बुद्धदेब दासगुप्ता को क्यों लगा कि देश अब रहने लायक नहीं?
“... सचमुच लगने लगा है जैसे हम इस देश में और रह नहीं सकते।” फ़िल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता ने किंचित खिन्नता से अपनी वेदना प्रकट की जब टेलीग्राफ़ अख़बार के प्रसून चौधरी ने उनसे नसीरुद्दीन शाह पर हो रहे हमलों का ज़िक्र किया। बुद्धदेव बाबू ने कहा, “चूँकि यह नसीर के साथ हुआ, यह बड़ी ख़बर है लेकिन यह तो आज हर किसी के साथ हो रहा है। यह सिर्फ़ कलाकारों के साथ नहीं हो रहा, प्रत्येक नागरिक आज ख़ुद को ख़तरे में महसूस कर रहा है। चीज़ें इतनी ख़राब हो गई हैं कि सचमुच लगने लगा है जैसे हम इस देश में और रह नहीं सकते।”
बुद्धदेव दासगुप्ता का जीवन यथार्थ और कल्पना के बीच के तनाव को साधते हुए गुजरा है। वे फ़िल्में बनाते हैं। आसान फ़िल्में नहीं। 'दूरत्व', 'बाघ बहादुर', 'ताहादेर कथा', 'लाल दोरजा' और 'उत्तरा' जैसी फ़िल्में उन्होंने बनाई हैं। उनकी नई फ़िल्म है- उडो जाहाज (हवाई जहाज)। भारत अगर आज भारत है तो सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और बुद्धदेव दासगुप्ता जैसे रचनाकारों की वजह से। बांधों और सड़कों और कारखानों से राष्ट्र नहीं बनता। वह बनता है कविताओं, उपन्यासों, फ़िल्मों से। राष्ट्र की कल्पना को हमारे रचनाकार निरन्तर समृद्ध करते हैं। ऐसा वे राष्ट्र से सवाल पूछकर और उसे अपने सर्जनात्मक मूल्यों की कसौटी पर कसते हुए करते हैं। राष्ट्र को चुनौती देना ही रचनाकार का काम है। उनकी ओर से आँख और मुँह फेर लेनेवाला राष्ट्र विपन्न होने को अभिशप्त है।
बुद्धदेव दासगुप्ता की फ़िल्मों में बांग्ला के महान फ़िल्मकारों की तरह ही साधारण मनुष्य का अपनी शर्तों पर जीने का संघर्ष चित्रित हुआ है। आश्चर्य नहीं कि उनकी नई फ़िल्म “उडो जाहाज” एक सनकी कार मैकेनिक बच्चू की राज्य की ताक़त से टकराने की कहानी है। बल्कि उसके सपने की राज्य से मुठभेड़ की कथा। बच्चू जहाज उड़ाने का सपना बचपन से देखता रहा है। एक दिन अचानक उसे जंगल में दूसरे विश्व युद्ध का एक बेकार हो गया लड़ाकू विमान मिलता है और वह उसे फिर से चालू करने की कोशिश करता है। पुलिस को इसकी भनक लग जाती है और वह उसे आतंकवादी घोषित करके जहाज ज़ब्त कर लेती है।
“इस देश में आप स्वप्न नहीं देख सकते।” राज्य आपके सपने की निगरानी करता है। जंगल में दशकों से हर किसी की निगाह से ओट बेकार पड़े जहाज को एक व्यक्ति की आँख देखती है और उसमें उसे अपने बचपन के सपने के पूरा होने की उम्मीद दीखती है, लेकिन राज्य की निगाह में यह अविध है, खतरनाक!
