बीएसपी ब्राह्मण सम्मेलन: ...हवा में उड़ गए जय श्रीराम, याद है यह नारा!

03:24 pm Jul 24, 2021 | अंबरीश कुमार - सत्य हिन्दी

बीएसपी के शीर्ष नेता सतीश मिश्र शुक्रवार को जब अयोध्या में मंदिर-मंदिर जाकर आशीर्वाद लेने के बाद मीडिया से बात कर रहे थे तो मुझे वर्ष 1993 में बीएसपी के संस्थापक कांशीराम और एसपी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक एकता से निकला नारा याद आ गया। नारा था- मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम! 

और अब यह नारा देने वाली बीएसपी भगवान राम के चरणों में नजर आ रही है। बात यहीं तक सीमित नहीं थी। अयोध्या में जो पोस्टर लगे उसमें फरसाधारी परशुराम छाए हुए थे। 

बाबा तेरा मिशन अधूरा, का नारा देने वाली बीएसपी का दलित आंदोलन अगर भगवान राम से लेकर परशुराम तक पहुंच गया है तो इस सामाजिक बदलाव पर किसी को हैरानी क्यों नहीं होगी।

सत्ता के लिए सर्वजन का नारा तो पहले ही दिया जा चुका था। पर यह आंदोलन अयोध्या, मथुरा और काशी की परिक्रमा करने लगेगा, इसे बड़ा बदलाव माना जा रहा है।

खांटी समाजवादी रमाशंकर सिंह ने इस पर कहा, “फुले, पेरियार, बाबा साहेब, कांशीराम का दलित-वंचित आंदोलन मायावती के हाथों कहां पहुंच कर दम तोड़ रहा है। सच ही दौलत की बेटी ने सब नष्ट कर दिया। जिन्हें अभी भी उम्मीद है कि इस नेतृत्व व नीति के साथ आमूल सामाजिक परिवर्तन व समता न्याय की दिशा में वे दो क़दम भी आगे बढ़ पायेंगे, वे किस मुग़ालते में हैं।” 

उन्होंने आगे कहा, “बहुजन समाज मनुवाद के क़ब्ज़े में चला गया है। चलो यह दलित क्रांति भी अपने भ्रष्टतम स्थान पर आकर स्खलित हो गई।” 

दलित कार्यकर्ताओं ने यदि अगले कुछ समय में ही इस रिक्ति को नहीं भरा तो अगले पच्चीस-तीस बल्कि पचास साल तक गली-गली रगड़ना-सड़ना होगा। सनातन धर्म की यह सबसे बड़ी ताक़त है कि वह अपने भीतर हरेक को जज़्ब कर उसे अपना जैसा बना देता है।


रमाशंकर सिंह, समाजवादी चिंतक

लगातार हार रहीं मायावती 

दरअसल, मायावती की दिक्कत यह है कि उत्तर प्रदेश में वे पिछले तीन चुनाव से लगातार हारती जा रही हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें अगर दस सीटें मिलीं तो इसकी वजह एसपी से गठबंधन होना था। वर्ना वर्ष 2014 की मोदी लहर में वे साफ़ हो गई थीं। इसके बावजूद उन्होंने एसपी से गठबंधन तोड़ दिया। 

देखिए, इस विषय पर चर्चा- 

दिल्ली के दबाव में या सामाजिक समीकरण को देखते हुए यह साफ़ नहीं है। पर उन्हें अब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए दलित आधार के साथ एक मजबूत जातीय गठजोड़ बनाना पड़ेगा तभी वे चुनाव जीत पायेंगी। 

क़रीब बीस फीसद दलित मतदाताओं में से बारह फीसद जाटव मतदाता पूरी ताकत के साथ मायावती के साथ खड़े रहते हैं और आगे भी खड़े रहेंगे, ऐसा माना जाता है। ऐसे में उन्हें ग़ैर जाटव दलितों के साथ ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों का समर्थन चाहिए होता है। 

