मुख्य न्यायाधीश के दफ़्तर पर लागू होगा आरटीआई, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला
सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम फ़ैसले में कहा है कि मुख्य न्यायाधीश का दफ़्तर आरटीआई यानी सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत आएगा।
Supreme Court holds that office of Chief Justice of India is public authority under the purview of the transparency law, Right to Information Act (RTI). pic.twitter.com/97pyExixuQ
— ANI (@ANI) November 13, 2019
पाँच जजों के संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर सुनवाई 4 अप्रैल को ही पूरी कर ली थी। हाई कोर्ट और केंद्रीय सतर्कता आयोग के आदेश के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट के महासचिव और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी ने 2010 में अपील की थी।
सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को सही ठहराते हुए बुधवार को कहा :
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भारत का मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक यानी पब्लिक अथॉरिटी है। सूचना का अधिकार और निजता का अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
संविधान पीठ, सुप्रीम कोर्ट
इस खंडपीठ में मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस एन. वी. रमन्ना, डी. वाई. चंद्रचूड़, दीपक गुप्ता और संजीव खन्ना भी हैं। पीठ ने कहा कि पारदर्शिता के साथ ही न्यायिक स्वतंत्रता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
दिल्ली हाई कोर्ट ने 2010 में एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में कहा था कि मुख्य न्यायाधीश का दफ़्तर आरटीआई क़ानून के तहत आता है, क्योंकि न्यायिक स्वतंत्रता जज का विशेषाधिकार नहीं, उनकी ज़िम्मेदारी है।
अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया था कि मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को आरटीआई क़ानून के तहत लाने से न्यायिक स्वतंत्रता में 'अड़चन' आएगी।
आरटीआई कार्यकर्ता एस. सी. अगरवाल वह व्यक्ति थे, जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश के दफ़्तर को पारदर्शिता क़ानून के तहत लाने की मुहिम शुरू की थी। उनके वकील प्रशांत भूषण ने तर्क दिया था कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही मामलों की सुनवाई न करे, बल्कि यह अपील पर सुनवाई 'डॉक्ट्रिन ऑफ़ नेसेसिटी' के तहत करे।
प्रशांत भूषण ने कहा था कि न्यायपालिका आरटीआई के तहत जानकारी देने के मामले में 'हिचकती' है जो 'दुर्भाग्यपूर्ण और परेशान करने वाला' है।
प्रशांत भूषण ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट पारदर्शिता का साथ देती है, पर वह अपने मामलों में पाँव पीछे खींच लेती है। उन्होंने पूछा था क्या जज दूसरे लोक में निवास करते हैं
उन्होंने कहा कि कार्यपालिका से न्यायपालिका को बचाने की वजह से नेशनल ज्यूडिशियल अकाउंटिबिलिटी कमीशन एक्ट ख़त्म कर दिया गया था, पर इसका मतलब यह नहीं कि न्यायपालिक लोगों की पड़ताल से परे है।