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बंजारों की पहचान की तलाश में भटकता एक नाटक 

बंजारों की पहचान की तलाश में भटकता एक नाटक 

‘छोड़ चला बंजारा’ को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पच्चीसवें रंग महोत्सव में पेश किया गया। जानिए, कैसी रही प्रस्तुति।

बंजारों की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान की तलाश करता नाटक ‘छोड़ चला बंजारा’ को मनोरंजक प्रस्तुति के लिहाज़ से शानदार कहा जा सकता है। लेखक और निर्देशक कन्हैया लाल कैथवास ने बंजारों के संगीत और नृत्य की बारीकियों को मूल स्वरूप में रखने की सफल कोशिश की। 

इस नाटक को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पच्चीसवें रंग महोत्सव में पेश किया गया। बंजारों की अनेक जातियाँ देश के विभिन्न हिस्सों में रहती हैं, लेकिन कैथवास ने इस नाटक को हैदराबाद के लम्बाडी समुदाय से प्रेरित बताया है। 

बंजारा उन जाति समूहों को कहते हैं, जो आम तौर पर पूरे परिवार के साथ एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते हैं। उनका कोई स्थायी पता नहीं होता। इनमें से कुछ जंगलों में या उसके आस पास रहते हैं और जानवर पालते हैं। कुछ शहरों और गाँवों में भटकते हैं। ये मुख्य तौर पर लोहे और पत्थरों के औज़ार और घरेलू उपयोग की चीज़ें बनाते और बेचते हैं। 

अंग्रेज़ी सरकार ने इनमें से कुछ जातियों को ज़रायम पेशा घोषित कर दिया था। लेकिन वास्तव में इन जातियों में प्रचलित लोक कथाओं और गीतों से पता चलता है कि बंजारों का संबंध उन बहादुर जातियों से है, जिन्होंने समय समय पर सत्ता से विद्रोह किया था।

यह नाटक बंजारों के तीन महनायकों की भूमिका को उजागर करता है। ये हैं संत सेवा लाल, भीमा नायक और लक्खी शाह बंजारा। सेवा लाल ने बंजारों में मानवीय मूल्यों को स्थापित करने और अनेक बुराइयों से दूर रखने का रास्ता दिखाया। भीमा नायक ने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा उठाया। उन्हें काला पानी की सज़ा हुई और फाँसी दे दिया गया। 

लक्खी शाह ने गुरु तेग़ बहादुर की गरिमा की रक्षा के लिए औरंगजेब के ख़िलाफ़ बग़ावत की। इन तीनों के ज़रिए लेखक ने बंजारा समुदाय के बारे में प्रचलित अनेक ग़लत धारणाओं को खंडित किया है। लेकिन इतने चरित्रों को एक साथ लाने के कारण नाटक कुछ उलझा हुआ सा लगा। इनमें से किसी एक चरित्र के ज़रिए भी बंजारों की गौरव गाथा कही जा सकती थी। 

इस प्रस्तुति का सबसे मज़बूत पहलू संगीत और नृत्य पक्ष को कहा जा सकता है। अंजना पुरी ने संगीत- नृत्य रचना में बंजारों की मूल शैली को बरक़रार रखा। निर्देशक कैथवास ने 20 से ज़्यादा कलाकारों और लगभग इतने ही मंच सहयोगियों की टीम को बहुत सहजता से संभाल कर रखा। इसे एक महत्वपूर्ण निर्देशकीय उपलब्धि कहा जा सकता है। नाटक की भाषा गोरे बोली है, जो लम्बाडी समुदाय में बोला जाता है। बहुत कुछ गुजराती और हिंदी की छाप के कारण समझना मुश्किल नहीं था।

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