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क्या कांग्रेस विभाजन के रास्ते पर बढ़ रही है? 

क्या कांग्रेस विभाजन के रास्ते पर बढ़ रही है? 

राहुल गांधी के ख़िलाफ़ पार्टी के बाहर और भीतर से नियोजित तरीक़े से प्रारम्भ हुए हमले अगर कोई संकेत हैं तो विभाजन की आशंका सही भी साबित हो सकती है। उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनावों के ऐन पहले बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को लेकर उभर रहे मतभेदों और उसके प्रति पार्टी आलाकमान की चुप्पी में कांग्रेस के अंदर मचे हुए घमासान की इबारतें पढ़ी जा सकतीं हैं। 

क्या अब मान लिया जाए कि कांग्रेस पार्टी विभाजन की कगार पर पहुँच गई है? राहुल गांधी के ख़िलाफ़ पार्टी के बाहर और भीतर से नियोजित तरीक़े से प्रारम्भ हुए हमले अगर कोई संकेत हैं तो विभाजन की आशंका सही भी साबित हो सकती है। इस आशंका के सिलसिले में दो खबरें हैं। दोनों ही महत्वपूर्ण हैं- पहली यह है कि राहुल का ट्विटर अकाउंट उनके एक विवादास्पद ट्वीट को लेकर ट्विटर द्वारा ‘अस्थायी रूप से ‘ बंद कर दिया गया है। 

राहुल का अंतिम ट्वीट छह दिन पूर्व देखा गया था जिसमें उन्होंने कहा था : ‘चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ‘हमारे दो’ का! बैल ‘हमारे दो’ का, हल ‘हमारे दो’ का, हल की मूठ पर हथेली किसान की, फसल ‘हमारे दो’ की! कुआँ ‘हमारे दो’ का, खेत-खलिहान ‘हमारे दो’ के, PM ‘हमारे दो’ के, फिर किसान का क्या? किसान के लिए हम हैं।’ इस ट्वीट के बाद से ही किसान राहुल गांधी की तलाश कर रहे हैं।

सिब्बल की दावत 

दूसरी खबर कुछ ज़्यादा सनसनीख़ेज़ है। वह यह कि राहुल गांधी की दो दिन की कश्मीर यात्रा के दौरान नई दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने नौ अगस्त (‘भारत छोड़ो दिवस’) को अपने निवास स्थान पर अपना चौहत्तरवाँ जन्मदिन मना लिया। उनकी जन्म तारीख़ वैसे आठ अगस्त है। इस अवसर पर आयोजित दावत में (बीएसपी को छोड़कर) अधिकांश विपक्षी दलों के नेता अथवा उनके प्रतिनिधि उपस्थित थे। इनमें वे भी थे जो राहुल की चाय पार्टी में नहीं गए थे। 

बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की ज़रूरत के साथ-साथ इस चर्चित बर्थ-डे दावत में इस बात की चर्चा भी की गई कि कांग्रेस को गांधी परिवार के आधिपत्य से मुक्त कराये जाने की आवश्यकता है।

उठाई थी आवाज़

सिब्बल उन 23 नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन की माँग की थी। उस पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकांश नेता इस दावत में उपस्थित थे (जैसे ग़ुलाम नबी आज़ाद, चिदम्बरम और उनके बेटे, आनंद शर्मा, शशि थरूर, मनीष तिवारी, पृथ्वीराज चव्हाण, मुकुल वासनिक, राज बब्बर, विवेक तनखा आदि) पर एक ख़ास बड़े नाम को छोड़कर। यह बड़ा नाम सलमान ख़ुर्शीद का है।

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सलमान ख़ुर्शीद आए सामने 

सलमान ख़ुर्शीद ने पिछले दिनों एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित आलेख में कपिल सिब्बल से पहली बार सार्वजनिक रूप से पंगा लिया था। कारण सिब्बल का वह इंटरव्यू था जिसमें उन्होंने यह कह दिया था कि सभी तरह की सांप्रदायिकता ख़राब है- बहुसंख्यकों की हो या अल्पसंख्यकों की। 

सलमान ने सिब्बल की कही बात को यह कहते हुए पकड़ लिया कि : ऊपरी तौर पर तो ऐसा कहने में कोई ग़लत बात नहीं है पर बारीकी से जाँच करने पर उसके (सिब्बल के कहे के) ऐसे निहितार्थ व्यक्त होते हैं जो शायद उनका (सिब्बल का) इरादा नहीं रहा होगा। 

सलमान ने अपने आलेख में मई 1958 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के खुले सत्र में दिए गए पंडित नेहरू के उद्बोधन की ओर सिब्बल का ध्यान आकर्षित किया।

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बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता का जिक्र

