चुनाव से ऐन पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू
नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए को आख़िरकार अधिसूचित कर दिया गया। यानी यह अब लागू हो गया। इसको क़रीब पाँच साल पहले ही क़ानून बना दिया गया था। लेकिन इसको लागू किए जाने और पूरी प्रक्रिया के लिए नियम-क़ायदों को अधिसूचित नहीं किया गया था और इस वजह से इसे लागू नहीं किया जा सका था। इसका मतलब है कि क़ानून बने क़रीब पाँच साल होने के बावजूद अब तक किसी को भी इसके तहत नागरिकता नहीं मिल सकी है।
सीएए को उस दिन अधिसूचित किया गया है जिस दिन इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में एसबीआई को झटका लगा है। एसबीआई ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वालों के बारे में जानकारी देने के लिए तीन माह का समय मांगा था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया और 24 घंटे के भीतर इसको मुहैया कराने का आदेश दिया। सीएए को दिसंबर 2019 में अधिनियमित किया गया था और 10 जनवरी, 2020 को यह पूरी तरह क़ानून बन गया था। लेकिन सीएए नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया गया था। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। इन देशों के हिंदू, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदाय के उन लोगों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए थे।
सीएए को लोकसभा चुनाव से पहले ही अधिसूचित किए जाने के कयास लगाए जा रहे थे। कई मीडिया रिपोर्टों में इसको लेकर कहा गया था कि इसकी घोषणा कभी भी हो सकती है। खुद गृहमंत्री अमित शाह ने अभी हाल ही में एक कार्यक्रम में यह साफ़ कर दिया था कि चुनाव से पहले सीएए को लागू कर दिया जाएगा यानी इसे अधिसूचित कर दिया जाएगा।
11 दिसंबर, 2019 को संसद द्वारा अधिनियमित सीएए, पूरे भारत में गहन बहस और व्यापक विरोध का विषय रहा है।
सीएए 2019 के अंत में और 2020 की शुरुआत में देश में प्रमुख मुद्दा था। इसको लेकर देश के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। इस क़ानून को भेदभावपूर्ण क़रार दिया गया था और इसकी व्यापक रूप में आलोचना की गई थी। ऐसा इसलिए था कि यह धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात करता है। आलोचकों का कहना है कि नियोजित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर या एनआरसी के साथ इस क़ानून से लाखों मुसलमान अपनी नागरिकता खो देंगे। हालांकि, केंद्र का कहना है कि कोई भी भारतीय अपनी नागरिकता नहीं खोएगा।
पहले गृह मंत्री अमित शाह क़्रोनोलॉजी समझाते हुए कह चुके हैं कि सीएए के बाद एनआरसी और फिर एनपीआर आएगा।
इसी आशंका को देखते हुए देश भर के अलग-अलग जगहों पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। जामिया के शाहीन बाग में महिलाओं ने शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन किया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में भी बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था। यूपी में कई जगहों पर ऐसे ही प्रदर्शन किए गए थे। उत्तर पूर्वी राज्यों में भी तब बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। कई जगहों पर सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुँचाने के आरोप में बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया था। कई जगहों पर लोगों के मारे जाने की ख़बर भी आई थी।
शाहीन बाग का आंदोलन तीन महीने से ज़्यादा समय तक चला था। कंपकंपाती सर्द रात में भी महिलाएँ डटी रहीं। इस बीच उनको हटाने की लगातार कोशिशें हुईं। सुप्रीम कोर्ट तक में मामला गया। और आख़िरकार कोविड लॉकडाउन के दौरान उन्हें बड़ी मुश्किल से हटाया गया। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में भी बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुआ था। तब पुलिस पर आरोप लगा था कि उसने जामिया के होस्टल में घुसकर छात्रों पर लाठी चार्ज किया था। हालाँकि पुलिस इन आरोपों को खारिज करती रही।