यादव वोट भी मिलते रहे 

ग़ौरतलब है कि एक दौर में वे मुलायम सिंह की झोली से यादव वोट भी खींच लेती थीं। वे यादव बाहुबलियों को भी पार्टी के साथ रखती रही हैं ताकि ओबीसी के साथ कुछ क्षेत्रों में यादव वोट भी मिल जाए। वह दौर याद करें रमाकांत यादव, उमाकांत यादव, मित्रसेन यादव से लेकर डीपी यादव तक सब बीएसपी के सिपहसालार थे। इसमें ग़ैर यादव बाहुबलियों को छोड़ दिया गया है। इसी सोशल इंजीनियरिंग के चलते मायावती सत्ता में जगह बनाती रही हैं। 

दलित, ओबीसी को छोड़ दें तो मुसलिम और ब्राह्मण बीएसपी के वोट बैंक नहीं रहे पर इनका समर्थन इसे अलग-अलग समय पर मिला है। मुलायम सिंह के राज से परेशान ब्राह्मण वर्ष 2007 के चुनाव में बीएसपी के साथ तो रहा लेकिन उसके बाद नहीं आया। मुसलिम तभी आये और वहीं साथ आये जहां बीएसपी ने मुसलिम उम्मीदवार दिया।

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे ने इस विषय पर कहा, “मुसलिम कभी भी बीएसपी का वोट बैंक नहीं रहे। वे कुछ ख़ास क्षेत्रों में और कुछ खास हालात में बीएसपी के साथ जाते हैं। जिन क्षेत्रों में बीएसपी मुसलिम उम्मीदवार देती है वहां उसे मुसलिम समर्थन मिलता है। एसपी आज भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की पहली पसंद बनी हुई है जिसका श्रेय मुलायम सिंह यादव को जाता है।” 

उन्होंने कहा, मुसलमानों को लगता है कि कई मौकों पर मुलायम सिंह ने प्रदेश के मुसलमानों का साथ दिया है।

दरअसल, मायावती ज्यादा संख्या में मुसलिम और ब्राह्मण उम्मीदवार उतारकर जो राजनीतिक फायदा लेती रही हैं वह राजनीति अब ज्यादा प्रभावी होती नजर नहीं आ रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव से ही हालात बदल गए हैं।

ध्वस्त हुए जातीय समीकरण 

प्रदेश में करीब पचास फीसद वोट के साथ मोदी ने एसपी-बीएसपी के जातीय समीकरण को ध्वस्त कर दिया है। मुसलिम भी इन दलों को बचा पाने की स्थिति में नहीं रहे। दरअसल, ग़ैर जाटव दलित जातियों और ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों ने बीजेपी का समर्थन कर इन दोनों दलों की चुनावी संभावनाओं पर पानी फेर दिया है।

माना यह जा रहा है कि जब तक बीजेपी के वोट बैंक में दस-बारह फीसद की गिरावट ये दोनों दल नहीं ला पाते हैं तब तक उत्तर प्रदेश में बीजेपी को हरा पाना मुश्किल होगा। पर बीजेपी अजेय रहेगी यह भी नहीं सोचना चाहिए। 

किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी का जाट वोट बैंक तोड़ दिया है। पूर्वांचल में ब्राह्मण बीजेपी के साथ फिलहाल मजबूरी में खड़ा है। इसके अलावा निषाद, राजभर, कुशवाहा जैसी जातियों का पूरा-पूरा समर्थन बीजेपी को आगे मिल पायेगा यह कहना मुश्किल है। 

इसकी एक वजह कोरोना काल में गांव-गांव में हुई मौतें और आर्थिक रूप से गरीब लोगों का टूट जाना है। इससे उग्र हिंदुत्व की ताकत भी कमजोर हुई है। इसी पर एसपी और बीएसपी की उम्मीद भी टिकी हुई है और इसी वजह से बीएसपी जो दलित आंदोलन से निकली पार्टी है वह अयोध्या, मथुरा और काशी की परिक्रमा करती नजर आ रही है। 

सत्ता के लिए वह ब्राह्मणों को जोड़ने की कवायद में जुट गई है। क्योंकि उसने कांशीराम के आंदोलन को आगे नहीं बढ़ाया जिससे उसका परम्परागत सामाजिक आधार दरक गया है। वर्ना वह दलित और पिछड़ी जातियों के जरिये भी सत्ता में आ सकती थी और अगर सत्ता का समीकरण बनता तो ब्राह्मण बिना परशुराम का नाम लिए खुद आ जाता।