रफ़ाल सौदे पर शक अब भी बाक़ी है
रफ़ाल-सौदे पर महालेखा नियंत्रक की रपट संसद में पेश क्या हुई, उजाला और अंधेरा एक साथ हो गया है। सरकार के लोग अपनी पीठ ख़ुद ही थपथपा रहे हैं, यह कहते हुए कि इस रपट के मुताबिक़ मनमोहन सरकार जिस दाम पर यह विमान ख़रीद रही थी, मोदी सरकार ने वह सौदा 2.86 प्रतिशत सस्ते में किया है, जबकि विरोधी इसी रपट के कई अंश निकाल-निकालकर बता रहे हैं कि हमारी सरकार ने रफ़ाल-सौदे में फ़्रांसीसी सरकार और दसॉ कंपनी के आगे कैसे घुटने टेके हैं।
12 साल से चल रही यह सौदेबाज़ी बोफ़ोर्स की तोपों से भी ज़्यादा गाली-गलौज पैदा कर रही है। मोदी-मोहन, दोनों सरकारें अपनी-अपनी छवि बचाने की कोशिश कर रही हैं।
दोनों पार्टियाँ, कांग्रेस और बीजेपी, देश को यह ठीक से बता नहीं पा रही हैं कि अरबों-खरबों रुपये के ये रक्षा-सौदे साफ़-सुथरे क्यों नहीं हो सकते? उनमें इतना लंबा समय क्यों लगता है?
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500 करोड़ का जहाज 1600 करोड़ में क्यों?
सरकार यह क्यों नहीं बता पा रही है कि उसने 500 करोड़ का जहाज 1600 करोड़ रुपये में क्यों ख़रीदा? इसमें महालेखा नियंत्रक के सहारे की ज़रूरत ही क्या है? पिछले 12 साल में महंगाई और डाॅलर या यूरो की क़ीमत कितनी बढ़ी? उस जहाज में क्या-क्या नए यंत्र या हथियार जोड़े गए? इस बढ़ी हुई क़ीमत के पीछे अगर कोई प्रतिरक्षा संबंधी रहस्य हैं तो उन्हें सरकार ज़रूर प्रकट न करे लेकिन इस क़ीमत को सही ठहराने के लिए यदि वह इस रपट का टेका लेना ज़रूरी समझती है तो अपने इरादों पर वह ख़ुद ही शक पैदा कर रही है।
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- यह शक तब और भी गाढ़ा हो जाता है, जब इस सौदे के भारतीय कर्णधार के तौर पर अनिल अंबानी की कंपनी का नाम आता है। ऐसी कंपनी, जिसे प्रतिरक्षा-उत्पादन का क ख ग भी पता नहीं।
कुछ फ़्रांसीसी अख़बारों और ‘हिंदू’- जैसे भारतीय अख़बार ने इस सौदे की इतनी अंदरुनी परतें उखाड़ कर रख दी हैं कि यदि राहुल गाँधी (बोफ़ोर्सवाला परिवार) की जगह विश्व नाथ प्रताप सिंह या चंद्रशेखर जैसा कोई नेता आज विपक्ष में होता तो चुनाव के पहले ही मोदी सरकार की बखिया उधड़ जाती।
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