शाहीन बाग़ जैसा विरोध प्रदर्शन होने पर मौजपुर जाफराबाद क्षेत्र में तब दंगा हो गया था जब उस प्रदर्शन के विरोध में बीजेपी नेता कपिल मिश्रा की अगुवाई में सैकड़ों लोग मौजपुर इलाक़े में जमा हो गये थे और इसके बाद क़ानून के विरोध में और समर्थन में उतरे लोगों के बीच पत्थरबाज़ी हुई थी। इसके बाद दंगा हो गया था।
यूपी में सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के दौरान पथराव की घटनाएँ हुई थीं। आरोप लगाया गया था कि प्रदर्शन करने वालों ने सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया। तब बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत में लिया गया था। योगी सरकार की ओर से सीएए के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक संपत्तियों के नुकसान की भरपाई को लेकर एक कानून बनाया गया था। इसके तहत बड़ी संख्या में लोगों को नोटिस जारी किए गए थे। इस कानून के मुताबिक़ किसी को अगर सरकारी या निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने का दोषी पाया जाता है तो उसे 1 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है या फिर जेल में जाना पड़ सकता है। जब यह मामला शीर्ष अदालत में पहुँचा था तो सुप्रीम कोर्ट ने योगी आदित्यनाथ सरकार से कहा था कि वह नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों से वसूल की गई रकम को उन्हें वापस लौटाए।
उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी थी कि उसने इस मामले में जारी किए गए वसूली के 274 नोटिसों को वापस ले लिया है।
तब नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर पूर्वोत्तर अशांत हो गया था। मेघालय में इस क़ानून को लेकर खासी स्टूडेंट्स यूनियन और ग़ैर आदिवासियों के बीच हुई झड़प में कई लोगों की मौत हो गयी थी। असम में भी इसी तरह के विरोध प्रदर्शन हुए थे।
जेएनयू के छात्र शरजील इमाम के ख़िलाफ़ नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के दौरान अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय और दिल्ली के जामिया इलाक़े में भड़काऊ भाषण देने के आरोप लगे थे। उनपर राजद्रोह का केस चला।
कोविड लॉकडाउन के बाद धीरे-धीरे विरोध प्रदर्शन बंद हो गए। इसके बाद भी सीएए के नियमों को अधिसूचित नहीं किया जा सका। हालाँकि, जब तक उठते सवालों पर गृहमंत्री अमित शाह कहते रहे कि कोरोना संक्रमण ख़त्म होने के बाद इसको लागू किया जाएगा। अगस्त 2022 में अमित शाह ने कहा था कि सीएए कोविड वैक्सीनेशन अभियान पूरा होने के बाद लागू करने की प्रक्रिया शुरू होगी।
इसी बीच यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुँच गया। कई लोगों ने सीएए को धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाला बताते हुए चुनौती दी। तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके ने 2022 में सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दाखिल करके सीएए को देश की धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने के खिलाफ बताया। उसने कहा कि सीएए धर्म के आधार पर भेदभाव करता है। यह तमिल लोगों के खिलाफ है। तमिलनाडु और डीएमके पहला ऐसा राज्य और पार्टी है जो सीएए के खिलाफ कोर्ट पहुंची।
तो सवाल है कि ऐन चुनाव से पहले ही सीएए के नियमों को अधिसूचित क्यों किया गया? संसदीय प्रक्रियाओं की नियमावली के अनुसार, किसी भी कानून के नियम राष्ट्रपति की सहमति के छह महीने के भीतर तैयार किए जाने चाहिए या लोकसभा और राज्यसभा में अधीनस्थ कानून पर समितियों से विस्तार मांगा जाना चाहिए। सवाल है कि छह महीने के अंदर ही नियमों को अधिसूचित क्यों नहीं किया गया? क्या 2024 का इंतज़ार हो रहा था? चुनावों से पहले ध्रुवीकरण की राजनीति करने का आरोप झेलती रही बीजेपी की सरकार ने क्या किसी चुनावी मक़सद से इसे अब अधिसूचित किया?