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यूपी में बीजेपी के लिए आसान नहीं 2019 की राह

यूपी में बीजेपी के लिए आसान नहीं 2019 की राह

2014 में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को 43 प्रतिशत वोट के साथ 73 सीटें मिली थीं, लेकिन सपा-बसपा के गठबंधन के बाद ऐसा नहीं लगता कि 2019 में बीजेपी की राह आसान होगी।

बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के बाद यह माना जा रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए अपने दम पर 71 या उससे अधिक सीटें लाना किसी दिवास्वप्न की तरह होगा।

इस सोच का आधार हाल ही में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच हुआ गठबंधन है। दोनों दलों के बीच हुए समझौते के बाद दोनों 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। रायबरेली और अमेठी की सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दी गई हैं और बाक़ी दो किसी अन्य दल के लिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और 2013 में हुए मुज़फ्फ़रनगर के दंगों को ध्यान में रखते हुए अभी इस गठबंधन में राष्ट्रीय लोक दल को भी शामिल किया जाना संभावित है। रालोद को तीन सीटें मिल सकती हैं।

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नहीं बँटेंगे मुसलिम वोट

केंद्र में सरकार बनाने से बीजेपी को रोकने में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीट निर्णायक होंगी, इसलिए इस गठबंधन को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस गठबंधन का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि इस बार चुनावी मुकाबला चौकोणीय नहीं होगा और ना ही मुसलिम वोट का बँटवारा होगा जिसका पूरा लाभ बीजेपी को 2014 में मिला था।  

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2014 में हुए संसदीय चुनाव पर नज़र डाली जाए तो पता चलेगा कि इस गठबंधन से बीजेपी की स्थिति उतनी कमज़ोर नहीं होगी, जितना कि माना जा रहा है। इस शंका के कुछ कारण हैं। जैसे, क्या बसपा और सपा के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफ़र होंगे? और क्या जिन दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों ने 2014 में बीजेपी को वोट दिया था, वे इस बार उसका साथ छोड़ देंगे?

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लखनऊ में अखिलेश यादव के साथ हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मायावती ने कहा था कि बसपा और सपा दोनों का अनुभव है कि कांग्रेस के वोट दूसरे दलों को नहीं मिलते हैं। इसी वजह से कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा गया है।

क्या ट्रांसफ़र होंगे वोट?

गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में बसपा के वोट सपा के पक्ष में पड़े थे जिसकी वजह से बीजेपी दोनों सीट हार गई थी। लेकिन यादव, जिनका गाँवों में दलितों से छत्तीस का आँकड़ा रहता है, वे बसपा के उम्मीदवार को वोट देंगे, यह अभी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है लेकिन कार्यकर्ताओं के उत्साह को देखते हुए अखिलेश यादव को उम्मीद है कि सपा के वोट बसपा के पक्ष में ट्रांसफ़र होने की पूरी संभावना है।

अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर। क्या जिन दलित और पिछड़ा वर्ग, विशेष कर यादव मतदाताओं ने बीजेपी को उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक जीत दिलाई थी, वे अब उससे दूर हो जाएँगे? पहले चर्चा करते हैं जाटव दलितों की जिनकी बीजेपी का साथ छोड़ने की संभावना अधिक है और उसकी एक ख़ास वजह है दलितों का ठाकुरों द्वारा उत्पीड़न।

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सहारनपुर में हुए थे दंगे 

इस सन्दर्भ में 2017 में सहारनपुर में हुए दंगों का ज़िक्र करना ज़रूरी है जिसमें निषेधाज्ञा के बावजूद महाराणा प्रताप की मूर्ति पर माल्यार्पण करने के लिए ठाकुरों का जुलूस दलित बस्ती में पहुँच गया। हिंसक घटनाओं में ठाकुर बिरादरी के एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई जिसके बाद दलितों के घरों को आग लगा दी गई। विरोध में भीम आर्मी के नेतृत्व में दलितों ने जंतर-मंतर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। क़रीब 160 दलित परिवारों ने हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को तिलांजलि देकर बौद्ध धर्म अपना लिया।

