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अफ़ग़ानिस्तान के ख़ूनी खेल में रेफ़री ही खेल रहे हैं असली खेल, भारत है दरकिनार

अफ़ग़ानिस्तान के ख़ूनी खेल में रेफ़री ही खेल रहे हैं असली खेल, भारत है दरकिनार

अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे खेल में रेफ़री ही असली खेल खेल रहा है। लंबे समय तक काफ़ी निवेश करने वाला भारत पूरी तरह हाशिए पर खड़ा है। 

अफ़ग़ानिस्तान में चल रहा ख़ूनी ग्रेट गेम समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा क्योंकि इसके रेफ़री या अम्पायर तटस्थ रवैया नहीं अपना  रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान की जनता इन अम्पायरों की तटस्थता पर शक कर रही है।  जो देश अफ़ग़ानिस्तान के ग्रेट गेम की  अम्पायरिंग कर रहे हैं, वे वहाँ अपना वर्चस्व स्थापित करने के नज़रिये से खेल को आगे बढ़ा रहे हैं। 

अफ़ग़ानिस्तान में ग्रेट गेम अफ़ग़ान तालिबान औऱ सरकार के बीच चल रहा है जिसके पीठ पीछे पाकिस्तान और चीन तो हैं ही, उस खेल के अम्पायरों में ये दोनों पडोसी देश शामिल है। रूस और अमेरिका इनकी भूमिका को स्वीकार कर उन्हें शह दे रहे हैं। 

भारत को अफ़ग़ान सरकार का समर्थक मान कर इस गेम के पर्यवेक्षक का दर्जा भी नहीं दिया जा रहा, जबकि ग्रेट गेम में जीत-हार का फ़ैसला करने में जुटे पाकिस्तान और चीन अपनी पसंद की टीम अफगान तालिबान को जिताने में लगे हैं।

आत्मसमर्पण को तैयार नहीं तालिबान

लेकिन जनता के असली नुमांइंदे अफ़गान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी  और इनकी सरकार तालिबानी बंदूक के सामने आत्मसमर्पण करने को तैयार नहीं हो रही। अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने गत 28 अक्टूबर को  ताजा शांति योजना पेश की है। लेकिन चीन, पाकिस्तान  या अमेरिका ने इसे नजरअंदाज किया है। ग्रेट गेम  में  प्रतिद्वंद्वी अफ़ग़ान सरकार विरोधी टीम  यानी तालिबान खेल के नियम का पालन नहीं करना चाहता है।

तालिबान इस ग्रेट गेम को बंदूक की नोंक पर जीतना चाहता  है जबकि अफ़ग़ान राष्ट्रपति का कहना है कि जनतंत्र में सत्ता हथियाने का खेल संविधान से निर्देशित होता है और इसके लिये चुनावों में भाग लेना होता है। लेकिन अफ़ग़ान तालिबान  काबुल की सत्ता पर जनता के बहुमत से नहीं बल्कि आतंक की ताकत से  बैठना चाहती है।

तालिबान की रणनीति को नजरअंदाज कर एक तरफ अमेरिकी राजदूत जालमे ख़लीलज़ाद की अगुवाई में चीन और पाकिस्तान के साथ गुपचुप बातचीत का दौर चल रहा है।

दूसरी ओर अफगान तालिबान के जेहादी पाकिस्तानी सेना से मुहैया कराए गए हथियारों से आम आदमी को अपनी बंदूकों और बमों से थर्राए हुए हैं। क़रीब हर रोज़ काबुल औऱ आसपास तालिबानी आतंकवादी हमलों में बीसियों लोग मारे जा रहे हैं, पर कथित शांति वार्ता के प्रवर्तक इन हमलों की निंदा में एक शब्द भी नहीं बोलते।

शांति वार्ता

अफ़ग़ान शांति वार्ताओं को अंजाम देने के लिये पिछले एक दशक से दुनिया की राजधानियों बर्लिन, तोक्यो, मास्को, इस्लामाबाद , दोहा आदि में तालिबानी नेताओं  को बुला कर बैठकों का दौर चलाया गया, लेकिन हालात जस के तस बने हुए हैं। 

आख़िर अफ़ग़ान तालिबान पर अंकुश क्यों नहीं लगाया जा सकता? काबुल के किले पर कब्जा करने के लिये कौन उन्हें बम व बंदूक मुहैया करा रहा है?

अफ़ग़ान पाकिस्तान सीमांत इलाके में क्यों उन तालिबानियों के गढ़ बने हुए हैं, जो अफ़ग़ानी इलाके में आतंकी हमले कर सुरक्षित पाकिस्तानी सीमा में घुस जाते हैं।

कब तक चलेगा ख़ूनी खेल?

