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जलने से होती हैं 2 फ़ीसदी से भी अधिक मौतें, फिर भी बर्न यूनिट्स की कमी!

जलने से होती हैं 2 फ़ीसदी से भी अधिक मौतें, फिर भी बर्न यूनिट्स की कमी!

हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी लचर अवस्था में हैं कि भीषण अग्निकांडों में किसी तरह बच गए लोगों को बचा पाने में भी वे सक्षम नहीं हैं।

हमारे देश में अग्निकांडों की भी एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त है। कोई बड़ी घटना होती है तो सुरक्षा उपायों को लेकर एक-दूसरे को कठघरे में खड़े करने का और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है। लेकिन कुछ ही समय बाद सब पहले जैसा हो जाता है। जो सवाल उठते हैं उनका ना तो कोई जवाब मिलता है और ना ही कोई उपाय होता दिखाई देता है। फिर कोई और हादसा होता है तो एक नई बहस छिड़ जाती है। 

इन बहसों से हटकर यदि हम यह देखने का प्रयास करें कि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इस तरह के हादसे के बाद पीड़ितों के उपचार के लिए कितनी सजग हैं तो पायेंगे कि आयुष्मान भारत, विश्व गुरू, डिजिटल इंडिया या समर्थ भारत बनाने की बातें सिर्फ नारेबाज़ी ही हैं। हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी लचर अवस्था में हैं कि भीषण अग्निकांडों में किसी तरह बच गए लोगों को बचा पाने में भी वे सक्षम नहीं हैं। 

भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2017-18 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि देश में हर साल 10 लाख से ज़्यादा लोग आग में जलने की वजह से मामूली या गंभीर रूप से झुलस जाते हैं। लेकिन सरकार के इस आंकड़े पर बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएं या स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं सवाल उठाती हैं। 

मार्च 2009 में मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट जो कैम्ब्रिज, हार्वर्ड और जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अध्ययन पर आधारित थी, उसमें यह आंकड़ा 70 लाख के आसपास बताया गया था। इस रिपोर्ट में उन्होंने अनुमान लगाया था कि 2001 में देश में 70 लाख लोग आग लगने की वजह से झुलस गए थे जबकि 1,63,000 लोगों की मौत हो गई थी। इस अध्ययन में कहा गया था कि भारत में 2001 में हुई सभी मौतों के 2% मामलों में मौत की वजह आग थी। 

स्वास्थ्य मंत्रालय भी मानता है कि भारत में जलने से होने वाली मौतों की संख्या मलेरिया और टीबी की वजह से हुई मौतों से ज़्यादा है। सरकार कहती है कि अशिक्षा, ग़रीबी और लोगों में सुरक्षा को लेकर सतर्कता की कमी के कारण आग में झुलसने की घटनाएं ज़्यादा होती हैं। लेकिन सरकार झुलसने वाले मरीजों के बचाव के लिए क्या कर रही है यह भी एक बड़ा सवाल है। 

पूरी स्वास्थ्य सेवा को निजीकरण की भेंट चढ़ाते जा रही सरकारें आम आदमी को किस प्रकार की स्वास्थ्य सेवा दे रहीं हैं, इसका एक उदाहरण जलने या झुलसने वाले मरीजों की उपचार सुविधा में भी देखने को मिलता है।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2010 में आग से झुलसने की घटनाओं को रोकने और समय पर इलाज उपलब्ध कराने के लिए हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और असम के तीन मेडिकल कॉलेजों और छह ज़िला अस्पतालों में एक पायलेट प्रोग्राम शुरू किया था। 2014 में इस पायलेट प्रोजेक्ट को, नेशनल प्रोग्राम फ़ॉर प्रिवेंशन एंड मैनेजमेंट ऑफ़ ट्रॉमा एंड बर्न इंजरीज़ (एनपीपीएमटीबीआई) में बदल दिया गया। इसमें 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के दौरान राज्यों के 67 सरकारी मेडिकल कॉलेजों और 19 ज़िला अस्पतालों में बर्न यूनिट खोलने की योजना थी। बाद में इस कार्यक्रम को मार्च 2020 तक बढ़ा दिया गया। 67 में से 47 मेडिकल कॉलेजों में बर्न यूनिट खोलने के लिए मंजूरी मिल गई है और 17 ज़िला अस्पतालों की पहचान वित्तीय सहायता के लिए की गई है। यह कार्यक्रम किस गति से चल रहा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक 20 मेडिकल कॉलेजों को मंजूरी मिलना शेष है। 

बर्न डेटा रजिस्ट्री बनाने पर भी विचार किया गया है। आग से झुलसने से संबंधित आंकड़े इकट्ठा करने, जमा करने और उसका विश्लेषण करने के लिए इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू किए जाने की योजना है। साल 2016 में नेशनल एकेडमी ऑफ़ बर्न्स इंडिया (एनएबीआई) ने जो आंकड़े इकट्ठा किए थे उनके अनुसार, आग से झुलसने वाले लाखों लोगों के लिए 67 सेंटर्स (बर्न-केयर यूनिट वाले अस्पताल) में 1,339 बेड हैं। 1,200 बर्न केयर प्रोफेशनल इस एकेडमी के सदस्य हैं। 1,339 बेड में से, 297 इंटेन्सिव केयर यूनिट (आईसीयू) में हैं, जो केवल गंभीर रूप से झुलसे मरीजों के लिए हैं। 67 सेंटर में से 37 (आधे से ज़्यादा) प्राइवेट हैं।

मुंबई में कार्यरत एक स्वयंसेवी संस्था पॉलिसी रिसर्च संगठन, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक़, देश के 65% से ज़्यादा लोग सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि वे बहुत दूर हैं, वहां स्टाफ़ की कमी है और अच्छी सर्विस नहीं मिलती है। आग से झुलसे लोगों के उपचार के लिए यह स्थिति कुछ अधिक ही भयावह है। 

संस्था के अनुसार, आग से झुलसे मरीजों के मामले में प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर रहने से ख़र्च बढ़ जाता है। झुलसे लोगों को अस्पताल में ज़्यादा दिन तक रहना पड़ता है, औसतन आठ हफ़्ते। ट्रॉमा के अन्य मामलों में एक बेड का प्रतिदिन का औसत ख़र्च 700 रुपये है। जबकि आग से झुलसे मरीज़़ के लिए यह 10 गुना ज़्यादा है। इलाज का ख़र्च भी बहुत ज़्यादा है।  

लेकिन इसे त्रासदी कहेंगे या सरकार की अनदेखी, ज़्यादातर हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम आग से झुलसने के मामलों को कवर नहीं करतीं। ऐसी घटनाओं को ‘दुर्घटना में मौत और विकलांगता’ में कवर किया जाता है। केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना में भी इसका कोई प्रावधान नहीं है। इसका नतीजा यह होता जा रहा है कि स्वास्थ्य के मामले में जेब से ख़र्च यानी आउट ऑफ़ पॉकेट एक्सपेंसेज़ (ओओपीई) 2004-05 में 69.4% से घटकर 2015-16 में 60.6% हो गया है लेकिन भारत में आग से झुलसने के मामलों में ओओपीई पर अलग से आंकड़े नहीं हैं। 

वैसे भी पिछले कई सालों से हमारी सरकारें आंकड़ों के खेल में ही देश को उलझाए हुए हैं। चाहे देश की अर्थव्यवस्था या जीडीपी का आंकड़ा हो या बेरोज़गारी और रोजगार का सरकार वे ही आंकड़े जारी करती है जो उसके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हो! 

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