
'एम्पुरान' में गुजरात दंगों का ज़िक्र? विवाद पर मोहनलाल ने खेद क्यों जताया
मलयालम सिनेमा के सुपरस्टार मोहनलाल की आगामी फिल्म 'एल2: एम्पुरान' हाल ही में सुर्खियों में रही है, लेकिन इस बार वजह उनकी एक्टिंग या फ़िल्म की भव्यता नहीं, बल्कि एक गंभीर विवाद है। फ़िल्म में 2002 के गुजरात दंगों से प्रेरित कुछ दृश्यों को शामिल किए जाने की ख़बरों के बाद सोशल मीडिया और जनता के बीच तीखी प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं। इस विवाद के बीच मोहनलाल ने सफ़ाई दी है कि गुजरात दंगों की थीम को फ़िल्म से हटा दिया जाएगा और उनकी किसी भी फ़िल्म में नफ़रत को बढ़ावा देने का इरादा नहीं है।
इस घटनाक्रम ने कई सवाल खड़े किए हैं- मोहनलाल ने क्या कहा, उनकी फिल्म पर विवाद क्यों हुआ, नफ़रत फैलाने का आरोप क्यों लगा, और क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है? इन सवालों के जवाब बाद में, पहले यह जान लें कि आख़िर मोहनलाल ने क्या कहा है।
मोहनलाल ने विवाद के बाद एक बयान जारी कर कहा, 'मेरी किसी भी फ़िल्म में नफ़रत नहीं है। 'एम्पुरान' एक काल्पनिक कहानी है, और इसका मक़सद किसी समुदाय या घटना को ग़लत तरीक़े से पेश करना नहीं था। गुजरात दंगों से मिलते-जुलते दृश्यों को लेकर जो चिंताएं उठी हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए हमने इन हिस्सों को फ़िल्म से हटाने का फ़ैसला किया है।' उन्होंने कहा है 'आपको हुई पीड़ा पर हमें खेद है।'
उन्होंने यह भी जोड़ा कि उनका उद्देश्य हमेशा से दर्शकों का मनोरंजन करना और सकारात्मक संदेश देना रहा है, न कि विवाद खड़ा करना। मोहनलाल के इस बयान को उनके प्रशंसकों ने समर्थन दिया, लेकिन कुछ आलोचकों का कहना है कि यह कदम दबाव में उठाया गया है।
'एल2: एम्पुरान' पृथ्वीराज सुकुमारन के निर्देशन में बन रही एक बड़ी मलयालम फ़िल्म है, जो 'लूसिफर' की सीक्वल है। फ़िल्म के कुछ दृश्यों में गोधरा कांड और उसके बाद हुए गुजरात दंगों से मिलती-जुलती घटनाओं को दिखाए जाने की बात सामने आई थी। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इसे हिंदू-विरोधी और नफ़रत फैलाने वाला क़रार दिया। इसके बाद यह विवाद बढ़ता चला गया। एक्स पर कई यूजरों ने दावा किया कि फिल्म में इन संवेदनशील घटनाओं को ग़लत तरीक़े से पेश किया जा रहा है, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ सकता है। इसके जवाब में सेंसर बोर्ड ने भी कथित तौर पर फ़िल्म से 17 दृश्यों को हटाने का निर्देश दिया है। यह सवाल उठता है कि क्या फ़िल्म निर्माताओं ने जानबूझकर इस थीम को चुना, या यह महज एक संयोग था जो ग़लत समझा गया?
फ़िल्म पर नफ़रत फैलाने का आरोप लगाने वालों का तर्क है कि गुजरात दंगे जैसे संवेदनशील मुद्दे को सिनेमा में उठाना, खासकर अगर उसे एक खास नज़रिए से पेश किया जाए, समाज में तनाव पैदा कर सकता है।
2002 के गुजरात दंगे में हज़ारों लोग मारे गए थे। यह भारतीय इतिहास का एक दुखद अध्याय है। इस घटना को लेकर आज भी राजनीतिक और सामाजिक बहस जारी है। ऐसे में, फ़िल्म में इस थीम का इस्तेमाल कुछ लोगों को धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाला लगा।
हालाँकि, मोहनलाल और उनकी टीम का कहना है कि यह एक काल्पनिक कहानी थी, और इसका कोई राजनीतिक या सांप्रदायिक मक़सद नहीं था। यहाँ सवाल यह है कि क्या हर संवेदनशील विषय को सिनेमा से दूर रखना चाहिए, या फिर इसे कला की स्वतंत्रता के दायरे में देखा जाना चाहिए?
यह पूरा प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर भी सवाल उठाता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी है, लेकिन यह अधिकार अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ सीमाओं के अधीन है, जैसे कि सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता। 'एम्पुरान' का मामला यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या फिल्म निर्माताओं को अपनी कहानी कहने की पूरी छूट होनी चाहिए, या फिर सामाजिक संवेदनशीलता को प्राथमिकता देनी चाहिए। कुछ का मानना है कि यह सेंसरशिप का अतिरेक है, जबकि अन्य इसे ज़रूरी क़दम मानते हैं ताकि नफ़रत और हिंसा को बढ़ावा न मिले।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के ख़िलाफ़ एक एफ़आईआर को रद्द करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी। कोर्ट ने कहा, 'कविता, स्टैंड-अप कॉमेडी या कला के किसी भी रूप से समुदायों के बीच नफ़रत पैदा होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। हमारे गणतंत्र के 75 साल बाद भी हम इतने कमजोर नहीं हो सकते कि एक कला के प्रदर्शन को दुश्मनी का आधार मान लिया जाए।' जस्टिस अभय एस. ओका और उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने यह भी कहा कि साहित्य और कला ने मानव जीवन को समृद्ध बनाया है। इस फ़ैसले को 'एम्पुरान' विवाद के संदर्भ में देखें, तो यह सवाल उठता है कि क्या फ़िल्म को भी इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए, या फिर इसकी संवेदनशील थीम इसे अलग श्रेणी में रखती है?
मोहनलाल का 'एम्पुरान' से गुजरात दंगों की थीम हटाने का फ़ैसला विवाद को शांत करने की कोशिश है, लेकिन यह बहस ख़त्म नहीं हुई है। यह घटना बताती है कि कला और वास्तविकता के बीच की रेखा कितनी पतली है, और इसे पार करने की क़ीमत क्या हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट का हालिया रुख अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मज़बूती देता है, लेकिन साथ ही यह भी याद दिलाता है कि इस आज़ादी के साथ ज़िम्मेदारी भी जुड़ी है। 'एम्पुरान' का यह विवाद शायद फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए एक सबक़ हो- कि कहानी कहने की कला में संतुलन और संवेदनशीलता का होना कितना ज़रूरी है। क्या यह सेंसरशिप की जीत है, या सामाजिक सौहार्द की?
(रिपोर्ट: अमित कुमार सिंह)