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राहुल को पहले से पीएम उम्मीदवार नहीं प्रोजेक्ट करेगी कांग्रेस

राहुल को पहले से पीएम उम्मीदवार नहीं प्रोजेक्ट करेगी कांग्रेस

चुनाव की घोषणा भी नहीं हुई है और पीएम पद की उम्मीदवारी पर राजनीति शुरू हो गई, पर कांग्रेस फूंक फूंक कर क़दम रख रही है। 

तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत के बाद जब अचानक डीएमके अध्यक्ष एम. के. स्टालिन की तरफ से राहुल गांधी को विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के प्रस्ताव पर कांग्रेस ने चुप्पी साध ली है। कांग्रेस आधिकारिक रूप से इस पर कुछ नहीं कह रही है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक़, कांग्रेस चुनाव से पहले राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी। कांग्रेस का कहना है कि उसकी तरफ़ से राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे और उन्हीं के नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़ा जाएगा। 

नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस सवाल को टाल दिया कि क्या कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद के लिए साझा उम्मीदवार के तौर पर पेश करेगी सहयोगी दलों डीएमके और आरजेडी की तरफ से उठाई गई इस मांग पर उन्होंने कहा कि यह सहयोगियों की अपनी भावना है।

दूसरे दल भी हैं साथ

कांग्रेस अपने किसी भी सहयोगी दल को अपनी भावना प्रकट करने से नहीं रोकती। ग़ौरतलब है कि तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद की शपथ से एक दिन पहले चेन्नई में करुणानिधि की प्रतिमा के अनावरण के मौक़े पर स्टालिन ने राहुल गाँधी को विपक्ष की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद का साझा उम्मीदवार घोषित करने का प्रस्ताव किया था। बाद में आरजेडी के तेजस्वी प्रसाद यादव ने भी इस मांग को दोहराया था। इससे पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच. डी. कुमारस्वामी भी  यही बात कह चुके हैं। अपने सहयोगी दलों के इस प्रस्ताव पर कांग्रेस ज़ाहिर तौर पर कुछ भी कहने से बच रही है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक़,

जुलाई में नवगठित कांग्रेस कार्यसमिति की पहली बैठक में ही यह फ़ैसला लिया जा चुका है कि कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गाँधी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार और उम्मीदवार होंगे। लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता चुनाव से पहले राहुल गांधी को पीएम प्रत्याशी घोषित करने के हक़ में नहीं हैं।

सहयोगी दलों की तरफ़ से उठने वाली माँग के बाद भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने इस बाबत साफ़ किया है कि कांग्रेस का ऐसा कोई इरादा नहीं है। लेकिन सहयोगी दलों के प्रस्ताव को सार्वजनिक रूप से ठुकरा कर वह किसी विवाद में भी नहीं पड़ना चाहती। लिहाज़ा आलाकमान की तरफ़ से नेताओं को इस बारे में मुँह खोलने से मना किया गया है।

आम सहमति नहीं

डीएमके नेता एम के स्टालिन और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव की राय से विपक्ष के कई अन्य दल भी सहमत नहीं हैं। तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इस बार इस पर सख़्त एतराज़ है। हालाँकि सार्वजनिक रूप से ममता बनर्जी ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन उनका साफ़ कहना है कि अभी प्रधानमंत्री पद के सवाल पर विवाद खड़ा करने के बजाय मोदी को हराने की रणनीति पर काम करना चाहिए। प्रधानमंत्री चुनने का मसला चुनाव के बाद का है। दिल्ली में 10 दिसंबर को हुई विपक्षी दलों की बैठक में भी ममता बनर्जी ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि मोदी को हराने की लिए यही रणनीति बननी चाहिए कि जिस राज्य में जो पार्टी मज़बूत है, बाकी पार्टियाँ उसे वहाँ समर्थन दें। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में किसी के साथ किसी तरह का कोई समझौता नहीं चाहतीं। उनकी नज़र राज्य की सभी 42 सीटों  पर है।