सलमान के मुताबिक़, नेहरू ने कहा था कि अल्पसंख्यकों की तुलना में बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता ज़्यादा ख़तरनाक है। यह साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद का मुखौटा चढ़ाए रहती है। इस सांप्रदायिकता ने गहरी जड़ें बना लीं हैं और ज़रा सी उत्तेजना पर वह फूट पड़ती है। इस साम्प्रदायिकता के जागृत किए जाने पर भले लोग भी ख़ूँख़ार व्यक्तियों की तरह बरताव करने लगते हैं।

सलमान कांग्रेस की उस छानबीन समिति के सदस्य थे जिसने पिछले साल के अंत में हुए विधान सभा चुनावों के परिणामों की समीक्षा की थी। उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में होने जा रहे चुनावों के संदर्भ में उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि : पार्टी को इस बात पर दुःख मनाना बंद कर देना चाहिए कि उसकी हार का कारण मुसलिम दलों के साथ गठबंधन करना रहा है। बीजेपी के बहुसंख्यकवाद के दबाव में उसे अपनी उन नीतियों में परिवर्तन नहीं कर देना चाहिए जो राष्ट्रीय आंदोलनों के समय से उसका हिस्सा रही हैं। 

सलमान ने यह भी कहा है कि वैसे तो इस तरह के मुद्दे पार्टी के भीतर ही उठाए जाने चाहिए पर उन्हें सार्वजनिक इसलिए होना पड़ा कि एक ही बात को जब बार-बार कहा जा रहा है तो वे उसके प्रति मौन को सहमति मान लेने का लाभ नहीं देना चाहते।

पार्टी में घमासान?

उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनावों के ऐन पहले बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को लेकर उभर रहे मतभेदों और उसके प्रति पार्टी आलाकमान की चुप्पी में कांग्रेस के अंदर मचे हुए घमासान की इबारतें पढ़ी जा सकतीं हैं। नौ अगस्त की बर्थ डे दावत के दौरान ही यह भी उजागर हुआ कि कपिल सिब्बल की सोनिया गांधी के साथ पिछले दो सालों में कोई मुलाक़ात ही नहीं हुई है। 

सिब्बल की दावत में सोनिया, राहुल और प्रियंका को आमंत्रित ही नहीं किया गया था। दावत में उमर अब्दुल्ला ने ज़रूर कहा कि जब-जब कांग्रेस मज़बूत हुई है, विपक्ष ज़्यादा ताकतवर हुआ है।

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...आरएसएस की तरफ़ जाओ 

गांधी परिवार की ओर से सिब्बल की बर्थ डे दावत को लेकर अभी कोई भी प्रतिक्रिया बाहर नहीं आई है। शायद आएगी भी नहीं। लगभग एक महीने पहले (सोलह जुलाई को) राहुल गांधी ने पार्टी की सोशल मीडिया टीम के साथ बातचीत में यह ज़रूर कहा था कि कांग्रेस में जो भी डरपोक लोग हैं उन्हें बाहर कर दिया जाना चाहिए। “चलो भैया, जाओ आरएसएस की तरफ़। पार्टी को आपकी ज़रूरत नहीं है।”

तीन तरह की आशंकाएं 

कपिल सिब्बल द्वारा आयोजित दावत से तीन तरह की आशंकाओं को बल मिलता है : पहली तो यह कि (जैसा कि कथित तौर पर दावा भी किया गया है) दावत के आयोजक ही अब अपने आपको असली कांग्रेस मानते हैं। अतः माना जा सकता है कि कांग्रेस अनौपचारिक तौर पर विभाजित हो चुकी है। 

दूसरी यह कि क्या राहुल गांधी अब कोई नई चाय पार्टी आयोजित कर बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की दिशा में पहल करना चाहेंगे? शायद नहीं। हो सकता है वे अब अकेले ही अपनी लड़ाई जारी रखें। तीसरी यह कि कांग्रेस की अपने बीच उपस्थिति से विपक्षी एकता में दरार पड़ सकती है। अकाली दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस के सख़्त ख़िलाफ़ हैं।

बीजेपी सुकून में

उल्लेखनीय यह भी है कि विपक्षी एकता की धुरी बनते नज़र आ रहे प्रशांत किशोर भी परिदृश्य से अचानक ही ग़ायब-से हो गए हैं। कांग्रेस के अंदरूनी घमासान और विपक्षी पार्टियों के बीच एकता के अनिश्चित भविष्य को लेकर जो कुछ भी इस समय चल रहा है उससे बीजेपी तात्कालिक रूप से काफ़ी निश्चिंतता का अनुभव कर सकती है। उसे ऐसा महसूस करने का हक़ भी है।

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