कांग्रेस को अपनी संवैधानिक प्राथमिकता तय करनी होगी !
कांग्रेस पार्टी को यह तय करना पड़ेगा कि जिन राज्यों में वह विपक्ष में है और जहाँ दूसरे ग़ैर भारतीय जनता पार्टी दल सत्ता में हैं, उनसे अपने मतभेद या विरोध के कारण क्या स्थापित संसदीय परंपराओं को ध्वस्त किए जाने के वह पक्ष में है? साथ ही यह कि क्या वह विरोधी दलों के ख़िलाफ़ राजकीय मशीनरी के दुरुपयोग को प्रोत्साहित करना चाहती है? अभी तुरत पंजाब में और उसके पहले दिल्ली में उसके नेताओं के आचरण से ऐसा ही मालूम पड़ता है ।
भाजपा राज्यपालों के माध्यम से चुनी हुई सरकार के काममें लगातार अड़ंगे लगा रही है। साथ ही वह अपनी जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्षी नेताओं की सरकारों को अस्थिर करने और उन्हें काम न करने देने के लिए कर रही है।लगातार उन पर छापे मार कर, उन्हें गिरफ़्तार करके वह उन्हें अस्थिर कर रही है। पार्टी विरोधी पार्टियों के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके वह उस पार्टी को ठप्प कर देना चाहती है।
गिरफ़्तारी जनता में भी उस व्यक्ति के प्रतिसंदेह पैदा कर देती है। उसकी पार्टी की साख भी लोगों में कम हो जाती है।इसकी शिकार आम आदमी पार्टी ही नहीं, खुद काँग्रेस और दूसरी पार्टियाँ हैं, एकाध को छोड़कर।उसी तरह तमिलनाडु हो या पश्चिम बंगाल, केरल हो या राजस्थान, राज्यपाल तरह तरह से अपनी संविधानसम्मत सीमा का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकारों के काम काज में दखलंदाजी कर रहे हैं,उन्हें काम नहीं करने दे रहे।
पंजाब के राज्यपाल राज्य की सरकार को विधानसभा का सत्र नहीं बुलाने दे रहे थे। जबकि उन्हें सरकार के सुझाव को ठुकराने का अधिकार नहीं। वे यह नहीं कह सकते कि सरकार के सत्र आयोजित करने के अनुरोध पर वे कानूनी सलाह लेंगे। सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में राज्यपाल को उनकी सीमा की याद दिलानी पड़ी। आखिर उन्हे अदालत को बतलाना पड़ा कि वे सत्र आहूत कर रहे हैं। फिर भी अदालत ने कहा कि सरकार के सुझाव पर अमल न करने का उसका अधिकार नहीं। वैसे ही जैसे कुछ दिन पहले दिल्ली की नगरपालिका के मेयर के चुनाव में उपराज्यपाल द्वारा नामित सदस्यों को मताधिकार देने के फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने अमान्य किया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सख़्ती के बाद आयोजित पंजाब के विधानसभा के बजट सत्र में राज्यपाल ने अपने संबोधन में राज्य सरकार द्वारा दिए गए भाषण से अलग हटकर सरकार को नसीहतें दीं। इसके लिए उन्हें कांग्रेस के नेता ने उत्साहित किया। यह बड़ी विडंबनापूर्ण बात थी कि कांग्रेस पार्टी आम आदमी पार्टी से अपने विरोध के कारण स्थापित संसदीय परंपरा के उल्लंघन में अगुवाई कर रही है। कांग्रेस नेता ने राज्यपाल को कहा कि वे अपने संबोधन में सरकार को ‘अपनी सरकार’ या ‘मेरी सरकार’ न कहें। इसके बाद मुख्यमंत्री को ऐतराज जताना पड़ा। लेकिन उसने राज्यपाल को मौक़ा दिया कि वे इस मौक़े का इस्तेमाल सरकार को शर्मिंदा करने के लिए करें।
अगर आपको याद हो तो कुछ ऐसा ही तमिलनाडु के राज्यपाल ने किया था।उसके बाद मुख्यमंत्री को उनके प्रतिवाद करना पड़ा था। ऐसा ही बर्ताव पुडुचेरी की उपराज्यपाल करती रही थीं।दिल्ली में तो उपराज्यपालों ने तय कर लिया है कि वे ही सरकार चलाएँगे।
