फिल्म समीक्षा: 'कर्तम भुगतम' नहीं, 'देखम झेलम भुगतम'
अर्थशास्त्र का सिद्धांत है - बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है, वैसे ही बुरी फ़िल्में अच्छी फिल्मों को चलन से बाहर कर देती हैं। राजनीति में भी यही सिद्धांत चल रहा है। अजय देवगन और माधवन की शैतान का काला जादू, कंगना की चंद्रमुखी 2 के चर्चे खूब होते हैं। विद्या बालन की भूल भुलैया, तुम्बाड फिल्म का शापित गांव, नाग-नागिन किस्से आदि को दर्शकों का बड़ा वर्ग पसंद करता है। ऐसे में अंधविश्वासी और ढोंगी ज्योतिषी को एक्सपोज़ करती फिल्म को अच्छे प्रतिसाद की क्या उम्मीद?
सन्देश अच्छा है, लेकिन प्रस्तुति अझेलनीय ! इस फिल्म का नाम 'कर्तम भुगतम' नहीं, 'देखम झेलम भुगतम' होना चाहिए था। कहते हैं कि फिल्म छोटे बजट की है, लेकिन पांच भाषाओं में बनी है और इसे साइकोलॉजिकल थ्रिलर का नाम दिया गया है। फिल्म की कहानी ज्योतिष के अंधविश्वास के खिलाफ है, लेकिन दुनिया में करोड़ों लोग राशि, वास्तु, कुंडली, टैरो, पत्रिका, अंक विज्ञान, जन्म कुंडली, ग्रह, नक्षत्र, रत्न और टोने-टोटके को मानते हैं। यह कारोबार कोरोना के बाद और ज्यादा फल-फूल रहा है। अंधविश्वास को फैलाने के लिए हत्या के षड्यंत्र तक किये जाते हैं। इस फिल्म में टर्न और ट्विस्ट हैं, शुरू में अन्धविश्वास फ़ैलाने वाली घटनाएं हैं और अंत में पता चलता है कि अरे यह फिल्म तो फर्जी ज्योतिषियों और पाखंडियों के खिलाफ है!
ज्योतिष को विज्ञान मानने वाले भी करोड़ों लोग हैं। लगभग हर धर्म में 'जैसा करोगे, वैसा भुगतोगे' का सन्देश है। पाखंडी ज्योतिषियों का धंधा किस तरह धोखेबाजी में बदल जाता है, इसके कई नमूने देश में हैं। निर्देशक सोहम शाह पहले 'काल' और 'लक' जैसी फ़िल्में बना चुके हैं। मध्य प्रदेश में आजकल तरह-तरह के ज्योतिषी, बाबा और टोने टोटके करने वालों की संख्या बढ़ गई है शायद इसीलिए इस फिल्म की कहानी भी भोपाल के एक युवा की है, जो न्यूज़ी लैंड में रहते हुए कोरोना में अपने पिता को खो चुका है और भोपाल में अपनी पैतृक प्रॉपर्टी बेचकर वापस विदेश में बस जाना चाहता है। उसके यहां आते ही पाखंडी ज्योतिषी का खेल शुरू होता है। लेकिन हीरो की 6 साल पुरानी गर्लफ्रेंड विदेश से आकर हीरो को बचा लेती है। ढोंगी बाबा का राजफाश होता है।
हिन्दी दर्शकों ने हाल ही अजय देवगन और माधवन की शैतान में ऊलजलूल काला जादू देखा। फिल्म चली भी। यह फिल्म अन्धविश्वास के खिलाफ है और इसे दर्शक नहीं मिल रहे हैं। फिल्म का एक मजेदार संदेश यह भी है कि ज्यादातर कर्मकांडी और टोने-टोटके करने वाले लोग अपने एजेंटों के जरिए धंधे को बढ़ाते हैं। ग्राहक को फंसाने के लिए जाल बिछाया जाता है। कर्मकांड किए जाते हैं। ये लोग पूजा पद्धतियों और उपवासों का भी सहारा लेते हैं ताकि आम आदमी का विश्वास जीत सकें।
भारत में बड़े-बड़े नेता, अभिनेता और उद्योगपति ज्योतिषियों को मानते हैं। प्रधानमंत्री लोकसभा चुनाव के नॉमिनेशन के वक्त ज्योतिषी को साथ ले जाते हैं और उसके बताये समय पर नामांकन भरते हैं। बड़े बड़े सितारे नाम की स्पेलिंग बदल लेते हैं। वार के हिसाब से कई लोग कपड़ों का रंग तय करते हैं। यह फिल्म हिंदी के अलावा तमिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम में भी रिलीज हुई है। इसलिए इसके एक प्रमुख पात्र को अन्ना नाम दिया गया है।
श्रेयस तलपड़े, विजय राज, मधु, अक्षा परदासनी और गौरव डागर की मुख्य भूमिका है। फिल्म में भोपाल की खूबसूरती लुभाती है। कहानी रोमांचक है। एक्टिंग भी अच्छी है और निर्देशन सामान्य है। फिल्म का पार्श्व संगीत कानफोड़ू है। दर्शक फिल्म से राब्ता नहीं बना पाता।
प्रस्तुतिकरण के कारण फिल्म अझेलनीय है।