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दोराहे पर ब्रिटेन, क्या टूट का शिकार होगा?

दोराहे पर ब्रिटेन, क्या टूट का शिकार होगा?

इस मसले पर ब्रिटिश नागरिक और राजनेता आज जितने विभाजित दिख रहे हैं उतना ब्रिटिश इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया।

28 देशों के यूरोपीय संघ (ईयू) से बाहर निकलने के ब्रिटिश प्रस्ताव (ब्रेक्जिट) में शनिवार को ब्रिटिश संसद में अड़ंगा लगने से कंजर्वेटिव प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को बड़ा झटका लगा है। एक ओर ब्रिटिश संसद में ब्रेक्जिट के संशोधन प्रस्ताव को 322 के मुक़ाबले 306 वोटों से पारित कर ब्रेक्जिट के फ़ैसले पर अस्थायी रोक लगा दी गई, दूसरी ओर ब्रिटिश संसद से थोड़ी दूर ट्रैफ़ल्गर स्क्वायर पर लाखों लोग ब्रेक्जिट के मसले पर दोबारा जनमत संग्रह की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। इस मसले पर ब्रिटिश नागरिक और राजनेता आज जितने विभाजित दिख रहे हैं उतना ब्रिटिश इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया।

वास्तव में ब्रिटेन अपने भविष्य के दोराहे पर खड़ा है। यह कहना मुश्किल है कि संसद में प्रधानमंत्री जॉनसन को झटका लगने के बाद ब्रिटेन की एकता पर संकट टल गया है या हट गया है।

ब्रेक्जिट पर चल रही राष्ट्रव्यापी बहस के बीच  सवाल उठ रहे हैं कि क्या ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन के चारों प्रांत एकजुट रहेंगे। तीन साल पहले जब  ब्रिटिश जनता ने काफ़ी मामूली बहुमत से ईयू से बाहर निकलने के प्रस्ताव को पारित किया था तब से ब्रिटिश राजनेता ईयू से बाहर निकलने की शर्तों पर यूरोपीय अधिकारियों से सौदेबाज़ी कर रहे हैं। वे यूरोपीय यूनियन से एकतरफ़ा फायदा उठाने की जुगत में हैं और अपनी सम्प्रभुता पर किसी तरह की आंच नहीं आने देना चाहते हैं। इन सब मसलों को लेकर ब्रिटिश संसद और आम लोगों के बीच ईयू से बाहर निकलने की शर्तों को लेकर गम्भीर विवाद जारी है। 

इस सबके बीच ब्रिटेन काफी उहापोह में है। दुनिया के 54 देशों पर सैकड़ों साल राज करने वाले ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में कहा जाता था कि इसका सूर्य कभी अस्ताचल की ओर नहीं जाता। लेकिन आज चार प्रांतों इंग्लैंड, वेल्स, स्काटलैंड और उत्तरी आयरलैंड से बना यूनाइटेड किंग्डम या ग्रेट ब्रिटेन को लेकर इसका सूर्य ओझल होता लग रहा है। 

अपने गौरवशाली इतिहास को याद कर भावनाओं में बहने वाले कुछ ब्रिटिश राजनेताओं और लोगों को यह पच नहीं रहा है कि उन्हें ईयू के मुख्यालय ब्रसल्स से शासित होना पड़ रहा है। लेकिन जो लोग आज के वैश्विक, आर्थिक और राजनीतिक यथार्थ को समझते हैं वे अपना और देश का हित इसी में देखते हैं कि उन्हें ईयू से बाहर नहीं निकलना चाहिये। लेकिन जैसा कि हम आज अमेरिका से लेकर भारत और अन्य जनतांत्रिक देशों में देख रहे हैं, राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का कर राजनेता अपनी सत्ता मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। ब्रिटेन के राजनेता भी इससे अछूते नहीं हैं।  बोरिस जॉनसन ने तो प्रधानमंत्री बनने से दो साल पहले कहा ही था कि यूरोपीयन यूनियन से बाहर निकलने के फ़ैसले से दुखी होकर स्कॉटलैंड अलग होता हो तो हो जाए।