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वाम की ऊहापोह 

वामपंथी दल भी राहुल गांधी को चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष का साझा उम्मीदवार घोषित किए जाने के पक्ष में नहीं है। उनके सामने दिक़्क़त यह है कि केरल में उन्हें कांग्रेस से सीधी टक्कर लेनी है और पश्चिम बंगाल विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस के साथ उनका तालमेल था। उन्हें इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल करने में भी दिक़्क़त आएगी। अभी यह भी तय नहीं है कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल में बनर्जी के साथ चुनावी तालमेल करना चाहेगी या वामपंथी दलों के साथ। वामपंथी दलों की राय भी यही है कि अपने-अपने राज्यों में सभी दल ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश करें। फिर चुनाव के बाद की स्थिति देख कर ही प्रधानमंत्री के मुद्दे पर सोचा जाए। कांग्रेस के सामने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और वामपंथी दलों के बीच तालमेल बैठाने की भी एक बड़ी चुनौती है। लिहाज़ा इस बारे में कुछ भी कह कर वह अभी पत्ते नहीं खोलना चाहती।

फिर बीएसपी प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश दोनों को ही प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी कुबूल नहीं हैं। अखिलेश यादव तो सार्वजनिक तौर पर इसकी मुख़ालफ़त कर चुके हैं। वह साफ कर चुके हैं कि सभी क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में बीजेपी को हरा कर ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की कोशिश करें।  प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इसका फ़ैसला चुनाव के बाद इस आधार पर किया जाना चाहिए कि कौन दल कितनी ज़्यादा सीटें जीतकर लाता है।  उत्तर प्रदेश से ख़बरें आ रही हैं कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी गठबंधन में  कांग्रेस को जगह नहीं दी जाएगी। चर्चा यहां तक है कि मायावती के जन्मदिन 15 जनवरी को मायावती और अखिलेश यादव साझा प्रेस कांफ्रेंस करके गठबंधन का एलान करेंगे।

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कांग्रेस के तीनों मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह में अखिलेश और मायावती दोनों ने ही शिरकत नहीं की थी। यहाँ तक राष्ट्रीय लोक दल के नेता जयंत चौधरी भी इस समारोह से दूर रहे थे। इसी से क़यास लगाए जा रहे हैं कि सपा-बसपा कांग्रेस को अपने गठबंधन से दूर रखेंगे। इन चर्चाओं पर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा नहीं होगी। कांग्रेस सभी दलों के साथ गठबंधन चाहती है। वहीं, कांग्रेस का अपना आकलन है कि उत्तर प्रदेश में वह अकेले लड़कर भी 15 सीटें जीत सकती है।

2009 में भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच सीटों का तालमेल आपसी रस्साकशी की वजह से नहीं हो पाया था। कांग्रेस अकेले लड़ी और वह उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी। कांग्रेस को लगता है कि 2009 की तरह इस बार भी उत्तर प्रदेश में हवा उसके पक्ष में बह रही है।

एनसीपी का स्टैंड

महाराष्ट्र में 15 साल और केंद्र में 10 साल कांग्रेस की सहयोगी रही एनसीपी भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर उतारे जाने के ख़िलाफ़ है। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार पहले यह बात साफ़ कर चुके हैं कि सभी विपक्षी दलों को आपसी तालमेल के साथ लोकसभा चुनाव लड़ना चाहिए और नेता के चुनाव का फ़ैसला चुनाव के बाद की परिस्थितियों पर छोड़ देना चाहिए। उनका साफ़ तौर पर यह भी कहना है कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है। लिहाज़ा प्रधानमंत्री पद कांग्रेस के पास ही रहे और कांग्रेस जिसे नेता चुने, उस पर सभी सहयोगी दलों को अपनी सहमति देनी चाहिए। एनसीपी प्रवक्ता नवाब मलिक ने साफ़ किया है कि जब कांग्रेस पहले ही कह चुकी है प्रधानमंत्री कौन होगा, इस बारे में चुनाव के बाद विचार-विमर्श किया जाएगा तो इस मुद्दे पर बहस बेमानी है।

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