भारत के चीफ जस्टिस चंद्रचूड की चिंता का तर्कशास्त्र?
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड एक माह बाद रिटायर हो रहे हैं. भूटान के एक लॉ कॉलेज के “दीक्षा-समारोह” में बोलते हुए उन्होंने कहा कि उनकी चिंता है कि इतिहास उनके योगदान को कैसे आंकेगा. “मैने पूरी निष्ठा से देश की सेवा की है. मुझे इस बात की उत्सुकता है कि इतिहास मेरे कार्यकाल का मूल्यांकन कैसे करेगा. मैं दो साल तक देश की सेवा करने के बाद इस नवम्बर में सीजेआई के रूप में पद छोडूंगा. मेरा मन भविष्य और अतीत के बारे में आशंकाओं से घिरा है. मैं सोचता हूँ कि क्या मैंने सब पा लिया जिसे पाने का लक्ष्य रखा था? इतिहास मेरे कार्यकाल का मूल्यांकन कैसे करेगा? क्या मैं कुछ अलग कर सकता था? मैं जजों और भावी पीढ़ी के कानूनी पेशवरों के लिए क्या विरासत छोडूंगा. इनमें से ज्यादा प्रश्नों के उत्तर मेरे नियंत्रण से बाहर हैं. शायद मुझे कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगें”.
व्यक्तिगत चिंता को तार्किक और संस्थागत आयाम देते हुए सीजेआई ने कहा कि जब कोर्ट ने तत्कालीन सरकार द्वारा 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला के गैर-कानूनी आबंटन को रद किया या जब एनडीए सरकार (मोदी-1 काल) द्वारा बनाये नेशनल जुडिशल कमीशन कानून को असंवैधानिक ठहराया तो कार्यपालिका के लोगों ने न्यायपालिका पर “बगैर चुनी और बगैर जवाबदेह संस्था का आतंक” का आरोप लगाया. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जन-विश्वास का सिद्धांत न्यायपालिका पर कुछ अलग ढंग से अप्लाई होता है जहां जवाबदेही जन-प्रतिनिधियों की जवाबदेही से अलग होती है”.
जस्टिस चंद्रचूड वर्तमान जुडिशल स्पेक्ट्रम में सबसे अधिक तार्किक और विद्वान माने जाते हैं लेकिन उनके दोनों –व्यक्तिगत और संस्थागत – आयाम पर दिए गए तर्क गलत हैं. अगर संस्था में इन-बिल्ट “अलग किस्म की जवाबदेही” होती तो कलकत्ता हाईकोर्ट का जज पद पर रहते हुए अपने को भाजपा का न बताता और अगले दिन इस्तीफ़ा दे कर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ कर देश की संसद को “पव्रित्र” न कर रहा होता.
“
जन-विश्वास तब भी ध्वस्त हुआ जब अयोध्या राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में भू-स्वामित्व के मूल प्रश्न पर फैसला देने की जगह एससी ने समझौतावादी रुख अपना कर एक पक्ष को कहीं और जमीन लेने का सर्वसम्मत फैसला दिया।
जन-विश्वास का सिद्धांत अलग ढंग से अमल में होता तो इस फैसले के बाद तत्कालीन सीजेआई पद छोड़ने के बाद राज्यसभा की सदस्यता से न नवाजे गए होते, ना हीं एक अन्य जज राज्यपाल बनाये गए होते. भारतीय “जन” की तर्क-शक्ति और समझ को राजनीतिक वर्ग कम आंकता है क्योंकि वह उसे भावना में डुबो कर कुछ समय तक भ्रमित कर सकता है लेकिन वर्तमान सीजेआई यह भूल न करें. इसी कोर्ट के पद पर रहते हुए एक जज ने प्रधानमंत्री के साथ मंच शेयर करते हुए अपने भाषण में कहा था कि उसे फक्र है “पीएम के साथ बैठने में”. उसके लिए एक संस्था के चेयरमैन का पद महीनों खाली रखा गया और फिर कानून बदल कर उस पद पर उसे बैठाया गया. जन-विश्वास तब भी टूटा था.
