10 % EWS आरक्षण पर फ़ैसला देने वाली बेंच के ही जज असहमत क्यों?
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सोमवार को जिस आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण को उचित ठहराया है, वह फ़ैसला बहुमत के आधार पर लिया गया है। बहुमत से यहाँ मतलब है कि संविधान पीठ में शामिल 5 जजों में से 3 जजों ने तो इसके पक्ष में फ़ैसला सुनाया, लेकिन बाक़ी के दो जज उससे असहमत थे। असहमत जजों में सीजेआई भी शामिल हैं।
असहमति के क्या मायने हैं, क्या इस मामले को अब संविधान की बड़ी पीठ यानी 5 जजों से ज़्यादा वाली पीठ के पास भेजा जा सकता है, इसका जवाब बाद में पता चलेगा और सुप्रीम कोर्ट ही इस पर निर्णय लेगा। लेकिन सवाल है कि पीठ में शामिल दो जजों की असहमति क्या थी? आख़िर उन्होंने किन बातों को लेकर आशंकाएँ जताईं और क्या तर्क रखे?
सबसे पहले यह जान लें कि पांच जजों की इस पीठ के फ़ैसले की अहम बातें क्या हैं।
- पहली तो यह कि आर्थिक आधार पर आरक्षण पर असहमति नहीं दिखती है। यानी आपत्ति 103वें संशोधन को लेकर नहीं, बल्कि उसके प्रावधानों को लेकर है।
- दूसरी बात यह है कि असहमति आर्थिक आधार पर आरक्षण के दायरे से एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय को बाहर रखने को लेकर है।
- तीसरी बात यह है कि असहमति इस बात को लेकर भी है कि आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, नहीं तो 'इससे समाज में और विभाजन' बढ़ेगा।
पीठ में शामिल जजों की राय क्या है, यह जानने से पहले, इस पूरे मामले और संविधान पीठ के फ़ैसले को जान लें। सरकार ने 103वां संविधान संशोधन करके आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को उच्च शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भर्ती में 10 फीसदी का आरक्षण दिया था। इस पर 103वें संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की संविधान पीठ इन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। बेंच ने अब माना है कि यह संशोधन भारत के संविधान की ज़रूरी फीचर्स यानी विशेषताओं का उल्लंघन नहीं करता है।
पीठ में शामिल न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने आरक्षण के पक्ष में फ़ैसला सुनाया।
जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने अपने फैसले में कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है। 15(4), 16(4) के अंतर्गत आने वाले वर्गों को ईडब्ल्यूएस आरक्षण से बाहर रखा जाना समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं है और संविधान के बुनियादी ढांचे को भी नुकसान नहीं पहुंचाता है। उन्होंने कहा कि 50 फीसदी की अधिकतम सीमा का उल्लंघन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करता है। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने कहा कि 103वें संविधान संशोधन को संसद के द्वारा ईडब्ल्यूएस तबक़े की भलाई के लिए एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में किया गया संशोधन माना जाना चाहिए। जस्टिस पारदीवाला ने जस्टिस माहेश्वरी और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी से सहमति जताई।
लेकिन मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने इस फ़ैसले के कई प्रावधानों से असहमति जताई।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी सीजेआई यूयू ललित और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने अपने असहमति वाले फ़ैसले में कहा कि आर्थिक आधारों पर आरक्षण संविधान का उल्लंघन नहीं है। हालाँकि, एससी/एसटी/ओबीसी के गरीबों को इस आधार पर कि उन्हें लाभ मिला है, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों से बाहर करना ग़लत है और 103वाँ संशोधन संवैधानिक रूप से वैसा भेदभाव करता है जो संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित है।
उन्होंने कहा, 'हमारा संविधान बाहर रखने की अनुमति नहीं देता है और यह संशोधन सामाजिक न्याय के ताने-बाने को कमजोर करता है और इस तरह बुनियादी ढांचे को भी। यह संशोधन हमारे सामने भ्रम पैदा करने की कोशिश करता है कि सामाजिक और पिछड़े वर्ग का लाभ पाने वाले कहीं बेहतर स्थिति में हैं। इस अदालत ने कहा है कि 16(1 ) और (4) उसी समानता के सिद्धांत के पहलू हैं। एसईबीसी के गरीबों को बाहर रखना ग़लत है। जिसे लाभ के रूप में बताया जा रहा है उसे मुफ्त पास के रूप में नहीं समझा जा सकता है, यह सुधार करने के लिए भरपाई करने वाला तंत्र है...।'
उन्होंने आरक्षण के मामलों में 50% की सीमा को तोड़ने का भी विरोध किया। उन्होंने कहा, '50% की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से विभाजन होगा। समानता के अधिकार का नियम आरक्षण का अधिकार बन जाएगा जो हमें वापस चंपकम दोरैराजन के दौर में ले जाएगा।'
चंपकम दोरैराजन मामला 1951 से जुड़ा है। यह तत्कालीन मद्रास प्रांत (चंपकम दोरैराजन बनाम तमिलनाडु राज्य) में मेडिकल कॉलेजों में आरक्षण के संदर्भ में था। चंपकम दोरैराजन मामले में अदालत ने कहा था- सार्वजनिक धन से बनाए गए कॉलेजों में अन्य उम्मीदवारों के बजाए उच्च अंक वालों को प्रवेश दिया जाना चाहिए। जिसका एक अर्थ निकाला गया था कि आरक्षण 'एंटी-मेरिट' यानी 'योग्यता विरोधी' है।