- फ़िल्म के बारे में बात करते हुए बुद्धदेव बाबू अफ़सोस जाहिर करते हैं राज्य आज इतना ताक़तवर हो गया है कि मामूली आदमी की अपनी जगह पूरी तरह छीज गई है। आप ज़िंदा भर रहने के लिए राज्य से समझौता कर लेते हैं लेकिन ऐसा करते ही आप सपना देखने की आज़ादी खो बैठते हैं।
आप पर कब्ज़ा जमाता है राज्य
राज्य हमेशा आप पर कब्ज़ा करता है राष्ट्र के माध्यम से। वह विश्वास दिलाता है कि वह राष्ट्र की कल्पना का रक्षक है। वह आपकी इच्छाओं तक को जानना चाहता है और उनकी दर्ज़ाबंदी भी इस तरह और इस नाम पर करना चाहता है कि आप उस राष्ट्र के आदर्श वाहक बने रहें। भारत में सरकार आपके कंप्यूटर, आपकी इमेल पर नज़र रखने का अधिकार चाहती है। चीन में हमेशा राज्य की निगाह आपको घूरती रहती है।
ऐसा राज्य, जो अपलक, अहर्निश जागता है और आपको ताड़ता रहता है, दु:स्वप्न है। लेकिन वह यक़ीन यह दिलाता है कि वह आपके लिए जाग रहा है। फिर भी ऐसे लोग हैं जो इस आश्वासन के पीछे की कब्ज़ा करने की नीयत को भाँप लेते हैं और व्यक्ति को बचाए रखने का एक युद्ध लड़ते हैं। यह राज्य की शक्ति से युद्ध है और असमान युद्ध है। यह वे जानते हैं फिर भी अपने संघर्ष को छोड़ नहीं सकते क्योंकि इसके बिना मनुष्य बने रहना संभव नहीं।
- मुक्तिबोध के शब्दों में केवल मनुष्य बने रहने की ज़िद करने वालों का भवितव्य उदास होता है। वे प्रायः जेलों में जीते हैं जब हम और आप एक स्वप्नविहीन अवस्था में मात्र जैविक, भौतिक अस्तित्व के रूप में ख़ुद को बचाए रखते हैं।
क्या राज्य के दुश्मन हैं लेखक-कलाकार
पिछले चार वर्षों से अगर लेखकों, कलाकारों, फ़िल्मकारों और बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ पूरा राजकीय तंत्र आक्रामक है तो इसी कारण कि वे राज्य के बरक्स मनुष्य की सत्ता की घोषणा कर रहे हैं। वियतनाम युद्ध के समय अमेरिका में इस समुदाय को लहूलुहान होना पड़ा था, ईरान में इस समुदाय का इसलामी सत्ता से संघर्ष अनवरत चल रहा है, तुर्की में इनमें से अनेक जेलों में क़ैद हैं, चीन में वे ग़ायब कर दिए जाते हैं, बांग्लादेश में उठा लिए जाते हैं। भारत में अब तक, दो वर्ष के अपवाद को छोड़कर यह समुदाय राज्य के साथ के आलोचनात्मक रिश्ता बना सका है। राज्य को वह निर्देशित करे, ऐसा नहीं लेकिन राज्य उसे संभ्रम से देखता रहा है। पिछले चार वर्षों में यह संबंध बदल गया है। राज्य ने इस समुदाय को अपना शत्रु घोषित कर दिया है। इसे नष्ट या निष्क्रिय करने के पहले वह इस समुदाय को जनता के सामने बदनाम करना ज़रूरी समझता है।- राष्ट्र-विरोध सबसे बड़ा पाप है इस धर्मनिरपेक्ष समय में। इसलिए इन्हें धर्मद्रोही नहीं, राष्ट्रद्रोही ठहराया जा रहा है। इसके साथ ही इन्हें बेकार, नाकारा लोगों के रूप में भी पेश किया जा रहा है जो किसी भी प्रकार उपयोगी नहीं, न वे अनाज पैदा करते हैं, न कार बनाते हैं, वे जनता के पैसे पर पलने वाले परजीवी हैं। इसलिए इन्हें नष्ट कर देना ही उचित है।
अपने ऊपर मंडराते खतरे को जानते हुए भी क्यों ये लेखक, कलाकार, फ़िल्मकार, पत्रकार सपने देखने का दुस्साहस करते हैं जो उनकी जान का गाहक हो सकता है
बुद्धदेव दासगुप्ता के प्रिय फ़िल्मकार हैं जफ़र पानिही। ईरानी सिने निर्देशक जिन्हें वहाँ की सरकार ने छह साल के लिए घर में नज़रबंद किया और बीस साल के लिए फ़िल्म बनाने पर पाबंदी लगा दी। फिर भी पानिही ने फ़िल्म बना ही डाली, अपने ड्राइंगरूम में, अपने घर में बंद, बिना कैमरे के, “दिस इज़ नॉट अ फ़िल्म”।
सोवियत संघ में स्टालिन के ज़माने में या आज के ईरान में या किसी भी ऐसे मुल्क़ में जहाँ लगता है कि सत्ता का मनुष्य पर कब्ज़ा पूरा है, पानिही जैसी हिक़मत के सहारे कल्पना अपनी उड़ान जारी रखती है।
बुद्धदेव बाबू ने पानिही पर इस पाबंदी का ज़िक्र करते हुए कहा कि अभी हाल तक मुझे ऐसा लगता था कि भारत में लोग इस तरह दंडित नहीं किए जा सकते।
अपने इस रचनाकार की आशंका और फ़िक्र को क्या फिर हम सब एक खामख्याली मान कर नज़रअंदाज कर देंगे