आतंक और ख़ून का यह खेल कब तक चलता रहेगा। साल 2001 में न्यूयार्क और वाशिंगटन में 9-11 का आतंकवादी हमला झेलने के बाद अमेरिका ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की ख़ातिर काबुल में तालिबान औऱ अल क़ायदा के ठिकानों पर मिसाइली हमले कर उन्हें तबाह कर दिये और वहाँ जनतांत्रिक सरकार की स्थापना और इसकी सुरक्षा के लिये अपने और नाटो देशों के सवा लाख से अधिक सैनिक तैनात कर दिये।

कुछ साल तक मौन रहने के बाद अमेरिका की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाते हुए पाकिस्तान ने तालिबान को फिर बाहर निकाला और नई रणनीति के साथ काबुल की सरकार को उखाड़ फेंकने की लड़ाई लड़ने लगा।

आतंकवादियों से बात कर रहा है अमेरिका?

अमेरिका को आतंकित करने वाला तालिबान आज  पूरे राजकीय सम्मान के साथ उससे बात कर रहा है। अमेरिका किसी तरह अफ़ग़ानिस्तान  से जान छुड़ा कर भागना चाह रहा है। लेकिन सरकार तालिबान के आगे आत्मसमर्पण करने को तैयार नहीं। पर, अमेरिका को देखना होगा कि राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने  28 अक्टूबर को  जेनेवा सम्मेलन में जो  शांति योजना पेश की है, उसे  तालिबान को  स्वीकार करने को मजबूर करने की ज़रूरत है।

राष्ट्रपति ग़नी ने शांति का एक रोडमैप पेश किया  है, जिस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। इस शांति योजना में तालिबान से पेशकश की गई है कि  एक जनतांत्रिक और  समावेशी अफ़ग़ान समाज में  शामिल हो और वह  निम्न शर्तों का पालन  करे।

  •  तालिबान सभी नागरिकों खासकर महिलाओं के  संवैधानिक अधिकारों और दायित्वों का सम्मान  करेगा। 
  • तालिबान संविधान का आदर करे या इसमें संशोधऩ संवैधानिक प्रक्रियाओं के तहत ही करे।
  • अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य बल और नागरिक सेवाएं कानून के तहत काम करें। 
  • अंतरराष्ट्रीय व गैर सरकारी  आतंकी तत्वों से सम्पर्क रखने वाले किसी भी  हथियार बंद गुट या गिरोह को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने की अनुमति नहीं  दी जाएगी। 

राष्ट्रपति ग़नी के मुताबिक़, शांति की इमारत का निर्माण ज़मीन से होना चाहिये न कि हवाई किले बनाने की योजना को लागू किया जाए। राष्ट्रपति ग़नी का ठीक कहना है कि तालिबान को अफ़ग़ान संविधान का पालन करना होगा औऱ उसे जनतांत्रिक प्रक्रिया में भाग ले कर अपनी विश्वसनयीता बनानी होगी। लेकिन तालिबान को पता है कि अफगानी जनता उससे कितना आतंकित है।

कहाँ है भारत?

अफ़ग़ान जनता तालिबान के सत्ता में लौटने की आशंका से घबराई हुई है, वह नहीं चाहती कि फिर नब्बे के दशक वाला क्रूर शरियत शासन लागू हो। साल 2001 के बाद से जिस  तरह भारत ने वहाँ शांति, विकास व राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में अपना अहम योगदान दिया है, उसे अफ़ग़ान याद करते हैं, लेकिन तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद भारत के लिये सबसे बडा ख़तरा यह पैदा हो जाएगा कि वहा से न केवल भारतीयों को खदेड़ निकाला जाएगा बल्कि वहाँ के चार शहरों जलालाबाद, मज़ारे शरीफ़, कंधार और हेरात में भारतीय काउंसेलेटों को भी बंद कर देगा। इससे पाकिस्तान के सामरिक हित सधेंगे। 

तालिबान का सत्ता में लौटना न केवल भारत, बल्कि पूरे दक्षिण और मध्य एशिया में शांति व स्थिरता के लिये खतरे की घंटी साबित होगा।  इस इलाक़े में अस्थिरता अमेरिका सहित पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिये चिंता पैदा करेगी। लेकिन पाकिस्तान औऱ चीन तालिबान को आगे बढाकर अपने सामरिक लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। इसलिये  तालिबान को हथियारों और अन्य तरह की मदद दे कर उसे अफ़ग़ान  राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखना चाहते हैं।  

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