक्षी अपनी नई पार्टियाँ (कांग्रेस) बना रहे हैं। भाजपा और तृणमूल दोनों ने ही अपने दरवाज़े गिरिजाघरों की तरह ‘जो चाहे सो आए’ की तर्ज़ पर सबके लिए खोल रखे हैं।
गुलाम नबी आज़ाद
कुछ ऐसा चमत्कार रहा कि कांग्रेस के सामने अपनी स्थापना के बाद से विभाजित हो जाने, टूटकर बिखर जाने या ‘आत्महत्या’ कर लेने के कई अवसर आए (या उसने स्वयं पैदा कर लिए) पर पार्टी बनी रही। अपनी तमाम पुरानी चीज़ों के साथ उनके जर्जर हो जाने तक चिपके रहने वाले भारतीयों ने हर बार इस पार्टी को इतिहास के कबाड़ख़ाने में डालने से इनकार कर दिया।
गोडसे द्वारा धोखे से मार दिए जाने से ठीक एक दिन पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक ड्राफ़्ट तैयार करके कांग्रेस को लोक सेवक संघ में परिवर्तित कर देश के लाखों गांवों की आर्थिक-सामाजिक आज़ादी के काम में जुटने की सलाह दी थी। गांधीजी का मानना था कि देश को अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त कराने के साथ ही कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य पूरा हो गया है। एक राजनीतिक दल के रूप में उसकी ज़रूरत समाप्त हो गई है। गांधी की हत्या हो जाने के कारण कांग्रेस को लेकर उनकी आख़िरी मंशा तत्काल सार्वजनिक नहीं हो सकी थी। अगर हो जाती तो मुमकिन है गोडसे का इरादा बदल जाता। बाद में नेहरू ने भी गांधीजी की मंशा को पूरी करने में कोई रुचि नहीं दिखाई।
महात्मा गांधी की इच्छा के विपरीत कांग्रेस पार्टी मनी प्लांट की शाखाओं की तरह अपने मूल से टूट-टूटकर अलग-अलग नामों से फैलती रही पर नष्ट नहीं हो पाई। शायद ठीक ही हुआ होगा!
गांधी जी ने जब ड्राफ़्ट तैयार किया होगा वे कल्पना नहीं कर सकते थे कि 2014 के साल में उनके गुजरात से ही एक ऐसा शासक दिल्ली की सत्ता में आएगा जो किसी एक राजनीतिक दल से भारत को मुक्त करने के नाम पर उसी कांग्रेस का चयन करेगा जिसे वे स्वयं समाप्त करने की मंशा रखते थे। कह तो यह भी सकते हैं कि गोडसे और सावरकर को पूजने वाली भाजपा इस समय गांधी के सपने को ही पूरा करने में लगी है।
कांग्रेस को समाप्त होने से बचाए रखना ज़रूरी है। एक बिजूके की शक्ल में ही सही। इसलिए नहीं कि ऐसा करना गांधी-नेहरू परिवार को देश की उसकी सेवाओं के बदले भुगतान के लिए ज़रूरी है बल्कि इसलिए कि केसरिया परिधानों के बीच खादी के कुछ सफ़ेद कुर्ते-पायजामे भी नज़र आते रहेंगे तो दुनिया को दिखाने के लिए रहेगा कि खादी भंडारों के अलावा भी गांधी के जमाने का कुछ भारत में अभी बचा हुआ है और टूटी-फूटी हालत में लोकतंत्र भी जीवित है। यह एक विचित्र स्थिति है कि सर्वथा अलग-अलग कारणों से कांग्रेस की ज़रूरत चाहे देश के 106 करोड़ हिंदुओं में कम बची हो और इक्कीस करोड़ मुसलमानों का भी उस पर से यक़ीन फिर गया हो फिर भी उसे समाप्त करने के षड्यंत्रों के ख़िलाफ़ दोनों ही समुदायों का एक बड़ा वर्ग चिंतित है। कांग्रेस संगठन पर अपने एकाधिकार को बनाए रखने के गांधी-नेहरू परिवार के अहंकार के पीछे नागरिकों की इस कमजोरी को भी एक बड़े कारण के तौर पर गिनाया जा सकता है।
सोनिया गांधी और उनके परिवार ने हाड़-मांस के उन पुतलों के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है जो न अंध भक्त हिंदू हैं, न कट्टर मुसलिम, सिख या ईसाई। वे केवल नागरिक हैं और बिना किसी क़बीलाई पहचानों के नागरिक ही बने रहना चाहते हैं। इन नागरिकों को यह जानकारी नहीं है कि कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस समय क्या कर रही है! नागरिकों की चिंता ‘परिवार’ नहीं भारत है।
भारत को बनाए रखने के सम्बंध में कांग्रेस पार्टी की ज़रूरत के प्रति ये नागरिक अपने दादा-दादियों के द्वारा आज़माई जा चुकी किसी घूटी के नुस्ख़े की तरह आश्वस्त हैं। नागरिकों के सामने संकट यह है कि अधिनायकवादी ताक़तों से निपटने के लिए उनके पास समय कम है और ऐसे में उन्हें यह भी तय करना है कि वे पहले किसे बचाने की कोशिश करें : अपने आपको कि कांग्रेस को?