जब बजट का मतलब हलवा हो गया है
बजट और हलवा का संबध पुराना है पर वह बजट बनाने और पेश करने के बीच एक साधारण सा मामला होता था। नरेन्द्र मोदी राज में बजट की खबर और उस पर चर्चा हलवा खाते-खिलाते और उसकी फोटो के साथ होने लगी है। इसे एक प्रतीक के रूप में देखिये बजट और उसका हाल समझ में आ जायेगा। ऐसे में इस बार का बजट सरकार के लिए कितना मुश्किल होने वाला है इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि कई महीनों के बाद इस बार जीएसटी वसूली का आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया गया। आप जानते हैं कि बढ़ती वसूली के आधार पर यह दावा किया जाता रहा है कि अर्थव्यवस्था में सब बढ़िया है।
पांच ट्रिलियन का शोर और उस पर सन्नाटे के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और कर्ज लेकर घी पीने जैसी स्थितियां छिपी हुई नहीं हैं। पर वास्तविकता यही नहीं है और बढ़ती बेरोजगारी के साथ स्थिति अच्छी हो ही नहीं सकती है। चुनावी रैली में यह कहना आसान है कि संरचना परियोजाओं में भी रोजगार मिले होंगे पर आंकड़ों के साथ बात की जाती तो गंभीरता नजर आती। प्रचार प्रभावित जनता को वास्तविकता मालूम नहीं है और सरकार उसे सार्वजनिक कर नहीं सकती।
ऐसे में बजट में नया क्या होगा समझना मुश्किल है। खासकर तब जब कोशिश और मजबूरी अपनी जगह है। इसे बैसाखी का किराया मानिये और मुश्किल यही है कि गरीबी में आटा गीला हो गया है। वह भी ऐसी कि उस पर रो भी नहीं सकते। गरीबी को समझने के लिए हर महीने बढ़ने वाली जीएसटी वसूली का सच यह है कि अभी भी जिन करों की जगह जीएसटी लागू किया गया था उनके मुकाबले वसूली कम है। उदाहरण के लिए वित्त वर्ष 2016-17 में यह जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद का 6.3 प्रतिशत था जो 2023-24 में सकल घरेलू उत्पाद का 6.1 प्रतिशत ही है।
ऐसे में बजट से जो अपेक्षाएं होंगी उन्हें पूरा करना मुश्किल तो है ही उसकी समीक्षा भी ज्यादा सघनता से होगी और यह समझने की कोशिश की जायेगी कि सीटें कम होने का बजट पर क्या असर हुआ है या नहीं हुआ है। दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी लोक लुभावन घोषणाओं में यकीन नहीं करते हैं। दूसरे शब्दों में उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं है। ऐसे में बजट कैसा होगा अनुमान लगाना मुश्किल है।
संभवतः इसीलिये इस बार यह प्रचारित किया जा चुका है कि बजट की तैयारियों के लिए बैठक हुई, प्रधानमंत्री भी शामिल हुए आदि आदि। जनता मुफ्त अनाज से खुश है बाकी को नरेन्द्र मोदी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कह चुके हैं और 'मोदी की गारंटी' से चुनाव जीत चुके हैं। ऐसे में बजट में होना क्या है जब सरकार भारी कर्ज में है। दूसरी ओर, इन मुश्किलों में कुछ अच्छा करने के लिए अगर कोई समिति बनाई जाये, कुछ लोगों को जिम्मेदारी सौंपी जाये, जानकारी दी जाये तो संभव है, अभी तक जो सूचनाएं छिपा कर रखी गई हैं वो बाहर आ जायें। इसलिए सरकार जोखिम लेगी इसमें भी शक है। इसका एक और कारण यह है कि बजट कैसा भी हो सरकार हेडलाइन मैनजमेंट में सक्षम है, उसे अच्छा ही कहा जायेगा। इसलिए, बजट अच्छा हो इसकी जरूरत ही नहीं है। उसे अच्छा ही कहा जायेगा सो अलग। अच्छे बजट की योग्यता और स्थितियां नहीं हैं, सो अपनी जगह है ही।
वैसे, अब बजट काफी बदल चुका है। टैक्स की दर जीएसटी कौंसिल तय करता है और वह उसकी बैठकों में पूरे साल तय होता रहता है। रेल बजट अलग होता था तो उसकी घोषणाओं का कुछ आकर्षण था वह अब खत्म हो गया है। नई ट्रेन और लाइन की घोषणाएं पूरे साल होती रहती हैं। उसमें कम कुछ होना नहीं है, सब बढ़ना ही है।
ऐसे में व्यवसाय छोटा हो या बड़ा, व्यवसाय करना काफी मुश्किल कर दिया गया है। साइन बोर्ड लगाने से लेकर उसपर जीएसटी नंबर लिखा होना और रिटर्न से लेकर बैंक खाता खोलने तक के लिए पैन और आधार जरूरी होना, खाते में न्यूनतम बैलेंस मेनटेन करना, शुल्क आदि न सिर्फ बढ़ाये गये हैं, मुश्किल बनाये गये हैं और नियमों का अनुपालन भी मुश्किल हुआ है। इसे आसान किया जाना चाहिये। इसी तरह, आयकर में छूट और लाभ की अपेक्षा है। स्टैंडर्ड डिडक्शन 2018 में 40,000 रुपये था। 2019 में इसे बढ़ाकर 50,000 रुपये किया गया। तब से वही है। इसे बढ़ाया जाना चाहिये, बढ़ाया जा सकता है। वेतनभोगी मध्यवर्ग खुश होगा।
यही नहीं, इस समय 2.5 लाख रुपये से पांच लाख रुपये तक की आय पर पांच प्रतिशत टैक्स लगता है, पांच से 10 लाख रुपये की आय पर 20 प्रतिशत और 10 लाख से ज्यादा पर 30 प्रतिशत टैक्स लगता है। इसे ठीक किये जाने की जरूरत है और इसके लिए बहुत ज्यादा कमाने वालों की टैक्स दर बढ़ानी पड़े तो वो भी किया जा सकता है। यह एक मुश्किल और राजनीतिक फैसला होगा जिसे राजनीतिक नजरिये से देखा जायेगा। इसलिए होगा या नहीं वह अलग मुद्दा है।
भाजपा ने दिल्ली ही नहीं एनसीआर की भी सभी सीटें जीती हैं और इस निर्णय से यहां के वोटर को सबसे ज्यादा फायदा होगा। वोट के लिए जरूरत है कि नहीं, यह तो पार्टी को देखना है। अगर हिन्दू मुसलमान करने से काम चल रहा हो तो अमीरों को खुश रखना भी फायदेमंद है। अनूठा और क्रांतिकारी तो लगता ही है। इन सबके बीच दिल्ली सरकार या आम आदमी पार्टी की यह मांग महत्वपूर्ण कि केंद्र दिल्ली को 10 बजार करोड़ रुपये दे।
खबर के अनुसार दिल्ली वालों ने केंद्र को 2.07 लाख करोड़ का आयकर और 25,000 करोड़ रुपये जीएसटी दिया है। बदले में केंद्र ने दिल्ली को एक पैसा भी नहीं दिया है। यही नहीं, दिल्ली की जनता ने अपनी सातों सीटें भाजपा को दी हैं और एनसीआर की भी सारी सीटें भाजपा की झोली में हैं। दिल्ली विधानसभा में भाजपा की हालत आप जानते हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी की यह मांग भाजपा को फंसाने और परेशान करने के लिए कम नहीं है। देखा जाये।