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वोट के बदले रिश्वत फैसलाः आसान शब्दों में समझें- हे माननीय, कानून से ऊपर कोई नहीं

वोट के बदले रिश्वत फैसलाः आसान शब्दों में समझें- हे माननीय, कानून से ऊपर कोई नहीं

तमाम सांसदों, विधायकों पर सवाल पूछने, किसी मुद्दे पर वोटिंग के बदले रिश्वत लेने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का सोमवार का फैसला नेताओं के लिए किसी झटके से कम नहीं है। अदालत ने साफ शब्दों में कहा है कि वोट के बदले रिश्वत मामले में सजा से उन्हें कोई छूट नहीं मिल सकती। सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी चंदे के बाद यह दूसरा बड़ा झटका राजनीतिक दलों को दिया है। क्या नेता इसे पसंद करेंगे, क्या वे फिर से अपने पक्ष में ऐसा कोई कानून बना लेंगे। आसान शब्दों में समझिए सुप्रीम कोर्ट की बातः

चुनावी बांडों को रद्द करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक और फैसले देते हुए राजनीतिक दलों, सांसदों और विधायकों को  हैरान कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को ऐतिहासिक फैसले में कहा कि सांसद और विधायक रिश्वत के मामलों में मुकदमों या सजा से छूट का दावा नहीं कर सकते। 

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की व्याख्या में निहित है। कोर्ट ने दृढ़ता से स्थापित किया कि सांसदों और विधायकों को इस अधिनियम के तहत जवाबदेह ठहराया जा सकता है। अदालत ने इस सिद्धांत पर जोर दिया कि किसी भी सांसद या विधायक को उनके विधायी कर्तव्यों से संबंधित रिश्वत के आरोपों पर बचाया नहीं जाना चाहिए। इसने इस बात पर जोर दिया कि संसद या विधायिका के वैध कार्यों से परे उसे संरक्षण देने पर देश के कानूनों से छूट प्राप्त एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तैयार हो जाएगा। यानी ऐसे लोग कानून से ऊपर होंगे और उन्हें सजा नहीं हो सकेगी।

अदालत ने अपनी टिप्पणियों के जरिए वोट के बदले रिश्वत की व्याख्या के दायरे को व्यापक बनाते हुए कहा कि संसदीय विशेषाधिकार को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों में राज्यसभा या राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के कार्यालयों के चुनाव भी शामिल हैं। यह विस्तार इस सिद्धांत को पुष्ट करता हैः 

कोई भी निर्वाचित प्रतिनिधि कानून से ऊपर नहीं है, चाहे जिस भी संदर्भ में रिश्वतखोरी के आरोप लगे हों।


सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में दिए गए फैसले के बाद रिश्वत के मामलों में सांसदों को छूट के मुद्दे पर विचार-विमर्श किया है। पिछले फैसले ने सांसदों को उनके संसदीय कर्तव्यों से संबंधित रिश्वत के आरोपों के लिए मुकदमे और सजा से छूट प्रदान की थी। मौजूदा मामला इस आरोप से उपजा है कि कुछ सांसदों ने 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के नतीजे को प्रभावित करने के लिए रिश्वत ली थी। 

कुल मिलाकर, यह निर्णय विधायी प्रक्रिया के भीतर जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम का प्रतिनिधित्व करता है। फैसला इस सिद्धांत की भी पुष्टि करता है कि चुने हुए सांसदों, विधायकों और अन्य जन प्रतिनिधियों को भ्रष्टाचार के मामलों में मुकदमों के भूत से मुक्त होकर, अपने आचरण में उच्चतम नैतिक मानकों को बनाए रखना चाहिए। लेकिन साथ ही उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि वे कानून से ऊपर नहीं हैं।