पिछली बार 2016 में जब ईयू से बाहर निकलने के पक्ष में जनमतसंग्रह हुआ था तब स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड के लोगों का बहुमत इसके ख़िलाफ़ था। इंग्लैंड और वेल्स के लोगों ने मामूली बहुमत से ही ब्रेक्जिट के पक्ष में वोट दिया था। इसीलिये ब्रिटेन के राजनीतिक समुदाय में इस बात को लेकर शंका भी बनी हुई है कि यदि लंदन की संसद एकतरफ़ा तौर पर फ़ैसला कर ले कि वह ईयू से बाहर निकलने के लिए तैयार है तो इसके गम्भीर नतीजे ब्रिटेन की सम्प्रभुता, अखंडता और मौजूदा भौगोलिक एकता के लिये हो सकते हैं। 

यह शंका प्रबल हो चुकी है कि यदि ग्रेट ब्रिटेन ईयू से बाहर निकला तो कुछ सालों के भीतर स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड भी यूनाइटेड किंग्डम से बाहर निकल जाएगा। यानी ग्रेट ब्रिटेन स्काटलैंड और इग्लैंड में विभाजित होगा और उत्तरी आयरलैंड अपने को मुख्य आयरलैंड में विलय का प्रस्ताव पारित कर लेगा।

उत्तरी आयरलैंड के लोगों को डर है कि ब्रेक्जिट की वजह से मुख्य आयरलैंड से लगी सीमा सील हो जाएगी यानी उसे हार्ड बार्डर बना दिया जाएगा। इससे उनकी आर्थिक आज़ादी पर आंच आएगी और उन्हें  इंग्लैंड पर अधिक निर्भर होना पड़ेगा। 

वास्तव में ईयू की जब मुहिम चली थी तब सभी सदस्य देशों ने सामूहिक भले के लिये अपने खुद के आर्थिक फ़ैसले लेने की आज़ादी ईयू के मुख्यालय ब्रसल्स (बेल्जियम की राजधानी) को सौंप कर इसमें शामिल होने का फ़ैसला किया था।

ईयू के सदस्य देशों की विदेश नीति भी काफी हद तक ब्रसल्स से संचालित होने लगी थी। लेकिन ब्रिटेन के राष्ट्रवादी राजनेताओं को यह पसंद नहीं आ रहा था। ब्रिटेन ने अपनी आज़ादी बनाए रखने के लिये अपनी सीमाओं को ईयू के सदस्य देशों के साथ खोलने से इनकार कर दिया। 

जहाँ ईयू में एक सदस्य देश की सीमा से दूसरे देश में प्रवेश करते वक्त पासपोर्ट-वीजा की दस्तावेज़ी अड़चनें दूर कर दी गई थीं, वहीं ब्रिटेन ने अपनी सीमाएं नहीं खोलीं। बाक़ी यूरोपीय देशों के लोगों को ब्रिटेन में प्रवेश करते वक्त अपने पासपोर्ट साथ रखने होते हैं। ब्रिटेन ने ईयू के शंगन क्षेत्र में शामिल होने से भी इनकार कर दिया। ईयू द्वारा एक साझा मुद्रा यूरो को भी स्वीकार नहीं किया और अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को जिंदा रखने के लिये अपनी राष्ट्रीय मुद्रा पाउंड स्टर्लिंग का चलन जारी रखा।

लेकिन ब्रिटेन के ईयू से बाहर निकलने की शंकाओं के बीच ही कई अंतरराष्ट्रीय बैंकों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने मुख्यालय लंदन से हटाकर पेरिस या बर्लिन या ब्रसल्स में भेजने शुरू कर दिये हैं। इससे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को भारी झटका लगना शुरू हो गया है। यही वजह है कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्रियों टोनी ब्लेयर या जान मेजर जैसी प्रतिष्ठित राजनीतिक हस्तियों ने ब्रेक्जिट के मसले  पर दोबारा जनमत संग्रह की मांग को समर्थन दिया है।

शनिवार को ट्रैफ़ल्गर स्क्वायर पर जिस तरह लाखों लोगों ने जनमत संग्रह दोबारा करवाने के लिये ब्रिटिश राजनेताओं से गुहार की है, वे इन्हीं शंकाओं को अभिव्यक्त कर रहे हैं कि ब्रेक्जिट की वजह से  ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को तो भारी नुक़सान पहुंचेगा ही, चार प्रांतों को मिलाकर जिस स्वरुप में आज हम ग्रेट ब्रिटेन या यूनाइटेड किंग्डम को देख रहे हैं उसका एकीकृत अस्तित्व यदि नहीं रहा तो आने वाले सालों में बौने हो चुके इंग्लैड को कौन पूछेगा।

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