यह अलग बात है कि वर्तमान सीजेआई ने सर्वसम्मत फैसले में अगर सबरीमाला केस में रजस्वला आयु (10-50 वर्ष) महिलाओं को मंदिर में जाना सही ठहराया तो वहीँ अन्य चार जजों से अलग फैसला देते हुए अब्राहिम सिंह बनाम कोमाचेन केस में धर्म के आधार पर वोट माँगने को इसलिए सही ठहराया कि धर्मानुयाइयों की वास्तविक समस्या पर वोट मांगना गलत नहीं है.
यह अलग बात है कि इसके बाद देश के एक राज्य का गेरुवाधारी मुख्यमंत्री ने सार्वजानिक भाषणों में कहना शुरू किया कि “बंटोगे तो कटोगे”. सरकार द्वारा आधार को धन-विधेयक बना कर पारित करने के मामले में अन्य जजों से अलग फैसला देते हुए इसे असंवैधानिक करार देना भी सीजीआई को एक अलग मकाम पर रखता है. दिल्ली में एलजी को चुनी हुई सरकार की राय मामने की बाध्यता का फैसला भी इसी क्रम में रहा है.
सीजेआई के फैसलों के दो पहलू हैं. प्रगतिशील समाज-सुधार वाले फैसले क्रांतिकारी रहे हैं. सबरीमला, समलैंगिकता, आरक्षण, परोक्ष भेदभाव के सिद्धांत के आधार पर सेना में महिलाओं की स्थिति बेहतर बनाना, निजता का अधिकार, हदिया केस में वयस्क के अधिकार बहाल करना और ताज़ा आरक्षण को मेरिट का हीं विस्तार मामने का सिद्धांत प्रतिपादित करना और यह बताना कि एक परीक्षा पास करना ताउम्र मेरिट की तस्दीक नहीं होती और अगर कोई नीचे के वर्ग का व्यक्ति थ्रेशहोल्ड मार्क्स (योग्यता की निम्नतम शर्तें) पार कर लेता है तो उसके मेरिट को कम नहीं आंका जा सकता, फैसले समाज में दूरगामी और क्रांतिकारी परिणाम देंगे.
लेकिन वहीँ सीजेआई के रूप कार्यकाल में जस्टिस चंद्रचूड भूल रहे हैं कि उनके इसी कार्यकाल में सरकार के विरोध में यूपीए और पीएमएलए जैसी संगीन धाराओं में लोग जेलों में सड़ते रहे. अडानी का केस एक मकडजाल में इसी कोर्ट ने ऐसा उलझाया कि सत्य कहीं दब गया. उन्हीं के कार्यकाल में महाराष्ट्र की असंवैधानिक सरकार पूरे कार्यकाल तक चली और कोर्ट और स्वयं “मी लार्ड” तारिख पर तारीख देते रहे. क्या महाराष्ट्र के लोगों का ट्रस्ट आपका सही आकलन नहीं करेगा?
क्या जस्टिस लोया की मौत, जिसमें शक की सुई भारत के सबसे ताकतवरों में से एक पर जाती है, पर दुबारा जाँच की मांग नकारना जनता का “विश्वास” जीत पायेगी.
एक ऐसी सरकार के लिए जो हर “स्याह-सफ़ेद” करती रही, आवाजों को कुचलती रही, हिन्दू-मुस्लिम करती रही, गाय के नाम पर लम्पटता को प्रश्रय दे कर सरेआम सड़क पर मुसलमानों की प्रताड़ना करवाती रही, को कुछ मामलों में बड़ी “रिलीफ” और कुछ मामलों में कुछ “छोटी” असहजता देना हीं तो आपके फैसलों का लब्बोलुआब रहा है.
जाहिर है मोदी-काल में भारतीय समाज सोच के स्तर पर धर्म के आधार पर बांटा गया है लिहाज़ा आपका भी रिपोर्ट कार्ड अगले कुछ सालों तक इसी आधार पर बनेगा. बस अलगे एक माह में मुख्य मुद्दों पर फैसले कैसे आते है, देखना होगा. इतिहास यह भी देखेगा कि पिछले सीजेआई की तरह रिटायरमेंट के बाद के कुछ समय में आप अपने नैतिक तंतुओं को कितना सख्त रख पाते हैं.
(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं)