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शी जिनपिंग का राष्ट्रवाद भारत के लिये बड़ी चुनौती!

शी जिनपिंग का राष्ट्रवाद भारत के लिये बड़ी चुनौती!

शी जिनपिंग का चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अधिवेशन में फिर से सर्वोच्च नेता चुना जाना महज़ एक औपचारिकता है। तो क्या वह ज़्यादा ताक़तवर नेता बनकर उभरेंगे? इसका भारत के लिए क्या मायने है?

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का महाधिवेशन हर पाँच साल बाद होता है। इसमें कम्युनिस्ट पार्टी के 2300 प्रतिनिधि भाग लेते हैं जो देश भर में फैले लगभग 90 लाख पार्टी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सदस्य कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के 200 सदस्यों को चुनते हैं। केंद्रीय समिति पोलित ब्यूरो के 25 सदस्यों को और पार्टी महासचिव को चुनती है जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च नेता होता है। चीन में पार्टी महासचिव ही राष्ट्रपति और सेना आयोग का प्रमुख भी होता है। पोलित ब्यूरो राष्ट्रपति की मंत्रिपरिषद का काम करती है और स्थायी समिति के सात सदस्यों को चुनती है जो पार्टी के वरिष्ठतम नेता होते हैं। पार्टी महासचिव का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है।

माओ त्से तुंग के ज़माने तक महासचिव के कार्यकालों की कोई सीमा नहीं थी। पर डंग शियाओ पिंग ने संविधान संशोधन करके नियम बनाया था कि कोई महासिचव दो कार्यकाल से अधिक पद पर नहीं रहेगा। शी जिनपिंग ने 2018 में संविधान संशोधन करके उस नियम को रद्द कर दिया है। इसलिए अब वे जब तक चाहें या हटाए न जाएँ तब तक सर्वोच्च नेता बने रह सकते हैं।

शी जिनपिंग पिछले दस वर्षों से चीन के सर्वोच्च नेता हैं। पर उन्हीं के द्वारा किए गए संविधान संशोधन के कारण अब उन्हें पद छोड़ने की ज़रूरत नहीं है। पार्टी महाधिवेशन शुरू होने से पहले जिस तरह एक स्वर में सारे प्रतिनिधियों ने उनके नेतृत्व में अपनी निष्ठा प्रकट की है उसे देखते हुए इस बार की पार्टी कांग्रेस में भी शी जिनपिंग का सर्वोच्च नेता चुना जाना महज़ एक औपचारिकता है। उत्सुकता केवल इस बात को लेकर है कि स्थायी समिति में उनके अलावा किन छह नेताओं को रखा जाता है और उनमें से भी कौन-सा नेता शी जिनपिंग की बगल में स्थान पाता है। स्थायी समिति में जिस नेता को सर्वोच्च नेता की बगल में स्थान मिलता है उसे एक उत्तराधिकारी या अगले नेता के रूप में देखा जाने लगता है। पर इस बार पार्टी में दूसरे स्थान पर समझे जाने वाले प्रधानमंत्री ली केचियांग के भी सेवानिवृत्त होने की बात हो रही है। अपना उत्तराधिकारी तैयार करने के बजाय शी जिनपिंग ने उन सभी को हाशिए पर डाल दिया है जिनसे उन्हें चुनौती मिल सकती थी।

चीन विशेषज्ञों का मानना है कि शी जिनपिंग की शैली डंग शियाओ पिंग और हू जिन्ताओ की जगह माओ त्से तुंग वाली रही है। पूर्व राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने एक तरह के अनौपचारिक मतदान की परंपरा शुरू की थी जिसे दलगत लोकतंत्र का नाम दिया गया था। इसका उद्देश्य पोलित ब्यूरो और स्थायी समिति के सदस्यों को चुनने से पहले उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा लगाना था।

शी जिनपिंग ने पिछले पार्टी अधिवेशन में उस परंपरा को रद्द करते हुए उम्मीदवारों से निजी तौर पर मिलना और उनकी राय लेना शुरू किया जिसका लक्ष्य विरोधियों को रास्ते से हटा कर अपने वफ़ादारों को निर्णायक पदों पर जमाना था। माओ की ‘सांस्कृतिक क्रांति’ की तर्ज़ पर शी जिनपिंग ने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम भी चलाईं जिनमें भ्रष्ट नेताओं के साथ-साथ विरोधियों को भी चुन-चुन कर निशाना बनाया गया और पार्टी के तंत्र को पूरी तरह निष्कंटक बना लिया गया। जानकारों का कहना है कि ज़्यादातर वरिष्ठ नेताओं के बच्चे या सगे-संबंधी बड़े-बड़े व्यापार और कारोबार चलाते हैं जिन्हें सुरक्षित रखने के लिए भी सर्वोच्च नेता की हाँ में हाँ मिलाकर चला जाता है।

शी जिनपिंग ने उस समय कमान संभाली थी जब विश्व की अर्थव्यवस्था 2008 के वित्तीय संकट के झटके से उबर रही थी। इसके बावजूद शी के दशक में चीन के आर्थिक विकास की रफ़्तार उनके पूर्ववर्ती हू जिन्ताओ के कार्यकाल की तुलना में करीब आधी ही रही है।

कोविड की रोकथाम को शी जिनपिंग अपनी सरकार की एक प्रमुख उपलब्धि मानते हैं। परंतु रोकथाम के लिए टीकों की जगह लॉकडाउन का प्रयोग करने और ज़ीरो कोविड नीति के कारण चीन की अर्थव्यवस्था उतनी तेज़ी से नहीं उबर पाई है जितनी तेज़ी से यूरोप, अमेरिका और एशिया के दूसरे देशों में उबरी। पार्टी कांग्रेस से पहले और उसके दौरान भी शिनजांग, चेंगडू और बेजिंग जैसे कई बड़े शहरों में कारोबार बंद रहने को मजबूर हैं। ज़ीरो कोविड नीति से लोग इतने उकता गए हैं कि एक प्रदर्शनकारी ने पार्टी अधिवेशन से पहले एक सड़क पुल पर बड़े बैनर लगाए, टायर जलाए और भोंपू पर प्रचार किया जो शी जिनपिंग के चीन में अचरज की बात थी। लेकिन शी जिनपिंग ने अपनी नीतियों का समर्थन करते हुए कहा कि उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता चीनी लोगों की जान बचाना थी।

 - Satya Hindi

बहरहाल, चीनी अर्थव्यवस्था की सुस्ती का कारण केवल कोविड लॉकडाउन ही नहीं हैं। विकास की रफ़्तार महामारी से पहले भी धीमी थी। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चीनी अर्थव्यवस्था विकास के उस चरण में पहुँच चुकी है जहाँ केवल निर्यातों के दम पर 10 से 12 प्रतिशत सालाना की विकास दर हासिल कर पाना कठिन है। अब उसे चार से छह प्रतिशत की विकास दर की आदत डालनी होगी। इसलिए शी जिनपिंग ने अपने इस साल के भाषण में निर्यात के साथ-साथ घरेलू अर्थव्यवस्था के विकास पर ज़ोर दिया है। लेकिन साथ में उन्होंने ख़ुशहाली की बराबरी की बात भी की है। इसका मतलब संपन्न वर्ग से टैक्स वसूल करके निर्धन वर्गों पर ख़र्च करने वाला सामाजिक न्याय नहीं है। वे चीन को आधुनिक समाजवादी देश बनाने का सपना ज़रूर दिखा रहे हैं लेकिन करदाताओं के दायरे को फैलाने या संपत्ति और निवेश से होने वाले लाभ पर टैक्स लगाने जैसी बात नहीं कर रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी और नई तकनीकों में निवेश करके तेज़ी से संपन्न बने उद्योगपतियों और कारोबारियों की संपत्ति पर नज़र रखने और एक तरह की सीमा लगाए जाने की बात हो रही है जो उन उद्योगपतियों और विदेशी निवेशकर्ताओं को आशंकित कर रही है जो अलीबाबा के संस्थापक जैक मा के साथ हुए व्यवहार के कारण पहले से ही डरे हुए थे।

इधर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने चीन के साथ अत्याधुनिक सेमीकंडक्टर तकनीक के आदान-प्रदान पर पाबंदी लगा दी है। इसका उद्देश्य कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence) और मशीन प्रशिक्षण जैसी अत्याधुनिक तकनीकों की दौड़ में चीन को बराबरी करने से रोकना है। इसका मुकाबला करने के लिए शी जिनपिंग ने अब चीनी उत्पादों की गुणवत्ता, मानकीकरण अनुसंधान पर ज़ोर देने का लक्ष्य बनाया है। लेकिन ये सब काम भी सेमीकंडक्टरों के बिना पूरे नहीं हो सकते। यह भाँपते हुए अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। पर उसमें पूँजी और समय लगेगा।

इस बीच चीन के जायदाद क्षेत्र में कर्ज़ और मंदी का संकट बढ़ता जा रहा है। ज़मीन और मकानों के लिए कर्ज़ देने वाले बड़े-बड़े बैंकों के डूब जाने का ख़तरा है।

