हैदराबाद की कश्मीर फाइल्स जैसी है 'रजाकार'
आजकल हर महीने कोई ना कोई ऐसी फिल्म आती है जिसका राजनीतिक एजेंडा होता है। राजनीतिक फिल्में तो पहले भी बनती रही हैं, लेकिन अब जो फिल्में राजनीति को लेकर बनाई जा रही हैं उनका मुख्य उद्देश्य होता है सत्तारूढ़ पार्टी की मदद करना। चुनाव के ठीक पहले इस तरह की फिल्मों की बाढ़ आ गई है। इस सप्ताह भी एक ऐसी ही फिल्म लगी है 'रजाकार'। यह फिल्म तेलुगु और हिन्दी में रिलीज हुई है। यह हैदराबाद की 'द कश्मीर फाइल्स' है। वैसी ही हिंसा, वैसा ही हिन्दू- मुस्लिम बंटवारा।
यह फिल्म हैदराबाद को भारत में विलय करने के मुद्दे पर बनी है। फिल्म बताती है कि हैदराबाद के भारत में विलय को लेकर जो बेचैनी सरदार पटेल में थी, वह जवाहरलाल नेहरू में नहीं थी। अंचल के गांवों में हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार हो रहे थे और तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू फैसला लेने में डर रहे थे। यह फिल्म वोटों के ध्रुवीकरण के लिए बनी लगती है और लोकसभा चुनाव के बीच में फिल्म आई है।
'रजाकार : द साइलेंट जेनोसाइड का हैदराबाद' फिल्म दिखाया गया है कि भारत का बँटवारा होने पर जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद का विलय भारत में नहीं हुआ था। हैदराबाद के निजाम उसे तुर्किस्तान बनाना चाहते थे। 224 साल से उनका शासन था और आज़ादी की लड़ाई में पूरा अंचल शांत था, मानो अंग्रेज़ों के साथ था। निजाम पाकिस्तान से हाथ मिलाने के लिए उत्सुक थे और भारत के साथ विलय की मांग करने वाली स्थानीय 85 प्रतिशत हिंदू आबादी के साथ क्रूरता से पेश आ रहे थे।
हैदराबाद के निजाम और भारत सरकार के बीच एक साल का यथास्थिति समझौता यानी स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट था, लेकिन इसके बाद भी निजाम ने पाकिस्तान की सरकार को 20 करोड़ रुपये दिए और पाकिस्तान के एक राजनयिक को अपने यहां बुलाकर 'प्रधानमंत्री' नियुक्त कर लिया। उसने रजाकारों की एक अपनी अलग मिलिशिया बना रखी थी, जिसके माध्यम से वह वसूली किया करता था। इतना ही नहीं, उसने गोवा को पुर्तगालियों से खरीदने की तैयारी भी कर ली थी और अपनी दौलत लंदन में सुरक्षित जमा कर रखी थी।
फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं है। मकरंद देशपांडे ने हैदराबाद के निजाम की भूमिका की है और सरदार पटेल की भूमिका में तेज सप्रू हैं। प्रोड्यूसर गुडूर नारायण रेड्डी किसी बड़े सितारे को चाहते थे लेकिन मुंबई या दक्षिण भारतीय फिल्मों का कोई बड़ा सितारा राजी नहीं हुआ। फिल्म के पहले आधे भाग में केवल यही दिखाया गया है कि किस तरह हिंदुओं के साथ अत्याचार होते रहे। उनके बच्चों को जलती आग में फेंका गया। महिलाओं के साथ बलात्कार होते रहे। किसानों और महिलाओं के साथ लूटपाट होती रही और विद्रोह करने वालों को किस तरह यातनाएं दी गईं। दूसरे भाग में हैदराबाद के ग्रामीण अंचलों में हुए विद्रोह की कहानी है।
राजनीति को लेकर जितनी फिल्में भारत, मुंबई में बनती हैं उससे ज्यादा फिल्में दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनती रही हैं। किस्सा कुर्सी का इमरजेंसी पर आधारित फिल्म थी, जिसे बैन का सामना करना पड़ा। हिन्दी में कुछ ऐसी फिल्में भी बनती रही हैं, जिनका ब्रैकड्रॉप राजनीतिक रहा है। गुलाल, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, नायक, मद्रास कैफे, सरकार, रक्त चरित्र, युवा, शंघाई, सरकार, वन, आरक्षण आदि में किसी पार्टी का स्पष्ट एजेंडा नहीं रहा, लेकिन पिछले कुछ दिनों से ऐसी फिल्में बनाई जा रही हैं जिनका उद्देश्य मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना है। जैसे द कश्मीर फाइल्स, द केरल स्टोरी, पीएम नरेंद्र मोदी, 72 हूरें, मैं अटल हूं, गांधी गोडसे -एक युद्ध, इमरजेंसी, स्वातंत्र्य वीर सावरकर, द वैक्सीन वार, बस्तर नक्सली स्टोरी, गोधरा -एक्सीडेंट या कांस्पीरेसी, साबरमती रिपोर्ट, आर्टिकल 370, एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर आदि। मंडी से बीजेपी उम्मीदवार कंगना रनौत की 'इमरजेंसी' जून में चुनाव के बाद लगेगी, ताकि वे उसके प्रमोशन पर ध्यान दे सकें।
बेशक, फिल्में कला का माध्यम हैं और मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना होता है। लेकिन अब फिल्मों का प्रयोग आम जनता के मन में अवधारणा बनाने के लिए किया जा रहा है। हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स ने भी फिल्मों का उपयोग किया था। भारत में भी प्रचार माध्यम एकपक्षीय प्रचार में जुटे हैं और अब कुछ फ़िल्में भी प्रचार के बहाने कमाई की मशीनें बन गई हैं।