न्यायालय ने यह भी साफ कर दिया है कि सिर्फ रिश्वत लेने के कृत्य से ही सांसद, विधायक पर आपराधिक आरोप लग सकते हैं। भले ही रिश्वत स्वीकार करने वाले ने इसके बदले कोई और कार्य बेशक नहीं किया हो। कोर्ट ने कहा, रिश्वत सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को खत्म करती है। रिश्वतखोरी एक अपराध है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रिश्वत के जवाब में वोट एक निश्चित दिशा में डाला गया है या नहीं डाला गया है। अदालत ने कहा कि रिश्वत का अपराध तभी हो जाता है जब रिश्वत स्वीकार कर ली जाती है। बेशक उसके बाद वो काम किया गया हो या नहीं। अदालत के शब्द हैंः

यह जरूरी नहीं है कि रिश्वत जिस काम के लिए दी गई है, वह काम किया जाए या किया गया हो, उसे प्राप्त करना ही अपराध को जन्म दे देता है।


-सुप्रीम कोर्ट, 4 मार्च 2024 सोर्सः लाइव लॉ

बैकग्राउंडः क्या है पूरा मामला

सुप्रीम कोर्ट के सामने यह मुद्दा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन द्वारा दायर याचिका से उठा। विशेष रूप से, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा उनके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज किए जाने के बाद हाल ही में हेमंत सोरेन ने पद छोड़ दिया था। इसी बीच सीता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक खास उम्मीदवार को वोट देने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगा।

मामले की केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) जांच की मांग करते हुए 2012 में मुख्य चुनाव आयुक्त के पास एक शिकायत दर्ज कराई गई थी। सीता सोरेन पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत आपराधिक साजिश और रिश्वतखोरी के अपराध और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत एक लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार का आरोप लगाया गया था।

2014 में, मामले को रद्द करने की मांग वाली उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए, झारखंड हाईकोर्ट ने कहा कि सोरेन ने उस व्यक्ति को वोट नहीं दिया था जिसने उन्हें रिश्वत की पेशकश की थी। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। सीता सोरेन ने अपनी अपील में सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने फैसले को आधार बनाया था। 

इससे पहले 1998 में, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में कहा था कि अनुच्छेद 105(2) सांसदों को रिश्वत के आरोपों का सामना करने से बचाता है। 3:2 बहुमत ने तर्क दिया था कि 105(2) न केवल मतदान पर लागू होता है, बल्कि मतदान से जुड़ी किसी भी चीज़ पर लागू होता है जिसमें रिश्वत लेना भी शामिल है जिसने मतदान को प्रभावित किया। सुप्रीम कोर्ट के सामने सीता सोरेन ने यही दलील दी थी कि पीवी नरसिम्हा राव मामले में फैसले की व्यापक व्याख्या की जानी चाहिए ताकि राजनेता कानूनी कार्रवाई के डर के बिना अपने मन की बात कह सकें।

सुप्रीम कोर्ट ने 20 सितंबर 2023 को मामले को सात जजों की संविधान पीठ के पास यह तय करने के लिए भेज दिया था कि क्या पीवी नरसिम्हा राव मामले में फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है। सुनवाई के दौरान, अटॉर्नी जनरल (एजी) आर वेंकटरमणी ने इम्युटी या छूट निर्धारित करने के लिए एक फंक्शनल टेस्ट (कार्यात्मक परीक्षण) का सुझाव दिया था, जिसमें कहा गया था कि यह परिणामों के डर के बिना एक सांसद/विधायक के कर्तव्य निभाने  तक विस्तारित हो सकता है।

उस समय सीजेआई ने कहा था कि अदालतें संसद में भाषणों या वोटों पर सवाल नहीं उठा सकती हैं और केवल तभी कानूनी छूट लागू करना जब कोई सांसद/विधायक बोल रहा हो, इसे बहुत प्रतिबंधों वाला बना देगा। सीजेआई चंद्रचूड़ ने मौखिक रूप से कहा था कि यदि कोई सांसद संसद के बाहर भाषण देता है, तो उसे कोई छूट नहीं है। साथ ही उन्होंने पूर्ण छूट को लेकर अपनी आशंकाएं भी जताई थीं।

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