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भीमा कोरेगांव: केंद्र के एनआईए को जांच सौंपने पर खड़े हुए सवाल

भीमा कोरेगांव: केंद्र के एनआईए को जांच सौंपने पर खड़े हुए सवाल

महाराष्ट्र में हुए भीमा कोरेगाँव प्रकरण की जांच केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी है। इसे लेकर महाराष्ट्र में राजनीति गर्मा गई है।

महाराष्ट्र में हुए भीमा कोरेगाँव प्रकरण की जांच केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी है। इसे लेकर महाराष्ट्र में राजनीति गर्मा गई है। महाराष्ट्र की महा विकास अघाडी सरकार ने केंद्र के इस फ़ैसले को लेकर कड़ी नाराज़गी जताई है। बीजेपी के विरोधी दलों ने केंद्र के इस फ़ैसले की क़ानून वैधता को लेकर सवाल खड़े किये हैं। केंद्र ने यह फ़ैसला ऐसे समय में लिया है जब महाराष्ट्र सरकार ने इस प्रकरण की जांच नए सिरे से करवाने का निर्णय कर लिया था और वह एसआईटी जांच का आदेश देने की तैयारी में थी लेकिन केंद्र ने अचानक एनआईए को इसकी जांच सौंप दी। 

एनसीपी प्रमुख शरद पवार और प्रदेश के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करते हुए कहा है कि इस मामले में वह किसी को बचाना चाहती है तथा निर्दोष सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हमेशा के लिए जेल में डाले रखना चाहती है। पवार ने कहा है कि केंद्र सरकार के इस फ़ैसले से अब शक और गहरा गया है कि इस प्रकरण में पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने ज़रूर कोई षड्यंत्र रचा है।

क़ानूनी जानकारों का कहना है कि केंद्र सरकार के पास यह अधिकार है कि वह ख़ुद किसी जाँच को एनआईए को सौंप सकती है लेकिन उन्होंने कुछ सवाल भी उठाये हैं। मुंबई में 2008 में हुए आतंकवादी हमले के बाद एनआईए एक्ट, 2008 को बनाया गया था। उस वक्त केंद्र में यूपीए 2 की सरकार थी। एनआईए का उद्देश्य कुछ विशेष क़ानूनों के तहत अपराधों की जांच करना और उन पर मुक़दमा चलाना है जो एनआईए एक्ट के शेड्यूल्ड ऑफ़ेंस की सूची में हैं। 

अंग्रेजी अख़बार ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के मुताबिक़, क़ानून के जानकार कहते हैं कि केंद्र सरकार के इस क़दम का सीधा संबंध एनआईए एक्ट के सेक्शन 6 से है। सेक्शन 6 कहता है कि राज्य सरकार की किसी जाँच एजेंसी से किसी अपराध की जाँच को लेते समय केंद्र सरकार को दोहरी प्रक्रिया अपनानी होती है। पहली बात यह है कि सेक्शन 6 के सब सेक्शन 1, 2, 3 और 4 के तहत राज्य सरकार को इसकी जानकारी होनी चाहिए। जब भी राज्य सरकार शेड्यूल्ड ऑफ़ेंस के तहत कोई एफ़आईआर दर्ज करती है तो उसके लिये यह ज़रूरी होता है कि वह केंद्र सरकार को इसके बारे में रिपोर्ट भेजे। रिपोर्ट मिलने के 15 दिन के अंदर केंद्र सरकार को इस बात का फ़ैसला करना होता है कि क्या यह केस शेड्यूल्ड ऑफ़ेंस के अंदर है और क्या इसकी एनआईए से जाँच कराई जानी चाहिए। अगर केंद्र सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि जांच कराई जानी चाहिए तो वह एनआईए को मामले की जांच का आदेश दे सकती है। 

सेक्शन 6 के सब सेक्शन 5 में एनआईए को जांच का आदेश देने के लिए दूसरी प्रक्रिया भी है। सब सेक्शन 5 केंद्र सरकार को इस बात का अधिकार देता है कि अगर उसे लगता है कि कोई मामला शेड्यूल्ड ऑफ़ेंस के अंदर आता है तो वह किसी भी मामले में ख़ुद ही एनआईए को जांच का आदेश दे सकती है। 

क़ानून के जानकारों के मुताबिक़, इस दूसरी प्रक्रिया का प्रयोग दो स्थितियों में किया जा सकता है। पहली स्थिति यह है कि जब राज्य सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि कोई भी शेड्यूल्ड ऑफ़ेंस नहीं हुआ है और उसके बाद वह जांच करवाती है तो केंद्र इसमें हस्तक्षेप कर सकता है और वह इसकी जांच का आदेश दे सकता है। दूसरी स्थिति यह है कि केंद्र सरकार पहले राज्य सरकार को किसी जांच को शुरू करने की अनुमति दे दे लेकिन बाद में इसकी जांच एनआईए को सौंप दे। 

भीमा कोरेगांव मामले में ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने सब सेक्शन 5 में दी गई ताक़तों का इस्तेमाल किया है। क़ानून के जानकार कहते हैं कि अगर केंद्र सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले में एनआईए एक्ट के हिसाब से कार्रवाई की है तो इस पर बहस हो सकती है और ऐसा इसलिए क्योंकि इस मामले में जांच पूरी होने वाली थी और ट्रायल कोर्ट से इसमें फ़ैसला आने का इंतजार है। 

‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट के वकील सुमीर सोढ़ी कहते हैं कि भीमा कोरेगांव मामले में सेक्शन 6 के सब सेक्शन 5 का इस्तेमाल करना बेहद ख़राब उदाहरण है क्योंकि इस मामले में दो साल पहले ही चार्जशीट दाख़िल कर दी गई थी और मामले में जांच जारी थी। 

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक़, पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘एनआईए एक्ट के तहत उन अपराधों को कवर किया जाता है तो देश की एकता और सुरक्षा के लिए ख़तरा होते हैं। यह संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूची के अंतर्गत आता है और केंद्र सरकार को इस संबंध में कानून को अमल में लाने के पूरे अधिकार हैं। इसलिए एनआईए एक्ट संवैधानिक है।’

सवाल यहां यह भी उठता है कि केंद्र सरकार ने इस मामले की जांच एनआईए को पहले क्यों नहीं सौंपी। दो साल बाद अचानक उसके इस फ़ैसले के कारण विपक्षी दल उस पर हमलावर हो गए हैं।

इस मामले में विपक्ष की ओर से सवाल यही उठाया जा रहा है कि कहीं एनआईए का दुरुपयोग तो नहीं किया जाएगा। छत्तीसगढ़ की सरकार एनआईए एक्ट की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे चुकी है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने कहा था कि यह एक्ट राज्य सरकार के अधिकारों का उल्लंघन करता है। 

पवार ने आरोप लगाए थे कि पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस सरकार ने भीमा कोरेगांव का षड्यंत्र पुलिस अधिकारियों को दबाव में डालकर करवाया था। पवार ने यह भी कहा था कि भीमा कोरेगांव प्रकरण से 'अर्बन नक्सल' जैसे शब्द की उत्पति की गयी और सामाजिक तथा मानवाधिकार के लिए कार्य करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं का माओवादी संगठनों से सम्बन्ध बताकर उन्हें गिरफ्तार किया गया। 

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