कांग्रेस के लिए ख़तरनाक है पार्टी की अंतर्कलह
पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के बीच लंबे समय से चल रही खींचतान ख़त्म होती नज़र आ रही है। वहीं पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन से लेकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में तमाम पुराने व नए कांग्रेसियों को साधना और उनसे तालमेल बिठाना कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है।
कांग्रेस को हाल फ़िलहाल में तमाम राजनीतिक फ़ैसलों में मुँह की खानी पड़ी है। सबसे पहले मध्य प्रदेश का मसला लेते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया नेहरू-गांधी परिवार के सबसे वफादार सिपाहियों में से एक थे। मध्य प्रदेश में सिंधिया और कमलनाथ की खींचतान में कांग्रेस सरकार गिर गई। कमलनाथ आख़िर तक इस कदर दावे करते रहे, जैसे वह अपनी सरकार बचा ले जाएँगे। जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के विधायक ही नहीं, बल्कि उनके मंत्री तक को भी पार्टी से तोड़ने में सफल रहे तब साफ़ हो गया कि कमलनाथ के दावे हवा हवाई थे। न तो वह सिंधिया को अलग-थलग कर पाए, न बीजेपी को तोड़कर सरकार बचाने का जुगाड़ कर पाए। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कमलनाथ के साथ गया और पार्टी ने मध्य प्रदेश में सरकार गँवा दी।
इसके पहले असम में हिमंत बिस्व सरमा का झटका कांग्रेस झेल चुकी है। वह अपने अपमान के बड़े-बड़े दावे करते हैं, अगर उन दावों को ग़लत भी माना जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि असम में बीजेपी को सत्ता में लाने में उनकी अहम भूमिका रही है। कांग्रेस अपने दिग्गज नेता और राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के पक्ष में रही। पार्टी संभवतः यह आकलन करने में सफल नहीं हो पाई कि हिमंत असम में लोकप्रिय नेता बन चुके हैं और गोगोई की उम्र भी ढल रही है, उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर भी है।
इसी तरह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की लोकप्रियता को कांग्रेस समझने में नाकाम रही। विमान दुर्घटना में उनके दुखद निधन के बाद राज्य में कांग्रेस रोशैया से लेकर किरण कुमार रेड्डी तक को आजमाती रही। वाईएसआर के पुत्र वाईएस जगनमोहन रेड्डी को संभालने में कांग्रेस नाकाम रही और 2019 के चुनाव में राज्य में पार्टी का सफाया हो गया।
हाल के वर्षों के कांग्रेस के फ़ैसले के ये तीन अहम उदाहरण हैं, जहाँ पार्टी ने निहायत बुरी चाल चली। पार्टी अपने नेताओं को संभाल न पाने के साथ यह आकलन करने में विफल रही कि जनता किसके साथ है।
राजनीतिक फ़ैसलों का आकलन अंतिम परिणाम से होता है। कम से कम इन तीन राज्यों में कांग्रेस ने अपने फ़ैसलों से राज्यों का शासन गँवाया है।
यह कहना आसान नहीं है कि अगर पार्टी ने असम में हिमंत बिस्व सरमा का पक्ष लिया होता तो क्या परिणाम कांग्रेस के पक्ष में जा सकते थे? अगर कांग्रेस ने तरुण गोगोई की जगह सरमा को प्रमुख भूमिका दे दी होती और पार्टी हारती तो यह कहा जाता कि एक जमे जमाए नेता गोगोई का कांग्रेस ने अपमान कर दिया, इसकी वजह से पार्टी हार गई।
यही मामला आंध्र प्रदेश में है। अगर जगन मोहन को पार्टी ने आंध्र प्रदेश में नेता बना दिया होता और पार्टी हारती तो यह कहा जाता कि कांग्रेस में खानदानवाद हावी है। पार्टी में किरण कुमार रेड्डी और रोशैया जैसे तमाम दिग्गज नेताओं को दरकिनार करके राजशेखर रेड्ड़ी को नेता बना दिया गया, जिसके चलते पार्टी हार गई।
यही फ़ॉर्मूला मध्य प्रदेश पर भी लागू होता है। अगर कमलनाथ सरकार बचाने में कामयाब रहे होते तो कांग्रेस की वाहवाही होती। लेकिन जब सिंधिया उनके मंत्रियों को भी तोड़कर निकल गए तब कांग्रेस की थुक्का फजीहत शुरू हुई कि पार्टी का फ़ैसला ग़लत था।
किसी भी पार्टी के समक्ष यह दोहरी चुनौती होती है कि वह पुराने व नए नेताओं के बीच तालमेल कैसे बिठाए। साथ ही वह नए लोगों को पार्टी के साथ जोड़कर उनका समायोजन किस तरह से करे। अन्य दलों से पार्टी में आए लोगों को किस तरह और कितना महत्त्व दे। यह रणनीति हर राज्य व हर नेता के मुताबिक़ अलग-अलग हो सकती है। लेकिन यह एकदम साफ़ है कि जो दल नेताओं का प्रबंधन, समायोजन करने में सफल नहीं होगा, उसके लिए जनता का समर्थन या जीत हासिल कर पाना मुश्किल होता है।
कांग्रेस में उत्तर प्रदेश में भी नए-पुराने की जंग छिड़ी हुई है। कांग्रेस से जुड़े पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ता युवा पीढ़ी व दूसरे दलों से आए लोगों के ऊपर एनजीओ की तरह पार्टी चलाने का आरोप लगा रहे हैं।
पुराने नेता अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं और उन्हें लग रहा है कि यूपी में 30 साल के कांग्रेस के वनवास के दौर में भी वह पार्टी से जुड़े रहे, उसके बावजूद उनका सम्मान नहीं हो रहा है। स्वाभाविक है कि कांग्रेस ऐसी परिस्थितियाँ बनने दे रही है और अपने नेताओं का प्रबंधन नहीं कर पा रही है, उन्हें काम पर लगाकर व्यस्त नहीं कर पा रही है, जिसके कारण ऐसे सवाल उठ रहे हैं।
पंजाब में फ़िलहाल सिद्धू और अमरिंदर के बीच विवाद का सुखद पटाक्षेप नज़र आ रहा है। अमरिंदर बूढ़े हो गए हैं और सिद्धू ग़ैर राजनीतिक होने के बावजूद तमाम चलताऊ शायरियों व जुमलों से लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। ऐसे में कांग्रेस को सटीक आकलन करना होगा कि पंजाब में ज़मीनी स्तर पर स्थिति क्या है और किसे, किस तरीक़े से और किस रूप में नेता बनाए रखना पार्टी के हित में है। पार्टी को लगातार नज़र बनाए रखने की ज़रूरत है कि पंजाब के इन नेताओं के मनमुटाव से पार्टी में फिर से आग न भड़कने पाए।
केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्रीकृत राजनीति और जनता की तरफ़ से मिल रहे अपार समर्थन से विपक्ष नदारद सा दिख रहा है। ऐसे में कांग्रेस के बीच आपसी खींचतान और झगड़े अत्यंत निराशाजनक हैं। खासकर वह लगातार ऐसी चालें चल रही है, जो उसके लिए निहायत बुरी साबित हो रही है। पार्टी को यह देखना होगा कि अगर वह किसी को निकालती है या निकल जाने देती है तो वह नेता जनता की सहानुभूति न हासिल करने पाए, यानी जनता को यह न लगे कि उसके नेता के साथ कांग्रेस ने अत्याचार किया है। सटीक आकलन भी करना होगा कि जनता के बीच लोकप्रियता के आधार पर किस नेता को साधना है और किसे बाहर का रास्ता दिखाना है।