विकास दर धीमी पड़ने से युवकों में बेरोज़गारी बढ़ रही है और एक संतान नीति की वजह से काम की उम्र के लोगों की तुलना में बुजुर्ग आबादी बढ़ती जा रही है। इनकी पेंशन पर होने वाला ख़र्च बढ़ रहा है। तानाशाही वाले देशों में आर्थिक विकास के आरंभिक चरण के बाद जहाँ-जहाँ आर्थिक समस्याएँ पैदा हुई हैं वहाँ-वहाँ राजनीतिक सुधारों के आंदोलन चले हैं और लोकतंत्र की नींव पड़ी है। दक्षिण कोरिया, ताईवान और सिंगापुर इसी दौर से गुज़रे हैं। शी जिनपिंग इस संभावना को लेकर पहले से सतर्क हैं और आर्थिक समस्याओं से पैदा हो सकने वाले असंतोष और विरोध के हर रास्ते पर वे शिकंजा कसते जा रहे हैं।

लोगों का ध्यान आर्थिक चुनौतियों से हटा कर चीनी राष्ट्रवाद और चीन की खोई प्रतिष्ठा को बहाल करने की मुहिम पर लगाना इसी कोशिश का हिस्सा है। शी जिनपिंग अपने दशक की तीन बड़ी उपलब्धियाँ मानते हैं। 

  • बेल्ट रोड परियोजना से चीन को एशिया, यूरोप और अफ़्रीका से जोड़ना, 
  • राजनीतिक असंतोष को दबा कर हांगकांग में चीनी व्यवस्था कायम करना, 
  • महामारी की सफलतापूर्वक रोकथाम करना। 

इन कामयाबियों में अब एक नया लक्ष्य जोड़ दिया गया है और वह है चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना सदी से पहले-पहले ताईवान का चीन के साथ एकीकरण पूरा करना। 

इसकी तैयारी में शी जिनपिंग तेज़ी से नौसेना और परमाणु शक्ति के विकास में लग गए हैं। पिछले दस वर्षों में चीन ने दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना और थलसेना तैयार कर ली है। ताईवान की नौसैनिक नाकेबंदी और सचमुच के प्रक्षेपास्त्र दाग़ कर उसने यह भी दिखा दिया है कि यदि वह चाहे तो ताईवान पर जबरन क़ब्ज़ा कर सकता है। 

अमेरिका ताईवान को मित्र द्वीप देशों की उस रक्षा पंक्ति की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी मानता आया है जो जापान से लेकर फ़िलिपीन्स तक चीन को घेरे हुए फैली है। इस रक्षा पंक्ति को मज़बूती देने के लिए उसने एक नई रक्षा पंक्ति बनाई है जिसे क्वॉड कहते हैं। इसकी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी भारत है।

कम्युनिस्ट पार्टी, सरकार और सेना पर शी जिनपिंग का नियंत्रण लगभग वैसा ही हो चुका है जैसा माओ का था। लेकिन आज के चीन की अर्थव्यवस्था और सामरिक शक्ति माओ के ज़माने से कई गुणा है। यह दीगर बात है कि शी जिनपिंग को माओ जितना जोखिम उठाना पसंद नहीं है। फिर भी, आर्थिक चुनौतियों से घिरी तानाशाही महाशक्ति पड़ोस के लिए ही नहीं पूरे क्षेत्र और विश्व के लिए गंभीर चिंता और सतर्कता का विषय है। 

चीन के साथ अमेरिका की आर्थिक लड़ाई तो भारत के हित में है। क्योंकि यदि वह अमेरिका-चीन व्यापार का कुछ हिस्सा भी अपनी तरफ़ खींच ले, उसके आर्थिक विकास को एक नई गति मिल सकती है। लेकिन अमेरिका के साथ चीन का सामरिक टकराव भारत के हित में नहीं है क्योंकि अमेरिका-चीन टकराव में भारत के लिए रूस-अमेरिका टकराव की तरह तटस्थ रह पाना मुश्किल होगा और भारत को भारत-चीन सीमा पर ख़तरा बढ़ने का जोखिम मोल लेना होगा। यदि ऐसा नहीं भी होता है तो भी भारत को चीन की सैन्य शक्ति के अनुपात में रक्षा शक्ति पर भी ख़र्च करते रहना होगा ताकि संतुलन बना रहे। किसी भी दृष्टि से देख लें, शी जिनपिंग के नेतृत्व वाला और धौंस की कूटनीति में यक़ीन रखने वाला राष्ट्रवादी चीन अगले दस वर्षों में पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए एक गंभीर चुनौती है।

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