कहीं मोदी-शाह की कठपुतली बनकर तो नहीं रह जाएंगे नड्डा?
बीजेपी को नया अध्यक्ष मिलने वाला है। वर्तमान में कार्यकारी अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाल रहे जेपी नड्डा 20 जनवरी तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाल सकते हैं। नड्डा केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री जैसे अहम ओहदे को संभाल चुके हैं और संगठन में काम करने का भी उनके पास पुराना अनुभव है। लेकिन नड्डा के अध्यक्ष बनने से पहले बीजेपी की अंदरूनी राजनीति को लेकर भी सियासी गलियारों में कई तरह की चर्चाएं हैं। इन चर्चाओं पर बाद में बात करेंगे लेकिन उससे पहले थोड़ा पीछे चलते हैं।
2009 के लोकसभा चुनाव में क़रारी हार मिलने के बाद बीजेपी अस्त-व्यस्त थी। कांग्रेस के नेतृत्व में दूसरी बार यूपीए की सरकार बन चुकी थी। बीजेपी के नेताओं को लगता था कि यूपीए को हटा पाना मुश्किल है। लेकिन तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दख़ल पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया।
मोदी ने अपने सिपहसालार अमित शाह को उत्तर प्रदेश का जिम्मा सौंपा और यूपी में 2009 में 10 सीटें जीतने वाली बीजेपी अपने दम पर 71 सीटें जीत गई। यह बीजेपी में मोदी-शाह के युग के उभार की शुरुआत थी। इसके बाद इस जोड़ी ने कई राज्यों में चुनाव जीता और 2019 के लोकसभा चुनाव में 2014 से ज़्यादा सीटों पर जीत दर्ज की। यहां इस बात का जिक़्र सिर्फ़ इसलिए किया गया क्योंकि बीजेपी के अंदर बेहद ताक़तवर हो चुकी मोदी-शाह की जोड़ी को चुनौती दिया जाना असंभव माना जाने लगा। लेकिन अब जब मोदी के लेफ़्टिनेंट शाह की अध्यक्ष पद से विदाई होने वाली है तो सवाल यह खड़ा होता है कि क्या नड्डा इस ताक़तवर जोड़ी के बीच स्वतंत्र रूप से कैसे काम कर पाएंगे।
मोदी-शाह की जोड़ी को मिलेगी चुनौती
पिछले छह सालों में मोदी-शाह की जोड़ी ने तमाम राज्यों में अपने पसंदीदा नेताओं को राज्यों में संगठन की कमान सौंपी और मुख्यमंत्री भी अपनी पसंद के नेताओं को ही बनाया। केंद्र में मंत्री भी मोदी और शाह की पसंद के आधार पर बनाये गये। लेकिन अब जब नड्डा पार्टी के अध्यक्ष होंगे तो वे अपनी नई टीम बनाएंगे और ऐसे में क्या वह मोदी-शाह की जोड़ी के लिए चुनौती तो नहीं बनेंगे।
क्योंकि मोदी-शाह की छाया से निकलकर पार्टी में अपना स्वतंत्र सियासी वजूद बनाने की ख़्वाहिश नड्डा की भी होगी। यहां पर हाल में वायरल हुए एक वीडियो का जिक्र करना ज़रूरी होगा जिसमें अमित शाह नड्डा को मोदी के साथ जाते वक़्त हाथ से पीछे रहने का इशारा करते हैं।
गृह मंत्री बनने के बाद अमित शाह ने जिस तेज़ी से काम किया है और छह महीने के भीतर ही संघ के एजेंडे को पूरा करने की दिशा में क़दम बढ़ाये हैं, उससे पार्टी में उन्होंने अपने क़द को बढ़ाया है। शाह को मोदी का राजनीतिक उत्तराधिकारी भी कहा जाने लगा है। ऐसे में जब सरकार और संगठन के भीतर मोदी-शाह की जोड़ी बहुत प्रभावशाली है, नड्डा के लिए स्वतंत्र रूप से काम कर पाना एक चुनौती होगा।
नड्डा के सामने सबसे बड़ी चुनौती राज्यों में जड़ जमा चुके मोदी-शाह के पसंदीदा नेताओं के सामने अपनी पसंद के नये नेताओं को आगे लाने की होगी।
अमित शाह की पसंद नहीं नड्डा
मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक़, अमित शाह पार्टी के महासचिव भूपेंद्र यादव को अध्यक्ष बनाना चाहते थे लेकिन संघ की पंसद के नाम पर नड्डा को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। ऐसे में संघ का वरदहस्त होने के चलते नड्डा को काम करने में ख़ासी मुश्किल तो पेश नहीं आएंगी लेकिन इतना तय है कि अमित शाह जैसा समर्थन भूपेंद्र यादव को देते, वैसा समर्थन नड्डा को उनकी ओर से नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में नड्डा किस तरह काम करेंगे, यह देखने वाली बात होगी।
लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी को मिली प्रचंड जीत का श्रेय काफ़ी हद तक अमित शाह को दिया गया। अपने कार्यकाल में शाह ने जिस तरह पार्टी संगठन को उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्वोत्तर तक खड़ा किया है और कई राज्यों में पार्टी को फतेह दिलवाई है, ऐसे में उनके ट्रैक रिकॉर्ड को बनाये रखना नड्डा के लिए चुनौती होगा।
सही साबित करना होगा चुनाव
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को दक्षिण में कर्नाटक के अलावा बहुत ज़्यादा सफलता नहीं मिली है। इसलिए ऐसे राज्यों में जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं और बीजेपी सरकार बनाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है, उन राज्यों में पार्टी को जीत दिलाना नड्डा के लिए बेहद ज़रूरी होगा। नड्डा को संघ के सामने इस बात को साबित करना होगा कि उन्हें अध्यक्ष बनाकर संघ ने सही व्यक्ति का चुनाव किया है। इसलिए नड्डा को मोदी-शाह की जोड़ी और इनके समर्थक नेताओं से तालमेल बनाते हुए ऐसी रणनीति तैयार करनी होगी जहां वह अपने प्रदर्शन से किसी भी सूरत में अमित शाह से कम न दिखाई दें।
नड्डा ने कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद से ही देश के लगभग सभी राज्यों का दौरा कर पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से मुलाक़ात की है। अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन क़ानून, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच रैलियां की हैं और अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश की है।
कैसी रहेगी नड्डा की शुरुआत
2020 में नड्डा के सामने सबसे पहली चुनौती दिल्ली का विधानसभा चुनाव है। अगर नड्डा के नेतृत्व में पार्टी यह चुनाव जीत जाती है तो निश्चित रूप से यह उनकी धमाकेदार शुरुआत होगी लेकिन अगर हार मिलेगी तो इसे ख़राब शुरुआत माना जाएगा और इससे बनने वाले मनौवैज्ञानिक दबाव का भी सामना उन्हें सफलतापूर्वक करना होगा।
नड्डा ऐसे समय में पार्टी की कमान संभालने जा रहे हैं जब नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर बीजेपी और केंद्र सरकार को चौतरफ़ा विरोध का सामना करना पड़ रहा है। देश ही नहीं, दुनिया भर में इस क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठी है। लेकिन सरकार ने जोरदार ढंग से कहा है कि वह इस पर एक इंच भी पीछे नहीं हटेगी। ऐसे में पार्टी में अपनी स्वीकार्यता और क़द को बढ़ाते हुए मोदी-शाह की जोड़ी के साथ सामंजस्य बनाकर काम करना नड्डा के लिये बड़ी चुनौती साबित होगा।