बोफ़ोर्स पर हंगामा तो रफ़ाल पर चुप्पी क्यों?
'बोफ़ोर्स के दलालों को, जूते मारो सालों को' से लेकर 'चौकीदार चोर है', इन दोनों नारों में एक जो ख़ास समानता है वह यह कि ये दोनों नारे रक्षा सौदों में हुए कथित भ्रष्टाचार के सामने आने पर राजनीतिक दलों ने अपने विरोधियों को निशाने पर लेने के लिए गढ़े हैं। दोनों नारों में एक समानता और है कि दोनों ही के केंद्र में प्रधानमंत्री हैं। उस समय राजीव गाँधी थे तो आज नरेंद्र मोदी।
बोफ़ोर्स को लेकर संसद से सड़क तक हंगामे हुए। तत्कालीन सरकार ने जाँच के लिए संयुक्त संसदीय समिति भी गठित की, इसकी जाँच रिपोर्ट भी सार्वजनिक हुई। मामले में सीबीआई जाँच हुई और राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ आरोप पत्र भी दाख़िल हुआ और दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें बरी भी कर दिया। लेकिन रफ़ाल विमान के सौदे में ऐसा कुछ नहीं हुआ। मोदी सरकार ने ना तो उसकी जाँच किसी एजेंसी को सौंपी और ना ही इस मामले में संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया। इसके विपरीत वह इन आरोपों में घिरती रही कि सीबीआई इस मामले में केस नहीं दर्ज कर सके, इसलिए उसके प्रमुख को रातों-रात पद से हटा दिया। रफ़ाल मामले में सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा दिया उसमें भी ग़लत जानकारी दी। यहाँ तक कि महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में भी रफ़ाल विमान की क़ीमत उजागर नहीं होने दी।
रफ़ाल मामले में देश की मुख्यधारा की मीडिया पर भी सवाल उठ रहे हैं कि क्यों वह उस तरह से इस मामले को उजागर नहीं कर रहा है जैसा उसने बोफ़ोर्स के दौर में किया था। इन सभी रवैयों की वजह से मामले में भ्रष्टाचार होने का संदेह गहराता गया।
रफ़ाल का सच कैसे बाहर आएगा, यह तो वक़्त ही बताएगा लेकिन बोफ़ोर्स के मामले में ख़ुद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ही बाद में अपने बोल बदल दिए थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 6 फरवरी 2004 को मीडिया के सामने कहा, 'मैं अपने आरोप पर कायम हूँ लेकिन मैंने कभी यह नहीं कहा था कि बोफ़ोर्स सौदे में राजीव गाँधी को पैसे मिले हैं।’लेकिन 1989 के लोकसभा चुनावों में गूंजने वाला बोफ़ोर्स का नारा आज 30 साल बाद फिर से इतिहास के गर्भ से बाहर आ गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 मई को प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में एक चुनावी सभा में राहुल गाँधी पर निशाना साधते हुए कहा, 'आपके पिता मिस्टर क्लीन बनकर आये थे और भ्रष्टाचारी नंबर वन बनकर इस दुनिया से गए।'
मोदी के इस बयान पर मीडिया में जमकर बहस छिड़ी, जिसमें बीजेपी प्रवक्ता यह कहते दिखाई दिए कि मोदी एक ऐसे नेता हैं जो अपने विरोधियों को उसी भाषा में जवाब देते हैं जिस भाषा में सवाल होता है, चाहे वह पाकिस्तान ही क्यों ना हो।
सवाल पूछने पर कहते हैं पाकिस्तानी
बीजेपी के नेताओं और प्रवक्ताओं की एक ख़ास बात है कि उनसे सवाल पूछने वालों पर वे पाकिस्तानी होने का तमगा ज़रूर लगा देते हैं। लेकिन इस भाषा की शुरुआत देखनी है तो 1989 के दौर और राम जन्म भूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में चलना होगा जिसके बल पर बीजेपी ने 1998 और 1999 में सत्ता का स्वाद चखा था।जो तोकूँ कॉटा बुवै, ताहि बोय तू फूल। तोकूँ फूल के फूल हैं, बाकूँ है तिरशूल। समाज सुधारक व संत कबीर का यह दोहा जिसका अर्थ है 'जो तुम्हारे लिए कांटा बोता है, उसके लिए तुम फूल बोओ अर्थात जो तुम्हारी बुराई करता है तुम उसकी भलाई करो। तुम्हें फूल बोने के कारण फूल मिलेंगे और जो कांटे बोता है उसे कांटे मिलेंगे।' इसका मतलब यह है कि नेकी के बदले नेकी और बुराई के बदले बुराई ही मिलती है। कबीर के दोहे का नया रूप उमा भारती और साध्वी ऋतम्भरा के भाषणों या उस दौर में हर चौराहों पर बजने वाली कैसट्स में सुनने को मिलता था। उनमें कहा जाता था - जो तोकूँ काँटा बुवै, ताहि बोय तू भाला। वो भी साला याद करेगा, पड़ा किसी से पाला। यह नारा उस समय में समुदाय विशेष को इंगित करके लगाया जाता था। लेकिन आज उसका दायरा बढ़ गया है। अब इस नारे को लगाने के लिए उन्होंने इसे देश के स्वाभिमान और राष्ट्रवाद से जोड़ दिया है। साथ ही निशाने पर एक समुदाय या धर्म विशेष के लोगों के साथ-साथ उस विचारधारा के लोगों को भी जोड़ दिया है जो भारत या हिन्दुस्तान का स्वरुप उसके संविधान या उसकी विविधता के अनुरूप ही देखना चाहते हैं। वे बार-बार ऐसी हर विचारधारा को पाकिस्तान से जोड़ना चाहते हैं क्योंकि देश के लोगों में पाकिस्तान का अर्थ देशद्रोह और देश के सबसे बड़े दुश्मन से है।
आधुनिक राष्ट्रवाद या फासीवाद का यह इतिहास रहा है कि उसको हर समय नया दुश्मन ढूंढना पड़ता है। पड़ोसी देश पाकिस्तान उसका जीता-जागता नमूना है। आजादी के समय वहाँ के सबसे बड़े दुश्मन हिंदू थे लेकिन उनकी जनसँख्या मात्र 4% थी तो नए दुश्मनों को ढूंढने का सिलसिला शुरू हुआ। अब पाकिस्तान में कादियानी, महाजिर, शिया और बरेलवी आदि मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है।
लेकिन क्या हम पाकिस्तान-पाकिस्तान बोलकर सही में पाकिस्तान की तरफ़ तो नहीं बढ़ रहे हैं, आज यह सबसे बड़ा सवाल खड़ा हो गया है गाली का जवाब गाली या गोली का जवाब गोली, राजनीति की भाषा नहीं होनी चाहिए अगर ऐसा होता है तो हम लोकतंत्र को किसी और दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं और वह भारत जैसे विविधता भरे देश के लिए बेहद घातक साबित होगा।