रावण की गिरफ़्तारी से नाराज़गी

एक साल बाद महाराणा प्रताप की जयंती पर भीम आर्मी के नेता कमल वालिया के भाई सचिन को सहारनपुर में ही गोली मार दी गई और माहौल एक बार फिर तनावपूर्ण हो गया। भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ रावण की गिरफ़्तारी के बाद दलितों की नाराजगी और बढ़ गई। उनका आरोप था कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ठाकुर जाति के होने से सहारनपुर के ठाकुरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं हो रही थी।

पिछले साल कासगंज के निजामपुर गाँव के संजय जाटव को ऊंची जाति के लोगों ने घोड़े पर चढ़ कर बारात ले जाने से रोक दिया और उसे उच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ी।

पार्टी के ख़िलाफ़ उठाई आवाज़

पिछ्ले ही वर्ष दिसम्बर में बीजेपी की बहराइच से सांसद सावित्रीबाई फुले ने यह कहकर पार्टी से नाता तोड़ लिया कि सरकार दलितों और पिछड़े वर्ग के अधिकारों की अनदेखी कर रही है और उनके दलित होने की वजह से उनकी बात भी नहीं सुनी जा रही है। सिर्फ़ सावित्रीबाई ही नहीं बल्कि पार्टी के रॉबर्ट्सगंज से सांसद छोटेलाल खरवार, इटावा के सांसद अशोक कुमार दोहरे और नगीना के विधायक यशवंत सिंह ने भी पार्टी के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाई।

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मज़बूरी में बीजेपी को दलितों की नाराज़गी के कारणों को समझने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पहल पर चिंतन करना पड़ा। जब 2014 की प्रचंड मोदी लहर में भी बसपा को लगभग 20 प्रतिशत वोट मिले थे तो यह कहा जा सकता है कि 2019 में पार्टी को ज़्यादा वोट मिलेंगे जिसमें जाटवों का बड़ा योगदान होगा भले ही वाल्मीकि और मल्लाहों का मायावती को पूरा सहयोग ना मिले।

दूसरी तरफ़ अन्य पिछड़ा वर्ग है जिसको डर है कि हाल ही में बहुसंख्यकों को दिए गए आरक्षण से उनका नुक़सान हो सकता है। आरक्षण लागू होने से पहले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर, जो प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं, का मानना है गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनावों में बीजेपी की हार की वजह पिछड़े वर्ग के लोगों का नाराज़ होना है।

मौर्या को सीएम न बनाने से रोष

इस नाराज़गी की शुरुआत उसी दिन से हो गई थी जिस दिन केशव प्रसाद मौर्या को किनारे कर योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया था। चुनाव से पहले केशव प्रसाद मौर्या उत्तर प्रदेश में बीजेपी के अध्यक्ष थे और उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को पार्टी से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। सरकार बनने के बाद कई दिनों तक मुख्यमंत्री और मौर्या में इतना मनमुटाव रहा कि योगी, उप मुख्यमंत्री को अपने कई आयोजनों से अलग रखते थे। कहीं ना कहीं वह मनमुटाव आज भी बरक़रार है।

प्रदेश सरकार में मंत्री ओमप्रकाश राजभर की माँग है कि उनकी जाति को अति पिछड़े वर्ग में अलग से आरक्षण दिया जाए। राजभर का कहना है कि बीजेपी के ख़िलाफ़ पिछड़े वर्ग के लोगों में नाराज़गी है।

पिछड़ी जातियों पर सपा की पकड़ कमज़ोर करने के लिए सीएम योगी आदित्यनाथ ने एक चार-सदस्यीय सामाजिक न्याय समिति का गठन किया जिसने 27 प्रतिशत में यादवों और कुर्मियों का आरक्षण 7% और राजभर तथा घोसी जातियों को 9% आरक्षण का प्रस्ताव दिया। कुर्मी, बीजेपी के सहयोगी अपना दल के समर्थक माने जाते हैं। यद्यपि इस प्रस्ताव को अभी सरकार की मंजूरी नहीं मिली है लेकिन इसके मंतव्य को लेकर रोष है। 

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2014 में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को 43 प्रतिशत वोट के साथ 73 सीट मिली थीं जो अनुमान से कहीं ज़्यादा थीं। आरक्षित सीटों पर 17 दलित उम्मीदवार बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीते थे। वर्तमान परिस्थितियों में दलितों, अन्य पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग के तेवर देख कर फ़िलहाल नहीं लगता कि 2019 में बीजेपी के लिए लोकसभा की राह आसान होगी।

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