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री की गिरफ़्तारी के बाद कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया भी निराशाजनक थी। उनके खिलाफ इल्ज़ाम पर निश्चयपूर्वक भले कुछ न कहा जा सके, गिरफ़्तारी का समर्थन या उस पर चुप्पी ख़तरनाक थी। हर किसी ने कहा कि मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी अनावश्यक थी। लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने और आगे बढ़कर मुख्यमंत्री की गिरफ़्तारी की भी माँग कर दी।
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जनतंत्र मात्र चुनाव में बहुमत के तर्क पर हर गतिविधि या निर्णय को किसी भी तरह लागू करने की इजाज़त नहीं देता। विभिन्न सांस्थानिक प्रक्रियाएँ बनी हुई हैं ताकि व्यापक विचार विमर्श में जनता के प्रत्येक तबके के मत को शामिल किया जा सके। उसी तरह किसी पर कोई इल्जाम उसे गिरफ़्तार करके जेल में डाल देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
यह सच है कि ख़ुद आम आदमी पार्टी का रवैया यही रहा है। मनीष की गिरफ़्तारी के बाद भी कर्नाटक में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचारी को जेल भेजने का संकल्प व्यक्त किया। अगर जेल भेजना इतना आसान है तो फिर उन्हीं
के तर्क से मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी जायज़ ठहरती है।
कॉंग्रेस पार्टी लेकिन आम आदमी पार्टी की तरह बर्ताव नहीं कर सकती। वह यह नहीं कह सकती कि चूँकि आपने उसके साथ यही किया है, उसके नेताओं को परेशान किए जाने पर वह चुप रही है, वह भी उसी तरह पेश आएगी।
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कॉंग्रेस पार्टी ने संसदीय जनतंत्र की परिपाटी क़ायम की है। उस परिपाटी के उल्लंघन में हिस्सेदार बनना संसदीय व्यवहार की समझ को ही समाप्त कर देगा।
यह वही कॉंग्रेस पार्टी है जिसके नेता राहुल गाँधी लगातार सांस्थानिक व्यवस्था के ध्वस्त किए जाने की शिकायत कर रहे हैं। संसद में स्वयं कॉंग्रेस पार्टी के नेता इसका सामना कर रहे हैं। लोकसभा और राज्यसभा में ओम बिड़ला और जगदीप धनखड़ ने विपक्ष के नेताओं के बोलने पर रोक लगाई और उनके अभिभावकों की तरह बर्ताव किया। उन्होंने राहुल गांधी और खड़गे साहब को कहा कि वे सरकार पर बिना सबूत आरोप नहीं लगा सकते। तो क्या पहले विपक्ष के नेता उनके सामने सबूत पेश करें और उनकी जाँच के बाद ही उन्हें अपनी बात कहने की इजाज़त दी जाएगी? क्या सदनों के सभापति अब सरकार की तरफ़ से नियुक्त मॉनिटर हैं?
पंजाब में राज्यपाल के ताज़ा बर्ताव ने साबित किया है कि भाजपा नेता भले ही संवैधानिक पदों पर चले जाएँ, जहाँ उनसे दल निरपेक्ष होकर काम करने की उम्मीद की जाती है, वे भाजपा प्रवक्ता या प्रतिनिधि की तरह ही काम करते हैं। छत्तीसगढ़ में राज्यपाल सरकार द्वारा सदन से पारित कराए गए अधिनियमों पर बैठी रहीं, दूसरे राज्यों में राज्यपाल ने समानांतर सत्ता केंद्र की तरह बर्ताव करना शुरू किया। यह सब कुछ स्वीकृत और पारंपरिक संसदीय और संघीय परिपाटी का स्पष्ट उल्लंघन है।
कांग्रेस पार्टी अगर फ़ौरी फ़ायदे की उम्मीद में और यह सोचकर कि उसके विरोधी दल की इससे नाक कटेगी, राज्यपालों का समर्थन करती है तो वह भारत में संघीय प्रणाली की कब्र खोदने का काम कर रही है।फिर बार बार राहुल गांधी द्वारा भारत को राज्यों का संघ कहने का भी कोई मतलब नहीं रह जाता।